गायत्री को गुरुमंत्र कहा जाता है। गुरुतत्त्व द्वारा मिलने वाली श्रद्धा, प्रेरणा, भाव-संवेदना एवं अनुशासन का प्रकाश गायत्री महामंत्र में सन्निहित है। इसीलिए गायत्री को गुरुमंत्र कहा गया है। यों तो कितने ही मंत्र हैं-वैदिक, पौराणिक, तांत्रिक। इन मंत्रों की संख्या का ठीक-ठीक अनुमान लगा पाना भी सम्भव नहीं है। ऐसी स्थिति में गायत्री को ही गुरुमंत्र क्यों कहा गया? यह विचारणीय हो सकता है। भारतीय संस्कृति में गुरु की व्याख्या करते हुए उसके दो महत्वपूर्ण कार्य बतलाये हैं-एक ज्ञानवर्द्धन और दूसरा अशुभ निवारण। गायत्री की शक्ति के भी दो पक्ष हैं। पहला सृजनात्मक और दूसरा अशुभ निवारण। गायत्री की शक्ति के भी दो पक्ष हैं। पहला सृजनात्मक और दूसरा विध्वंसात्मक। गायत्री की सृजनात्मक शक्ति को ‘ब्रह्मविद्या’ कहा जाता है और ध्वंसात्मक शक्तियों को ‘ब्रह्मास्त्र’। साधक की तुलना राजहंस से की जाती है, जिस पर आरुढ़ गायत्री महाशक्ति साधक का कल्याण करती है और दुखदायी विघ्नों का निवारण करती है।
इसी महाशक्ति की चर्चा जब युगशक्ति के रूप में की जाती है तो “परित्राणाय साधूनां” और विनाशाय च दुष्कृताम् की अवतार प्रतिज्ञा पूरी होती है। सृजन और ध्वंस वस्तुतः एक सम्मिलित पूरक प्रक्रिया है। नया कुछ निर्माण करना हो तो पुराने को हटाना पड़ता है। भारतीय अध्यात्म शास्त्रों में वर्णित भगवान के अवतारों की वही क्रियापद्धति रही है, अधर्म, अनीति और आतंक का निवारण और धर्म, नीति, सत्प्रवृत्तियों का प्रोत्साहन-अभिवर्द्धन। इस संदर्भ में एक बात और उल्लेखनीय है-अवतारों की संख्या चौबीस ही क्यों गिनी जाती है? जबकि समय-समय पर कितनी विभूतियाँ अवतरित होती रहीं और अपनी निर्माण प्रक्रिया को पूर्ण करती रहीं। इस संख्या में नाम या क्षेत्र विशेष का महत्व नहीं है। वस्तुतः संकेत युगशक्ति के रूप में अवतरित होती रहने वाली गायत्री महाशक्ति की ओर है। उसे नाम और रूप भले ही चाहे जो दिया जाता रहा हो।
गायत्री के चौबीस अक्षरों में वे सभी सिद्धान्त सूत्र रूप में सन्निहित हैं, जिनके आधार पर युगान्तरकारी परिवर्तन प्रस्तुत होते हैं। ईश्वरीय-शक्ति का अवतरण-प्राकट्य हर ऐसे सन्धिकाल में होता है, जब परिवर्तन के अलावा कोई उपाय नहीं रह जाता। उसके स्वरूप और क्रियाकलाप में हेर-फेर अवश्य होता रहता है। पृथ्वी को समुद्र से निकालने और हिरण्याक्ष का संहार करने के लिए वाराह हेतु नृसिंह अवतार, आततायियों का संहार करने के लिए परशुराम, मर्यादा की स्थापना के लिए कृष्ण और बौद्धिक क्राँति के लिए बुद्ध को अवतरित होना पड़ा। इस अवतरण प्रक्रिया में कहीं भी जड़ता नहीं है, अधर्म का विनाश और धर्म की स्थापना ही प्रधान लक्ष्य रहा है।
