प्रज्ञापराध के कारण ही बढ़ रहे हैं रोग एवं शोक

April 1997

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मनुष्य के विषय में जब भी विचार किया जाता है, उसकी स्थूल काया-बाह्य संरचना पर ही मुख्यतः ध्यान केन्द्रित होता है। जड़वादी दार्शनिक, प्रत्यक्षवादी वैज्ञानिक काया के साथ-साथ मन की सत्ता का अस्तित्व भी स्वीकारते हैं। यही स्थिति चिकित्साविज्ञानियों की भी है। वे यह तो मानते हैं कि मानसिक विकार एवं भ्रान्याँ रोगोत्पत्ति में एक प्रमुख कारण हैं, पर वे भी प्रधानता शारीरिक लक्षणों, उनकी बाह्य प्रतिक्रियाओं पर देते चले आये हैं। एनाटॉमी एवं फिजियोलॉजी विज्ञान इन दो से परे किसी भी सत्ता के अस्तित्व को नकारते हुए चिकित्सा हेतु मनः विश्लेषण, तनाव शासक औषधियों एवं शारीरिक लक्षणों के तात्कालिक उपचार क्रमों को ही प्रधानता देता है।

वर्तमान प्रचलित चिकित्सा-पद्धतियों का विकास तो अभी-अभी गत कुछ शताब्दियों में हुआ है, परन्तु भारतीय आयुर्वेद विज्ञान रोग की जड़ के निदान का वर्णन कर उपचार हेतु दैनन्दिन के जीवनक्रम में उपलब्ध होने वाली जड़ी-बूटियों तथा रसायन आदि की व्यवस्था करता आया है। इस विज्ञान में रोगोत्पत्ति, निदान व चिकित्सा हेतु समग्र मानव और उसके आंतरिक जीवन पर विचार किया जाता है।

चरक संहिता के अनुसार-

धीधृतिस्मृतिविभ्रष्टः कर्म यत्कुरुतेऽशुभम्। प्रज्ञापराधं तं विद्यार्त्सवदोषप्रकोपणम्॥

अर्थात्-”बुद्धि, धैर्य और स्मृति से भ्रष्ट होकर मनुष्य जो अशुभ कर्म करता है, उसे प्रज्ञापराध जानना चाहिए, उससे सर्वदोष प्रकुपित होते हैं।”

किसी भी चिकित्सा विज्ञान में पूर्वजन्म के अशुभ कर्मों एवं उनकी इस जन्म में रोगों के रूप में परिणति का वर्णन इस प्रकार न हुआ होगा, जैसा कि महर्षि चरक ने किया है। वे कहते हैं-’पूर्व जन्म का कर्म भी, जिसे दैव कहते हैं, कालान्तर में रोगों का हेतु देखा जाता है।’

प्रत्यक्षवादी वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर ये प्रतिपादन प्रयोगशाला में सिद्ध भले न किये जा सकें, पर इनकी दैनन्दिन जीवन-व्यापार में लीला सर्वत्र दृष्टिगोचर होती रहती है। ‘प्रज्ञा’ को आयुर्वेद ने परमपवित्र एवं अमूल्य निधि बताया है जो मानव को सृष्टा का वरदान है। जो इसे जितना प्रखर, परिष्कृत बनाये रखता है वह न केवल अपने आपको व्यक्तित्व सम्पन्न बनाता है अपितु अपने स्वस्थ जीवन का पथ भी प्रशस्त करता है।

इस शब्द को आधार बनाकर स्वस्थ-अस्वस्थ मानसिकता एवं तदनुसार रोगों का निर्धारण कितना सूझबूझ कर किया गया है, यह आज की व्याधियों के अनेकानेक सिद्धान्तों एवं रोगोत्पत्ति पर किये गये प्रतिपादनों को पढ़कर पता चलता है। ‘कीटाणुवाद’ जो आज ऐलोपैथी चिकित्सा-पद्धति का मूल आधार है, को भी चरक ने अस्वीकार नहीं किया है। अन्तर बस इतना ही है कि इसे पूर्व जन्म के पाप कर्म का फलोदय इस जन्म में उस प्रज्ञापराध की जीवनी-शक्ति के ह्रास में परिणति तथा प्रतिक्रिया रूप में जीवाणु वर्ग का शरीर में प्रवेश बताते हैं। ‘आल्टरनेटिव मेडिसिन’ के समर्थक अब आधुनिक विश्व में बढ़ते जा रहे हैं। वे भी जीवाणु के आक्रमण को अनास्था-असन्तुलन की फलश्रुति मानते हैं। यह अनास्था ही शास्त्रों में ‘प्रज्ञापराध’ के रूप में वर्णित की गयी है।

