‘हिन्दू’ शब्द का मर्म

April 1997

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‘हिन्दू’ शब्द में मानवता का मर्म सँजोया है। अनगिनत मानवीय भावनाएँ इसमें पिरोयी है। सदियों तक उदारता एवं सहिष्णुता का पर्याय बने रहे इस शब्द को कतिपय अविचारी लोगों ने विवादित कर रखा है। यह ठीक है कि वेदों, उपनिषदों, प्राचीन संस्कृत एवं पाली ग्रन्थों में इसका उल्लेख नहीं मिलता है। किन्तु ऐसा नहीं है कि इस शब्द में पिरोये भाव उस समय नहीं थे। उस समय इन भावों की अभिव्यक्ति ‘आर्य’ शब्द से होती थी। आर्य यानि कि मानवीय श्रेष्ठता का अटल मानदण्ड। तब से लेकर बाद तक भारतीय जन-जीवन विभिन्न संस्कृतियों एवं भाषाओं को आत्मसात करता चला गया। या यूँ कहें विविध संस्कृतियाँ भारतीय श्रेष्ठता में समाती चली गयीं और श्रेष्ठ मनुष्यों-सुसंस्कृत मानवों का निवास स्थान अपना देश अजनामावर्ष, आर्यावर्त, भारतवर्ष कहलाते हुए हिन्दुस्तान कहलाने लगा और यहाँ के निवासी आर्य, भारतीय और हिन्दू कहलाए।

पण्डित जवाहरलाल नेहरू अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ इण्डिया’ में जब यह कहते हैं कि हमारे पुराने साहित्य में तो हिन्दू शब्द आता ही नहीं है, तो वे हिन्दुत्व में समायी भावनाओं का विरोध नहीं करते। मानवीय श्रेष्ठता के मानक इस शब्द का भला कौन विरोध करेगा। उदारता एवं सहिष्णुता तथा समस्त विश्व को अपने प्यार का अनुदइन देने वाले हिन्दुत्व के प्रति सभी का मस्तक अनायास झुक जाता है। हाँ इस शब्द का पहले-पहल प्रयोग जिस ग्रन्थ में मिलता है ‘मेरुतन्त्र’। इसमें भी हिन्दू शब्द का अर्थ किसी धर्म विशेष से नहीं है। इसके तैतीसवें अध्याय में लिखा है “शक एवं हूण आदि का बर्बर आतंक फैलेगा। अतः जो मनुष्य इनकी बर्बरता से मानवता की रक्षा करेगा वह हिन्दू है।” मेरुतन्त्र के अतिक्ति भविष्य पुराण, मेदिनी कोष, हेमन्त कोसी कोष ब्राहस्पत्य शास्त्र, रामकोष, कालिका पुराण, शब्द कल्पद्रुम, उद्भूत रुपकोष आदि संस्कृत ग्रन्थों में इस शब्द का प्रयोग मिलता है। ये सभी ग्रन्थ दसवीं शताब्दी के आस-पास के माने जाते हैं।

इतिहासकारों एवं अन्वेषण-कर्ताओं का एक बड़ा वर्ग इस विचार से सहमत है कि हिन्दू शब्द की प्रेरक सिन्धु नदी है। सिन्धु नदी के कारण ही यूनानियों ने उस क्षेत्र के वासियों को इन्ववाई कहा, जो आगे चलकर इंडियन बन गया। पण्डित नेहरू के अनुसार हिन्दू शब्द प्रत्यक्षतः सिन्धु से निकाला है, जो इसका पुराना और नया नाम है। इसी सिन्धु शब्द से हिन्दू, हिंदुस्तान या हिन्दुस्तान बने हैं और इण्डस, इण्डिया भी। ऋग्वेद में सिन्धु शब्द लगभग दी सौ स्थानों पर प्रयुक्त हुआ है। डॉ. वी. डी. सावरकर की पुस्तक ‘स्लेक्ट इन्सक्रिप्सशन’ में कहा गया है, सिन्धु नदी के पूर्वी एवं पश्चिमी दिशाओं के बीच के क्षेत्र एवं निवासियों को फारस अर्थात् वर्तमान ईरान के शासक जिरक एवं दारा हिन्दु नाम से पुकारते थे। आचार्य पाणिनि ने अष्टाध्यायी में सिन्धु का अर्थ व्यक्तियों की वह जाति बतायी है, जो सिन्धु देश में रहते हों।

