संवेदना का निर्मल सरोवर है कलाकार का अंतःकरण

April 1997

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महाराजा ने झुँझलाकर अपने पाँच साल के बेटे के गाल पर जोर का तमाचा जड़ दिया। बेटा ‘रवि’ चकरा कर गिर गया। महाराज के झुँझलाने, डाँटने और रवि के थप्पड़ मारने की आवाजें रानी ने भी सुनी। वह पर्दे के पीछे किसी काम में व्यस्त थी। रवि के गिरने की गूँज से उनका मातृ-हृदय उद्वेलित हो उठा। वह भागी-भागी आयी, किन्तु महाराज की चढ़ी हुई त्योरियाँ देखकर सहम-सी गयी। उन्हें देखते हुए महाराज ने तीखी आवाज में आदेश दिया,”कोई भी इस रवि से बात नहीं करेगा।”

उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसी कौन-सी भूल कर दी उनके बेटे ने। वह अपने पुत्र की कोमल भावनाओं से परिचित थीं। उन्हें मालूम था कि उनका बेटा शरारती नहीं है। किसी को सताना-परेशान करना उसके स्वभाव में नहीं है। वह तो बस प्राकृतिक दृश्यों, देवी-देवताओं के चित्रों में मुग्ध रहता है। यदा-कदा खड़िया, मिट्टी से कुछ वैसा ही चित्रित करने का प्रयास करता है। उसके इस बाल-सुलभ चित्राँकन में भी कुछ ऐसा रहता है कि हृदय की संवेदना छलक कर जीवन की सतह पर आ जाय।

उसकी यह प्रवृत्ति महाराज को परेशान करती थी। आज भी वह कुछ इसी परेशान हो उठे थे। इस समय अट्टालिका पर टहलते हुए सोच रहे थे-कि आखिर कितनी कोशिश की रवि को सुधारने की। उनकी इच्छा थी बेटा सैनिक बने, शूरवीर सैनिक। किन्तु वह है कि मानता ही नहीं।

रवि के बारे में सोचते-सोचते एक गम्भीर श्वास छोड़ा और कक्ष में आकर सिंह के चमड़े से मढ़े आसन पर जा बैठे। उनके मन में यह भी आया कि अपने रवि को समझाने के लिए किसी और से कहें। परन्तु फिर सोचने लगे कि विधि का लिखा भला कौन टाल सकता है। फिर उनका पितृ-हृदय अपने पुत्र के प्रति संवेदनशील हो उठा। वह आसन से उठे और भारी कदमों से चलते हुए रवि के पास जा पहुँचे। अब उनका हाथ बेटे के सिर पर था।

आज की घटना से उन्हें काफी मानसिक सन्ताप पहुँचा। कहीं किसी मन के कोने में उन्हें लगने लगा था कि हर व्यक्ति की अपनी मौलिकता होती है। व्यक्ति की अपनी मौलिकता होती है। व्यक्ति की रुचियाँ, प्रवृत्तियाँ, संस्कार ही उसके जीवन की दिशा तय करते हैं। दूसरा तो सिर्फ इनके परिशोधन-परिमार्जन में सहायता कर सकता है। यही कुछ सोचकर उन्होंने रवि को टोका-टाकी न करने का निश्चय किया।

चाचा राजवर्मा स्वयं संवेदनशील प्रकृति के इंसान थे। छोटा रवि जब कभी जमीन पर, दीवारों पर, आँगन में लाल-पीले रंगों से चित्र बनाता था, तो उसके चाचा डाँटने-डपटने की बजाय उसे प्रोत्साहन देते। जब वह आड़ी-तिरछी-गोल रेखाओं को खींच कर ताली बजाता, तो राजवर्मा भी उसके साथ ताली बजा-बजाकर नाचने लगते।

राजवर्मा स्वयं एक अच्छे चित्रकार थे। अंजोर कला-पद्धति के विशिष्ट जानकार के रूप में उनकी भारी प्रसिद्धि थी। कला का ज्ञान उन्होंने अंजोरी कला के पोट्र्ट चित्रकार अलविरी नायडू से पाया था। रवि की माँ अम्बाबाई खुद भी एक कुशल चित्रकार थीं। रवि में महान चित्रकार होने के गुण हैं, तब वह फूली न समायी थीं।