इस बार नवयुग की-युगशक्ति गायत्री की अवतरण प्रक्रिया भी असुरता के उन्मूलन और देवत्व के उदय के सनातन उद्देश्य से पूर्ण है। परिस्थितियों के अनुरूप उस चेतना के उदय हेतु प्रयासों का स्वरूप भी भिन्न होगा। कारण पहले असुरता सीधे आक्रमण करती थी और समाज व्यवस्था को अस्त-व्यस्त, तहस-नहस करती थी। परन्तु आज असुरता ने छद्म आक्रमण की नीति अपनाई और वह जनमानस में विकृतियाँ उत्पन्न कर रही है। आदर्शों और मर्यादाओं की अवज्ञा इस व्यापक स्तर पर होने लगी है कि उनके लिए कटिबद्ध व्यक्ति अपवाद बनते जा रहे हैं। अतः अवाँछनीयता, असुरता को निरस्त करने का यह धर्मयुद्ध धर्मक्षेत्र में-अन्तः-करण की गहराई में उतर कर लड़ा जाना है और जनमानस के परिष्कार द्वारा, आस्थाओं के परिशोधन द्वारा नवयुग के निर्माण में ग्वाल-वालों की, रीछ-वानरों की भूमिका निभाने के लिए हर जागरुक व्यक्ति को आगे आना है।
यह युग-परिवर्तन की संधिवेला है। सन 2000 तक की अवधि ऐसी है। व्यक्ति और समाज को पतन-पराभव के गर्त में धकेलने वाली दुर्बुद्धि का अन्त होने जा रहा है। सृजनात्मक सत्प्रवृत्तियों का उषाकाल सन्निकट है। उज्ज्वल भविष्य के अरुणोदय में विलंब नहीं। इतने पर भी इस संकट की सम्भावना है कि चलते-चलते आसुरी दुष्प्रवृत्तियाँ अपना आक्रमण तीव्र करें और ‘मरता सो क्या न करता’ की उक्ति चरितार्थ करने में कोई कोर-कसर न उठा रखें। युग संधि की इस वेला में इस प्रकार की उथल-पुथल सम्भावित है। वातावरण में भरती जा रही विषाक्तता, जनसंख्या अभिवृद्धि, अणु-आयुधों और विस्फोटों की भरमार, मानवी चिन्तन और चरित्र में निकृष्टता एवं आचरण में भ्रष्टता का असाधारण समावेश, अन्तर्ग्रही परिस्थितियों एवं क्रुद्ध प्रकृति की विनाश-लीला के मिले-जुले परिणाम मानव समाज के लिए अहितकर ही हो सकते हैं। युगसन्धि की इस वेला में इस खतरे से सावधान रहने और बिना किसी भय-आतंक के, शौर्य और साहस के साथ इन्हें निरस्त करने के लिए प्रबल पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है।
स्रष्टा अपनी कलाकृति का संतुलन इस सीमा तक नहीं बिगड़ने देगा कि विनाश की विभीषिका शालीनता की संस्कृति को निगल जाय। ऐसे अवसरों पर भगवान की युगान्तरीय चेतना सूक्ष्मजगत में अवतारी प्रवाह बनकर गतिशील होती है और उस प्रवाह में जाग्रत आत्माएँ नवसृजन के उत्तरदायित्वों को वहन करने के लिए अन्तःप्रेरणा से प्रेरित होकर उत्साहपूर्वक कार्यक्षेत्र में उतरती हैं। नैष्ठिक साधकों से लोकमंगल के लिए भी इन अवसरों पर कुछ पुरुषार्थ-परमार्थ करते रहने और युगपरिवर्तन के लिए आवश्यक वातावरण बनाने एवं प्रखर व्यक्तित्वों के निर्माण का योजनाबद्ध तरीके से प्रयत्न करते रहने का अनुरोध किया गया है। युगधारा को अधिकाधिक द्रुतगामी बनाने के लिए निष्ठावान साधकों की संयुक्त शक्ति का अभियान ही अधिक प्रभावी सिद्ध होगा। ऋषियों की संयुक्त शक्ति ने ही महाशक्ति दुर्गा का, सीता का अवतरण किया था। आज भी उसी संयुक्त प्रयास की, संयुक्त शक्ति की आवश्यकता है। नैष्ठिक गायत्री उपासक अपने आत्मनिर्माण एवं लोकनिर्माण के व्रतों को अपनाने और क्रियान्वित करने के लिए प्रयत्नशील रहकर युगसन्धि में जागरुक आत्माओं की भूमिका भली-प्रकार सम्पन्न कर सकेंगे। महाकाल ने समस्त श्रद्धावानों, आस्तिकों को यह प्रेरणा अपनाने और प्रस्तुत सुअवसर का समुचित लाभ उठाने का आमंत्रण भेजा है, इसे अपनाने में हर दृष्टि से लाभ ही लाभ है।