समकालीन इतिहासकार, अन्वेषणकर्ता एवं शिक्षाशास्त्री हिन्दू को फारसी भाषा का शब्द मानते हैं। फारसी भाषा में हिन्दू एवं हिन्दू से बने अनेक शब्द मिलते हैं। हिन्दुवी, हिन्दनिया, हिन्दुआना, हिन्दुकुश, हिन्द आदि फारसी शब्दों में यह झलक देखी जा सकती है। फारस की पूरब दिशा का देश भारत ही वास्तव में हिन्द था। पूरब दिशा से सिन्धु में मिलने वाली तीन नदियाँ हैं, झेलम,

रावी एवं सतलूज। पश्चिम की ओर से भी तीन नदियाँ सुवास्तु, कुम्भारका, (काबुल) एवं गोमल (गोमती) सिन्धु नदी में मिलती हैं। इन्हीं विशिष्ट धाराओं एवं सिन्धु नदी से सिंचित होने वाले प्रदेश का नाम सप्तसिन्धु या हप्तहिन्दु था।

वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश एवं अफगानिस्तान इसी क्षेत्र का भाग है। फारसी शब्दावली के नियमानुसार संस्कृत का अक्षर ‘स’ फारसी भाषा के अक्षर ‘ह’ में परिवर्तित हो जाता है। इसी कारण सिन्धु शब्द परिवर्तित में इसी से हिन्दू हो गया। कालांतर में इसी से हिन्दू या हैन्दव एवं हिन्द शब्द प्रयुक्त हुए। हिन्दू शब्द जेन्दावेस्ता या धनदावेस्ता जैसी फारसी की प्राचीन धार्मिक पुस्तक में सर्वप्रथम मिलता है। एक फारसी ग्रन्थ शतीर के 163 वें श्लोक में हिन्द शब्द मिलता है। जिसमें महर्षि व्यास जी सम्राट गसताशिप को अपना परिचय देते हुए कहते है-मेरा जन्म हिन्द में हुआ है। संस्कृत एवं फारसी भाषा के अतिरिक्त भी अनेकों ग्रन्थों में हिन्द या हिन्दू शब्द का प्रयोग किया गया।

श्री वासुदेव विष्णुदयाल ने अपनी पुस्तक ‘द एसेन्स ऑफ द वेदाज एण्ड एलाइड स्क्रिपचर्स’ में पृष्ठ 3-4 पर आचार्य सत्यदेव वर्मा ने’ इस्लामिक धर्म ग्रन्थ पवित्र कुरान के संस्कृत अनुवाद की भूमिका में श्रीतनसुख राम ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दू धर्म परिचय’ के पृष्ठ 31 पर लिखा है कि अरबी भाषा के एक अंग्रेज कवि लबी बिन अखतब बिन तुरफा ने अपने काव्य संग्रह ‘सीरतुलकुल’ में हिन्द एवं वेद शब्द का प्रयोग किया है। ये महान कवि इस्लाम से 2300 वर्ष पूर्व हुए हैं। अरबी में हिन्दू शब्द का मिलना यह अवश्य सुनिश्चित करता है कि यह शब्द यूनान, फारस, यूरोप एवं अरब देशों में प्रचलित था और यह भी कि विश्व की परिक्रमा में विभाजित अधिकार समकालीन राष्ट्र इस शब्द को धर्म विशेष अथवा सम्प्रदाय विशेष के अर्थ में नहीं बल्कि सद्गुण सम्पन्न मानव जाति या क्षेत्र विशेष के अर्थ में प्रयोग करते थे।