यह वर्मा परिवार केरल राज्य के ‘किलमनूर’ नामक गाँव में रहता था। गाँव कोई खास बड़ा न था, किन्तु वर्मा परिवार की वजह से इसकी ख्याति दूर-दूर तक पहुँची थी। इसकी वजह यही थी कि त्रावणकोर राज-परिवार की कन्याओं के विवाह के लिए वर इसी परिवार से पसन्द किए जाते थे, इसीलिए परिवार के सदस्यों को राजा कहकर संबोधित किया जाता था। उस समय त्रावणकोर की राजधानी त्रिवेन्द्रम थी। राजधानी होने की वजह से यह स्थान उस समय राज्य के कला-कौशल, प्रगति-समृद्धि का मुख्य केन्द्र बना हुआ था।

रवि की कला में और अधिक निखार आए, यह सोचकर राजवर्मा उसे अपने साथ त्रिवेन्द्रम ले गए। रवि की आयु उस समय चौदह साल की थी। इतने दिनों में उसने चाचा की संगत में अच्छी चित्रकारी सीख ली थी। इतना ही नहीं, अब तो वह यदा-कदा चाचा से भी अच्छे चित्र बना लेता था। राजा राजवर्मा को त्रावणकोर के राजदरबार में काफी सम्मानित स्थान प्राप्त था। बातचीत के दौरान उन्होंने महाराजा के समक्ष अपने भतीजे का गुणगान किया। महाराजा को थोड़ी देर तक तो यकीन ही नहीं आया। उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा था कि आखिर चौदह साल का बच्चा चित्रकारी में इतना निपुण कैसे हो सकता है। महाराजा को विश्वास दिलाने के लिए राजवर्मा ने रवि द्वारा बनाए गए कितने ही चित्र उन्हें दिखाए।

इन चित्रों को देखकर त्रावणकोर के महाराज इतने प्रभावित हो गए कि उन्होंने तुरन्त रवि को अपने यहाँ रखने की इच्छा जाहिर की ।उन दिनों वहाँ के राजदरबार में और भी ख्याति प्राप्त कलाकार थे। उन्होंने राजवर्मा को आश्वासन दिया कि यहाँ रवि को सभी चित्रकारों में प्रोत्साहन मिलता रहेगा। राजवर्मा को भी लगा कि त्रिवेन्द्रम का कलात्मक वातावरण रवि के लिए प्रेरणादायक रहेगा। यहाँ रहकर वह आसानी से अपने भविष्य को कहीं अधिक उज्ज्वल बना सकता है। यही सोचकर उन्होंने महाराज के अनुरोध को स्वीकार कर लिया।

त्रिवेन्द्रम के राजदरबार में रवि को पर्याप्त आदर-सम्मान मिला। इस प्रसन्नता में उसके काफी दिन तो आसानी से गुजर गए। लेकिन धीरे-धीरे उसे लगने लगा महाराज का निकट सम्बन्धी होने पर भी दरबारी चित्रकारों के मन में भारी द्वेष है। इसे दूर करना काफी कठिन कार्य है। कई बार तो स्थितियाँ। ऐसी बनती कि स्वयं महाराज को हस्तक्षेप करना पड़ता।

ऐसा ही एक चित्रकार था-’रामास्वामी नायडू’। त्रावण्कोर के दरबार में उसकी कला की काफी चमक थी। लेकिन बड़ा चित्रकार होने पर भी उसके मन की द्वेष-वृत्ति काफी विकराल थी। सम्भवतः इसलिए कला उसके लिए प्रसिद्धि का साधन थी-हृदय की भाववृत्ति नहीं। रवि को उसके द्वेष के दंश प्रायः लगते रहते थे? यदि वह चाहता तो महाराज से उसकी शिकायत कर सकता था। दण्डित करवा सकता था। परन्तु उसके कलाकार हृदय ने कभी इसकी इजाजत नहीं दी। वह चुपचाप उसके और अन्य कलाकारों के अत्याचार सहन करता रहा। समय बीतता गया और उसकी प्रतिभा नित्य उन्नत होती रही।