इन दिनों जाग्रत आत्माओं को अपनी आत्मशक्ति का अधिकाधिक विकास करना चाहिए। अशुभ को निरस्त करने और सृजन को समर्थ करने के लिए आत्मशक्ति की इन दिनों विशेष आवश्यकता है। उसे उपलब्ध करने के लिए उपासना का एक अभिनव उपक्रम आरम्भ किया गया है, जिसे प्रज्ञा परिवार के समस्त परिजनों द्वारा अपनाया जाना चाहिए। उनके संपर्क में जा भी जीवन्त-आत्मचेतना सम्पन्न व्यक्ति आयें, उन्हें भी अपनाने के लिए कहा जाना चाहिए।
युगसन्धि की इस विषम वेला में की जाने वाली साधना का रूप इस प्रकार है-
1- दैनिक उपासना में न्यूनतम गायत्री महामंत्र की तीन माला का जप अथवा 24 मंत्र लेखन अथवा पाँच गायत्री चालीस पाठ। नैष्ठिक साधक इतना तो करें ही, अधिक बन पड़े तो और भी उत्तम है।
2- गुरुवार को अस्वाद व्रत एवं ब्रह्मचर्य व्रत का पालन।
3- अश्विन और चैत्र की नवरात्रियों में सामूहिक गायत्री अनुष्ठान।
इस नियमित उपासना-क्रम के अतिरिक्त प्रातःकाल की शक्ति-संचार साधना है। यह सूर्योदय से एक घण्टा पूर्व से लेकर सूर्योदय तक की अवधि में किसी भी समय 15 मिनट तक की जा सकती है। प्रक्रिया इस प्रकार है। उपासना-कक्ष या कोलाहल रहित स्थान में ध्यानमुद्रा में बैठें। ध्यानमुद्रा अर्थात् स्थिर शरीर, शान्तचित्त-सुखासन (पालथी मारकर), कमर सीधी-हाथ गोदी में-आँखें बन्द।
-अब धीरे-धीरे साँस खींचें। अनुभव करें कि हिमालय केन्द्र से प्रेरित विशिष्ट प्राण प्रवाह श्वास के साथ घुलकर शरीर के भीतर पहुँच रहा है।
-यह प्राण प्रवाह युक्त साँस मल-मूत्र छिद्रों के मध्य अवस्थित मूलाधार चक्र तक पहुँच कर उससे टकराता है।
-प्राणवायु के टकराने से मूलाधार में सोई पड़ी सर्पिणी के सदृश्य कुण्डलिनी शक्ति में हलचल उत्पन्न होती है।
-कुण्डलिनी श्वास में घुले प्राण प्रवाह को पीकर जाग्रत और परिपुष्ट होती है। उस जागरण से स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों को बल मिलता है।
-साँस को खींचते समय प्राण के मूलाधार चक्र तक पहुँचने का और रोकते समय मूलाधार से टकराने तक कुण्डलिनी जागने की धारणा की जाए।
-साँस छोड़ते समय यह भावना की जाए कि प्राणवायु मेरुदण्ड मार्ग से ऊपर उठती हुई मस्तिष्क मध्य केन्द्र तक पहुँचती है और वहाँ से वह नासिका द्वारा अनन्त अंतरिक्ष में बिखर जाती है। यह समस्त प्राण प्रवाह ब्रह्माण्ड में फैलता है। उसके प्रवाह से विभीषिकाएँ निरस्त होती हैं और अनुकूलताएँ बढ़ती हैं।