श्री रामधारीसिंह दिनकर ने अपनी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में लिखा है कि उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में जब भारत में फिरंगियों का प्रकोप बढ़ गया था और जागरुकता की लहर चली, तब बहुत से व्यक्ति हिन्दू नाम त्याग कर अपने आपको आर्य कहने लगे। क्योंकि ये दोनों ही शब्द समान अर्थ रखते हैं। वी. डी. सावरकर हिन्दुत्व पुस्तक में लिखते हैं, “हिन्दू उद्बोधन हमें विश्व ने दिया है, जिसकी उत्पत्ति का केन्द्र सिन्धु नदी है। दुनिया हमें जो सम्बोधन देती है, यदि वह हमारी भावना के विपरीत है, तब तो सभी नामों को दबा देना सरल है। परन्तु विश्व यदि हमें ऐसा नाम देता है जिससे हमारी वर्तमान एवं भूतकालीन विशिष्टता प्रदर्शित होती है, तब वह नाम अवश्य ही दूसरे नामों को भुला देगा। हमारा हिन्दू नाम इतना गौरवशाली है कि उसके वेग से हमारा सर्वसम्मत नाम भरतखण्ड भी पृष्ठभूमि में चला गया। दूसरे देशों के वासी भी हमारे सिन्धु या हिन्दु नाम से परिचित हैं और इसलिए हमें उस नाम से ही सम्बोधित भी करते हैं।

हिन्दु शब्द से मानवीय आदर्शों का परिचय मिलता है। साथ ही सिन्धु क्षेत्र सम्बन्धित होने के कारण इससे हम अपना राष्ट्रीय परिचय भी पाते हैं। हिन्दु शब्द को जब हम साम्प्रदायिक संकीर्णताओं से जोड़ते हैं तो हम अपनी महानता, विशालता एवं गर्व को संकुचित मानसिकता में बन्दी बना देना चाहते हैं। भारत में अपना अस्तित्व रखने वाले सभी धर्मों, सम्प्रदायों की मान्यताएँ एवं उपासना विधि, भाषा, वेशभूषा, रीतिरिवाज, धार्मिक विश्वास भले ही आपस में न मिलते हों, परन्तु सभी अपना सम्मिलित परिचय एक सस्वर में गाते हुए यही देते हैं, सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा। हो भी क्यों न, हिन्दू और हिन्दुस्तान इन सभी जातियों, प्रजातियों एवं उपजातियों की मातृभूमि है। जहाँ सभी को रहने का समान अधिकार है।

मानवीय गौरव के प्रतीक इस शब्द से अपना नाता जोड़ने में महाराणा प्रताप एवं शिवाजी सरीखे देशप्रेमियों ने गर्व का अनुभव किया। शिवाजी की वीरता, पराक्रम एवं श्रेष्ठता की अनुभूति करते हुए राखी हिन्ददानी, हिन्दवान को तिलक राख्यों आदि शब्दों का प्रयोग किया है। गुरु गोविन्दसिंह ने भी इस शब्द के निहितार्थ का भावविभोर होकर गान किया है। संस्कृत व्याकरणाचार्यों ने भी इस शब्द के अर्थ को कुछ विशेष ही बताया है। अद्भुत रूप कोश में लिखा है, दुष्टता का नाश करने वाले हिन्दू कहलाते हैं। हेमन्त कोश के अनुसार हिन्दू वह है जो नारायण यानि के ईश्वर की भक्ति करता है। रामकोश में लिखा है, हिन्दू न तो दुष्ट होता है न, अधर्मी अथवा नहीं किसी की पीठ पीछे बुराई करता है। जो सत्यधर्म, सत्यवचन का पालन करता हो, विद्वान एवं वेद धर्म का उपासक हो वहीं हिन्दू है।

शब्द कल्पद्रुम के अनुसार हीन दुष्याति इति हिन्दू अर्थात् जो अपनी हीनता एवं बुराई को स्वीकार कर उसे छोड़ने के लिए तैयार होता वह हिन्दू है। ‘द धर्मस्मृति’ के अनुसार हिंसा से बचने वाला, सदाचारी ईश्वर की राह पर चलने वाला। हिन्दू है। आचार्य माधव के अनुसार ओंकार मूलमंत्र में आस्था रखने वाले, पुनर्जन्म में विश्वास करने वाले, गौ’-सेवक, ऋषि भरत को अपने पूर्व पुरुष मानने वाले, हिंसा को अधर्म समझने वाले हिन्दू है। पारिजात हरण नामक एक प्राचीन नाट्य ग्रन्थ में कहा गया है, अपनी तपस्या से शारीरिक दुर्गुणों एवं पापों को धोने वाला, दुष्टता का त्याग करने वाला, असुरता से संघर्ष करने वाला हिन्दू है।