रवि की कला कुत्सा के कलुष से सर्वथा मुक्त थी। वह तो भारत के अतीत के दैवी भावों को लोक हृदय में उतारना चाहता था। पौराणिक कथा-गाथाएँ उनके चित्रों का विषय थीं। उसकी कला-साधना सतत् चलती रही और जब त्रिवेन्द्रम में आयोजित एक ललित कला प्रदर्शनी में उसके चित्रों का प्रदर्शन किया गया, तो देखने वाले स्वयं चित्रवत् रह गए। दरबारी चित्रकारों की द्वेषवृत्ति अपनी ही शर्म में डूबने लगी।

1866 में महाराज ने अपनी सबसे छोटी बहिन का विवाह रवि से कर दिया। अब तो वह राजा रविवर्मा बन गए। उन्हीं दिनों एक अँग्रेज कलाकार ‘थियोडोर जेन्सन’ त्रिवेन्द्रम आया। वह चित्रकार कला की एक विशेष पद्धति में सिद्धहस्त था। राजा रवि जब एक दिन उस विदेशी चित्रकार की चित्रशाला में गए, तो उसकी कला-कुशलता पर मुग्ध हुए बिना न रहे। अँग्रेज कलाकार की पद्धति को सीखने की लालसा उनके कलाकार मन में अंकुरित हो आयी। उन्होंने जेन्सन से इसके लिए विनम्र आग्रह किया कि वह उन्हें अपनी विशिष्ट पद्धति सिखा दे।

परन्तु जेन्सन को अपनी पद्धति का भारी अभिमान था। उसने साफ इन्कार कर दिया। यदि रवि चाहता तो इसके लिए उसे महाराज से आदेश भी दिलवा सकता था। लेकिन ऐसा करना उसने उचित नहीं समझा। किसी दबाव डलवाना उसकी संवेदनशील प्रकृति के विरुद्ध था। इसके लिए उसने एक दूसरा उपाय सोचा। अब की बार जेन्सन से विनयपूर्वक अनुरोध किया कि वह भले ही उसे अपनी कला न सिखाए, परन्तु उसे चित्रकारी को इसमें कोई एतराज करने की जरूरत न महसूस हुई। उसने उपेक्षा-भव प्रदर्शित करते हुए अनुमति दे दी।

अब बारी थी-राजा रविवर्मा की सूझ-बूझ की सूक्ष्मता की, प्रतिभा की प्रखरता एवं अध्यवसाय की कड़ी परीक्षा की। उन्हें विश्वास था कि मानवीय व्यक्तित्व अपरिमित क्षमताओं का भण्डार है। यदि कठोर परिश्रम एवं पूर्ण मनोयोग का आश्रय लिया जाय तो असंभव जैसा कुछ भी नहीं। वे नित्यप्रति जेन्सन के स्टूडियो में जाने लगे। जेन्सन रविवर्मा के साथ घण्टों एक साथ रहने पर भी कोई बात-चीत नहीं करता था। शायद इसमें उसे अपना जातीय अभिमान आड़े आता था। स्टूडियो में पूर्ण निस्तब्धता रहती थी। राजा रविवर्मा तन्मयता से थियोडोर जेन्सन को ब्रुश चलाते हुए देखा करते थे। कुछ दिनों बाद जेन्सन तो स्वदेश वापिस लौट गया, लेकिन रविवर्मा लम्बी अवधि तक उस नई विद्या का अभ्यास करते रहें।

इसके साथ ही उनकी चित्रकारी में अनेकों नए आयाम प्रकट होते गए। कइयों ने उनकी इस मोहक सफलता का राज जानना चाहा। उत्तर में वे मुस्कुराते हुए कहते-प्रश्न कला की सफलता का नहीं है। सफलता तो एक-सी होती है, भले ही वह कला के क्षेत्र में हो अथवा फिर जीवन के किसी और क्षेत्र में। सफल होने का सिद्धान्त एक ही-व्यक्तित्व की समस्त शक्तियाँ एक ही उद्देश्य के प्रति समर्पित हों। लेकिन मार्ग में अवरोध भी तो आते हैं? प्रश्नकर्ता की जिज्ञासा अस्वाभाविक न थी। हालाँकि उनका समाधान और भी रोचक था-ऐसे प्रश्नों के उत्तर में वह कहते-यदि दृढ़ संकल्प हो, अध्यवसाय हो, तो रुकावटें ठोकर तो देती हैं, लेकिन हर ठोकर तो देती हैं, लेकिन हर ठोकर के बाद, हर रुकावट के बाद प्रगति का प्रवाह और वेगवान हो उठता है।

