महर्षि दुर्वासा को उनके तप से विचलित करने के लिए ,रूपगर्विता अप्सरा वपु अपनी पूर्ण साज-सज्जा के साथ चल दी । वपु ने सोचा सर्वत्र मेरा ही प्रभुत्व क्यों न रहे?
सारा वनप्रान्त गूँज उठा उसके थिरकते गीत और पायलों की झंकारों से। दुर्वासा की कुटिया के समीप ही वह जा पहुँची। उन्मादकारी स्वरलहरी महर्षि के कर्णकुहरों में प्रवेश करने लगी।
ऋषि का ध्यान भंग हुआ। उन्होंने योग-दृष्टि से देखा, तो सब कुछ समझने में उन्हें देर न लगी। अप्सरा उन्हें लुभाने और पथभ्रष्ट करने आई है। तप को वासना परास्त करे, यह कल्पना उन्हें बुरी लगी। उन्हें क्षोभ हो आया, आँखें लाला हो गईं।
कुटी के बाहर निकल कर उस रूपगर्विता की थिरकन को एक क्षण के लिए ऋषि ने देखा और कहा-”अभागी ! तुझे जो सौरभ मिला था, उससे तू जगत की प्रसुप्त भक्ति-भावना को जगा सकती थी, सरसता को अमृत की दिशा में मोड़ सकती थी, पर हाय री मूर्खा ! तू तो उल्टा ही करने को उद्यत हो गई। जा अपने कर्म का फल भोग। तू पक्षी की योनि में मारी-मारी फिरेगी। तेरे चार पुत्र होंगे, पर वे अपंग ही बने रहेंगे।”
महर्षि का शाप मिथ्या कैसे होता। वपु अप्सरा का कलेवर छोड़कर एक साधारण-सी चिड़िया बन गई। अण्डे दिये, उनसे चार बच्चे निकले। पर वे चारों अपंग थे। रूपगर्विता अप्सरा के पास पश्चात्ताप ही शेष था, कला की देवी वपु अपने नृत्य संगीत से आज भी दुर्वासना को भड़काकर जनमानस में अपनी प्रभुता जमाने में संलग्न है, पर लक्ष भ्रष्ट होने के कारण निराश्रित पक्षी की तरह इधर-उधर मारी-मारी फिरना पड़ रहा है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों ही बच्चे कला से उत्पन्न होते हैं। पर वासना का लक्ष बन जाने से तो वे अपंग ही रहेंगे।
कला की अप्सरा को आज भी शापित वपु की तरह पश्चाताप करना पड़ रहा है। वासना के लिए उसका किया हुआ नृत्य भला और किसी परिणाम तक पहुँचता भी कैसे?