आचार्य विनोबा भावे का कहना था, वर्णाश्रम को मानने वाला, गो-सेवक, वेदज्ञान का पुजारी, समस्त धर्मों को सम्मान देने वाला, दैवी तत्वों एवं देव शक्तियों का उपासक, मोक्ष प्राप्ति की जिज्ञासा रखने वाला, पुनर्जन्म पर विश्वास रखने वाला एवं अहिंसा को जीवन में आत्मसात करने वाला ही हिन्दू है।

डा. राजबली पांडेय के अनुसार भारतवर्ष में बसने वाली जन-जातियों करे को कमलाकर एक समाज का नाम हिन्दू एवं इनके मिले-जुले धर्म, मान्यताओं, विश्वास एवं परम्पराओं की आत्मा ही हिन्दुत्व है। जितनी प्रजातियाँ बाहर से आयी, उन्होंने भी धीरे-धीरे हिन्दू जाति या हिन्दुत्व है। मनीषी श्री श्यामगुप्त कहते हैं, द्रविण एवं आर्य संस्कृति के मिलन को हिन्दुत्व कहते हैं। महन्त विगुजियेनाथ के अनुसार-हिन्दुत्व एक भव्य राष्ट्रीय समाजवाद का नाम है। जिसने समस्त भारतीय समाज को एक धागे में पिरो दिया है। इसकी उदात्त साँस्कृतिक भावनाएँ बौद्ध, जैन, सिख, मुस्लिम, ईसाई सभी को अपने प्यार, अपनत्व में समेट लेती है।

पण्डित रामगोविन्द त्रिवेदी के अनुसार हिन्दू धर्म, हिन्दू मर्यादा, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू एकता, हिन्दू परम्परा, हिन्दू कलाएँ आदि सभी हिंदुत्व की परिधि में आ जाते हैं। हिन्दुत्व का मुखमंडल इतना आभावान है कि इसकी रक्षा के लिए वह भी अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तत्पर हो सकते हैं, जो हिन्दुत्व के नियम को कदाचित ही स्वीकारते हों। इसकी मानवीय संवेदना से ओत-प्रोत मान्यताएँ किसी भी धर्म, सम्प्रदाय या मत को अपने ममत्व से भिगो देती हैं।

महात्मा गाँधी ने हिन्दुत्व के प्रति अपना मत व्यक्त करते हुए कहा था, यदि मुझे हिन्दू धर्म की प्रशंसा करने के लिए कहा जाय तो मैं केवल यह कहूँगा कि यह अहिंसा द्वारा सत्य की खोज है। मनुष्य जो ईश्वर में विश्वास न रखे, परन्तु वह स्वयं को हिन्दू कह सकता है, क्योंकि हिन्दू धर्म वास्तव में सत्य की खोज हैं। यह सत्य में विश्वास रखने वाला धर्म है।

आज बदले हुए परिवेश में मान्यताएँ बदली हुई हैं। कतिपय चतुर लोग, अहं की प्रतिष्ठा के लिए शब्दों का मोहक जाल बिछाते रहते हैं। बहेलिए की फँसाने वाली वृत्ति, लोमड़ी की चाल की अथवा फिर भेड़ियों की धूर्तता कभी उन आदर्शों को स्थापित नहीं कर सकती, जिनकी स्थापना के लिए इस देश के सन्तों, ऋषियों, बलिदानियों ने आपने सर्वस्व की आहुति दे दी।

हिन्दुत्व की खोज आज हमें आदर्शवादी मान्यताओं में करनी होगी। इसमें निहित सत्य को मानवीय जीवन की श्रेष्ठता में, सद्गुण-संवर्द्धन में खोजना होगा। धार्मिक कट्टरता एवं साम्प्रदायिक द्वेष नहीं ‘वसुधैव कुटुम्ब-कम्’ का मूलमंत्र ही हिन्दुत्व का सत्य है। यह विवाद का नहीं विचार का विषय है। स्वार्थपरता एवं अहंता से ऊपर उठकर उदारता एवं सहिष्णुता अपनाकर ही हम सच्चे और अच्छे इनसान बन सकते हैं। मानवीय श्रेष्ठता का चरम बिन्दु ही हमारे आर्यत्व एवं हिन्दुत्व की पहचान बनेगा।


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