-यह एक प्राणायाम हुआ। उसमें पूरक, कुँभक और रेचक तीन ध्यान हैं। तीनों के उद्देश्य हैं-धारण, जागरण एवं संचार। इससे आत्मसत्ता की प्रखरता बढ़ती है और वातावरण के अनुकूलन में सहायता के अनुकूलन में सहायता मिलती है।
-जप की दैनिक, व्रत की साप्ताहिक और अनुष्ठान की छमाही साधना करने का नियम बनाया जाना चाहिए और उसे निष्ठापूर्वक निभाया जाना चाहिए। कारणवश कभी व्यतिरेक उत्पन्न हो जाए तो उसकी पूर्ति अगले दिनों कर ली जाए।
यह साधना देखने में सामान्य किन्तु परिणाम में असामान्य है। इसमें विशेष महत्व शक्ति-संचार साधना का है। इसे हिमालय पर अवस्थित अध्यात्म ध्रुव केन्द्र का-महाकाल का अनुदान समझा जाए। सन् 2000 तक यह विशिष्ट प्राण प्रवाह सूर्योदय तक निरन्तर प्राण प्रवाह सूर्योदय तक निरन्तर चलता रहेगा। प्रज्ञा परिजनों को यह अतिरिक्त अनुदान है। इसका स्वरूप प्राण प्रवाह है, जिसे संकल्पपूर्वक खींचने पर साँस के साथ भीतर प्रवेश करने का अवसर मिलता है। दूसरा कुम्भक भाग-मूलाधार में अवस्थित दिव्य कुण्डलिनी शक्ति को जगाता है। उसे प्रसुप्ति का जागरण समझा जाए। अतीन्द्रिय क्षमता अन्तराल में छिपी पड़ी है। उसे जगाने पर साधक में दैवी शक्तियाँ बढ़ती और परिपुष्ट होती हैं।
तीसरे पक्ष रेचक को विश्व-कल्याण के निमित्त प्रस्तुत किया गया साधक का योगदान कह सकते हैं। दूषित और विक्षुब्ध वातावरण पृथ्वी के इर्द-गिर्द छाया हुआ है। विपत्तियों और विभीषिकाओं के बरसने की आशंका इसी काली घटा से है। इसे धकेल कर अनन्त ब्रह्माण्ड में तिरोहित करना है। इस प्रयोजन के लिए संचार साधन द्वारा छोड़ा गया प्राण प्रवाह अभीष्ट उद्देश्य को पूरा कर सकेगा। प्रज्ञा परिजनों द्वारा एक नियत समय पर किये जाने वाली यह प्राण वर्षा अवाँछनीयता को धकेलने और खदेड़ने का काम भली-प्रकार कर सकेगी। लाखों-करोड़ों परिजनों द्वारा निष्ठापूर्वक नियमित रूप से निर्धारित समय पर साँस द्वारा छोड़ा गया प्राण प्रवाह जहाँ प्रतिकूलताओं को खदेड़ने में सफल होगा, वहाँ इस बात की भी पूरी-पूरी आशा है कि अनुकूलताएँ दिव्यलोकों से खर्चें और प्राणियों में सद्भावना तथा पदार्थों में सार बनकर पृथ्वी पर उतरें।
इस साधना की न्यूनतम अवधि पन्द्रह मिनट रखी गयी है। अधिक समय बढ़ाना हो तो उसे हर सप्ताह एक मिनट के क्रम से बढ़ाया और अधिकतम आधा घण्टा तक पहुँचाया जा सकता है। इससे अधिक न किया जाए। बालक एवं दुर्बल व्यक्ति दस मिनट ही करें। जो आत्मिक दृष्टि से प्रौढ़ एवं परिपक्व हैं वे एक-एक मिनट बढ़ाते हुए आधा घण्टे तक पहुँचा सकते हैं। अधिक भोजन से उत्पन्न होने वाली हानियों की तरह इस प्राण-संचार साधना को भी उपयुक्त सीमा तक सीमित रखने को ही कहा गया है।
युग-सन्धि की यह विशिष्ठ साधना सभी नैष्ठिक परिजन तो कर ही रहे हैं, किन्तु आवश्यक यह भी है कि इस नवरात्रि से इस साधना उपक्रम से अधिक से अधिक नये व्यक्तियों को अवगत करायें और मिशन से जोड़ें, ताकि आत्मकल्याण एवं विश्वकल्याण का उभयपक्षीय प्रयोजन पूरा कर सकना सम्भव हो सके।