कला-साधना में उनकी तन्मयता रुकावटों व अवरोधों के बावजूद बढ़ती गयी। 1876 में त्रावनकोर के अँग्रेज रेजीडेण्टा ने उनकी मद्रास में लगी ललित कला प्रदर्शनी को देखा। इसमें उनके द्वारा बनाया एक चित्र ‘शृंगार करती नायर जाति की एक नारी’ का था। नारी के कोमल एवं संवेदनशील भावों का इतना मार्मिक कचत्राँकन ने उस गवर्नर का मन मोह लिया। इस चित्र पर उन्हें गवर्नर की ओर से स्वर्ण पदक का प्रथम पुरस्कार मिला। गवर्नर के अनुरोध से इसी चित्र को उन्होंने विएना की ‘ललित कला प्रदर्शनी’ में भी भेजा। वहाँ भी इस चित्र की भूरि-भूरि प्रशंसा हुई। इन सफलताओं से उत्साहित और प्रेरित होकर उन्होंने एक दूसरा चित्र ‘शृंगार करती हुई एक तमिल स्त्री,’ का बनाया। बाद में इन दोनों चित्रों को 1875 में ‘प्रिन्स आफ वेल्स’ की त्रिवेन्द्रम यात्रा के अवसर पर भेंट कर दिया गया।

तैल चित्रों में निपुणता पाने के बाद फिर से उन्होंने अपना सम्पूर्ण ध्यान भारत की पौराणिक कथाओं की ओर केन्द्रित किया। उनका कहना था कि कभी किसी देश व समाज को अपने अतीत के गौरव को विस्मृत नहीं करना चाहिए। उनकी मान्यता थी कि अपने देश के वैदिक एवं पौराणिक वाङ्मय में मानव में दैवी तत्वों को उभारने वाली सारी सम्भावनाएँ हैं। कला के द्वारा इन तत्वों को सहज भावगम्य बनाया जा सकता है। उनकी कला का यही उद्देश्य था।

उनकी चित्र बनाने की प्रतिभा सहज थी। ऐसा लगता था कि उनका हृदय संवेदना का निर्मल सरोवर है, जिसमें प्राकृतिक सौंदर्य एवं दैवी भाव स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित हो उठते थे। यह साफ-अक्स ही उनको सफल-चित्रकार की महिमा से मण्डित करता रहता था। देखते-देखते उनके चित्रों की माँग चारों दिशाओं से आने लगी। जिसे पूरा करने के लिए उन्होंने बम्बई में ‘आर्लिए-ग्राफिक’ नाम से एक प्रेस की स्थापना की। इसके बाद भारत के लगभग प्रत्येक कला-प्रेमी के घर में उनके चित्र मिलने लगे।

उनके द्वारा बनाए गए पौराणिक चित्र इतने भावनापूर्ण एवं आकर्षक होते थे कि अनगिनत लोग उन्हें देखकर कह उठते कि रविवर्मा ने साक्षात में देवताओं का दर्शन किया है, उनका संपर्क पाया है। 5 अक्टूबर, 1906 उनका दैवी व्यक्तित्व दैवी चेतना से एकाकार हो गया।

5 साल के जिस बालक को अपनी सहज संवेदनशील प्रकृति के कारण प्रताड़ित होना पड़ा, कलाकार की वही प्रकृति उसे एक महान विभूति के रूप में प्रतिष्ठित कर गयी। स्वयं की प्रकृति की मौलिकता को पहचाना जा सके और उसे कलाकार की रीति से सँवारा जा सके-तो जीवन का विकास शतगुणित, सहस्रगुणित हो उठता है।


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