हम ईश्वर के होकर रहें

April 1997

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प्रतिमाओं में देखे जाने वाले भगवान मनुहार करने पर भी नहीं बोलते हैं, लेकिन अन्तःकरण वाले भगवान जब दर्शन देते हैं तो बोलने के लिए, बातें करने के लिए व्याकुल दिखते हैं। यदि हम अपने को तनिक-सा अंतर्मुखी कर सकें, तो उनके स्वरों की झंकृति स्पष्ट सुनाई देने लगेगी। न जाने कब से वे हमसे कह रहे हैं-” मेरे इस अनुपम उपहार मनुष्य जीवन को इस तरह न बिताया जाना चाहिए, जैसे कि बिताया जा रहा है। ऐसे न बरबाद करना चाहिए, जैसे कि बरबाद किया जा रहा है। ऐसे न गंवाना चाहिए, जैसे कि गंवाया जा रहा है। यह महत्वपूर्ण प्रयोजन के लिए है। ओछी रीति-नीति अपनाकर मेरे इस अनोखे-अनूठे अनुदान का उपहास न बनाया जाना चाहिए।

जब और भी बारीकी से उनकी भाव-भंगिमा और मुखाकृति को देखेंगे तो प्रतीत होगा कि वे विचार-विनिमय करना चाहते हैं और कहना चाहते हैं कि बताओ तो सही-इस जीवन-सम्पदा का इससे अच्छा उपयोग क्या ओर कुछ नहीं हो सकता जैसा कि किया जा रहा है? वे उत्तर चाहते हैं और सम्भाषण को जारी रखना चाहते हैं।

लेकिन उत्तर तो हम तभी दे सकते हैं, जब अपने को बारीकी से जानने की कोशिश करें। अपनी गहरी छान-बीन करें। स्वयं की रुचियों-प्रवृत्तियों की जाँच-पड़ताल करें? विचारों को ही नहीं संस्कारों को भी परखें। आखिर कहाँ और कौन-सा वह तत्व है, जो हमें भगवान से सम्भाषण नहीं करने दे रहा है, आखिर किस वजह से हम उन्हें उत्तर देने से कतरा रहे हैं, किस कारण हमारी जीवन-सम्पदा नष्ट होती चली जा रही है?

कारण कुछ भी हो, अवाँछित तत्व जहाँ कहीं भी हो उसे अपने से निकाल फेंके। परिष्कृत होते ही अहसास होगा, अन्तरंग में अवस्थित भगवान की झाँकी, दर्शन, संभाषण, परामर्श और पथ-प्रदर्शन तक ही सीमित नहीं है। उसमें गाय, बछड़े जैसा विह्वल वात्सल्य भी है। परमात्मा हमें अपना दुग्ध अमृत-अजस्र अनुदान के रूप में पिलाना चाहते हैं। पति और पत्नी की तरह भिन्नता को अभिन्नता में बदलना चाहते हैं। हमारी क्षुद्रता को अपनी अनन्तता में बदलना चाहते हैं। हमें अपनाने की अपने में आत्मसात कर लेने की उनकी उत्कंठा अति प्रबल हैं।

फिर देरी क्यों? विलम्ब किसलिए? हम ईश्वर के बनें, उसके होकर रहें, उसके लिए जिएँ। अपने को इच्छाओं और कामनाओं से खाली कर दें। उसकी इच्छा और प्रेरणा के आधार पर चलने के लिए आत्मसमर्पण कर सकें, तो परमेश्वर को अपने कण-कण में लिपटा हुआ, अनन्त आनन्द की वर्षा करता हुआ पाएँगे। आनन्द की यह वर्षा हमारे रोम-रोम को पुलकन, प्रफुल्लता, उल्लास और शक्ति से भर देगी। जीवन कृतार्थ और कृतकृत्य हो जाएगा।


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