प्रज्ञापराध का कारण है-विवेक से च्युत होना। काम, क्रोध, लोभ इत्यादि के वश में होकर मनुष्य जब स्वयं पर संयम खो बैठता है, तब उसे उचित-अनुचित का भान नहीं रहता। वह अनायास ही ऐसा अपराध कर बैठता है जो काया के स्वस्थ जीवनक्रम को असन्तुलित कर देता है। असंयम चाहे वह मानसिक हो अथवा रसेन्द्रियों-कामेन्द्रियों के माध्यम से शारीरिक, समय की अनियमितता हो अथवा अर्थ एवं वाणी का असंयम-इस की परिणति होती है असन्तुलित चित्तवृत्ति में। यही अपनी बाह्य अभिव्यक्ति शारीरिक रोगों के लक्षणों के रूप में करती है। विडम्बना यह है कि उपचार इन लक्षणों का किया जाता है, न कि उस जड़ का जो गहरे में बैठी रहती है एवं उपयुक्त परिस्थितियाँ पाकर फूटती रहती है।

चरक के अनुसार प्रज्ञापराध का वास्तविक रूप इस प्रकार है-

“संग्रहेण चातियोगबर्जं कर्म वाड्मनः शरीरमहितमनूपदिष्टं यत्तच्व मिथ्यायोगं विद्यात्। इति त्रिविधं विकल्पं त्रिविधिमेव कर्म प्रज्ञापराध इति व्यवस्थेत्!”

अर्थात् “मन, वचन और शरीर के लिए अहितकर और शास्त्र निषिद्ध अतियोग, अयोग और मिथ्यायोग इन त्रिविध विकल्प रूप कर्मों को प्रज्ञापराध कहते हैं।”

आयुर्वेद का यह कथन कि वेगों (ड्र्इव या मोटिव) को अनुचित रूप से रोकने या बलपूर्वक प्रवृत्त करने से रोगोत्पत्ति होती है-वैज्ञानिक शोध का विषय है। मल-मूत्र-वीर्य-वायु का प्राकृतिक प्रवाह न तो एकाएक रोकना चाहिए, न ही उन्हें बलपूर्वक रोकना चाहिए, न ही उन्हें बलपूर्वक क्षरित होने देना चाहिए, क्योंकि फिर ये ही अन्ततः रोगों का कारण बनते हैं।

इन अपराधों के अतिरिक्त वाणी के अपराधों को भी प्रज्ञापराधों में गिना गया है और उन्हें रोगों का कारण माना गया है। वाणी का सदुपयोग और दुरुपयोग ही आनन्द व उद्वेग का, स्वास्थ्य एवं अस्वस्थता का कारण बनता है, ऐसा शास्त्रों का मत है । वाणी के संयम को वाङ्मय तप बताया गया है, जो स्वास्थ्य का सहज साधन है। इसी आधार पर बताया जाता है कि रोगी से कहे गये प्रेम-सहानुभूति से युक्त चिकित्सक के वचन रोगी का आधा रोग दूर कर देते हैं। संयत और सत्य वचन युक्त मृदु वाणी-व्यवहार एक सुसंस्कृत और स्वस्थ व्यक्ति के लक्षण हैं।

प्रज्ञापराध व्यक्ति तक सीमित नहीं है। इसकी प्रतिक्रियाएँ समाज के हर घटक पर होती हैं और सामाजिक स्वास्थ्य पर इसका प्रभाव पड़ता है। दुष्कर्मों का बढ़ना-उनसे सूक्ष्म वातावरण का प्रदूषित होना तथा उसकी परिणति प्रकृति पर दुष्प्रभाव के रूप में होना एक तथ्य है। वस्तुतः प्रज्ञापराध और कुछ नहीं, प्रकारान्तर से आस्था-संकट है, अनास्था रूपी दैत्य का दुष्प्रभाव ही है। यही व्यष्टिगत व समष्टिगत रोगों का मूल कारण है। राष्ट्र के समग्र स्वास्थ्य हेतु, इसके निवारण हेतु पक्षधर मान्यताओं का व्यापक प्रचार-प्रसार अति आवश्यक हैं।


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