पूर्वाग्रह का दुराग्रह न पालें

October 1996

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प्राचीन और अर्वाचीन की दीवार सत्य और असत्य के निर्णय में सहायक नहीं हो सकती। पुराना अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी। जो नया है उसमें उपयुक्त भी है और अनुपयुक्त भी। यह परख विवेक एवं गुण-अवगुण की कसौटी पर की जानी चाहिए। उसमें नये और पुराने का पक्षपात नहीं रखा जाना चाहिए। ‘जो पुराना सो अच्छा, जो नया सो बुरा’ यह कोई तथ्य नहीं। इसके लिए दुराग्रह करने पर हम सत्य के निकट नहीं पहुँचते वरन् उससे दूर ही हटते जाते हैं।

पुराने समय के लोग सत्य की शोध में जितने सफल हुए, उसे अंतिम नहीं मान लेना चाहिए। सत्य के परम लक्ष्य तक पहुँचने में अभी लम्बी मंजिल पार करनी है और उस पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे ही बढ़ते चलना पड़ेगा। जो निष्कर्ष पूर्वजों ने निकाले वे अंतिम नहीं थे। उनने भावी प्रगति का मार्ग अवरुद्ध कर दिया है, यह मानकर नहीं चलना चाहिए। एक समय एक परिस्थिति में जो बात उपयुक्त जँचती है उसमें आगे चल कर सुधार करना पड़ सकता है। ऐसा विशाल दृष्टिकोण रखकर ही सत्य की शोध में प्रगति हो सकती है।

किसी जमाने में पृथ्वी को चपटी, ब्रह्माँड का केन्द्र, स्थिर माना जाता था। ग्रह-गणित का खाँचा भी इस मान्यता पर फिट बैठ गया। पीछे उस ज्ञान में प्रगति हुई। पृथ्वी को गोल, असंख्य सौर-मंडलों में से अपने ‘आदित्य’ सूर्य का छोटा ग्रह, पाँच गतियों में भ्रमण करने वाला माना गया। पुराने आग्रह पर अड़े रहना आवश्यक नहीं। चंद्रमा सौरमंडल का स्वतंत्र ग्रह है। इसी बात पर अड़े रहने से कुछ लाभ नहीं, चन्द्रमा पृथ्वी का उपग्रह है। इस तथ्य से इनकार करके यदि पुरातनवादी ही बने रहे तो सत्य से विमुख ही अपने को सिद्ध करेंगे।

अनेक प्राचीन सिद्धान्त सही हैं। वे प्राचीनकाल में जैसे सत्य थे, उपयोगी थे वैसे ही आज भी यथावत् हैं। सत्य, न्याय, प्रेम, संयम, सद्व्यवहार की उपयोगिता भूतकाल की तरह वर्तमान में अक्षुण्य है। सत्य के लिए काल का आग्रह उचित नहीं। तन ढकने की आवश्यकता प्राचीनकाल में समझी गई थी, वह तथ्य आज भी यथास्थान है। पर जिस तरह की पोशाक पुराने लोग पहनते थे, वैसी ही आज भी पहनी जाय, यह आवश्यक नहीं।

सर्दी के दिनों में भारी और गर्मी में हलके वस्त्र पहनने पड़ते हैं। ऋतु परिवर्तन के साथ-साथ वस्त्रों का स्तर बदल जाता है। बदली हुई परिस्थिति का ध्यान न रखकर यदि कोई व्यक्ति पूर्व परम्परा का पालन करे और एक ही तरह का वस्त्र हर ऋतु में पहनने के लिए अड़ा रहे तो उसे बुद्धिमान नहीं कहा जाएगा। भले ही वह अपने को पुरातन पंथी मानता रहे।

प्राचीनकाल में कार्य और व्यवसाय के विभाजन की दृष्टि से समाज को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्गों में बाँटा गया था। अभी भी बुद्धिजीवी, संरक्षक, उत्पादक एवं श्रमिक इन चार वर्गों में संसार के समस्त समाज बँटे हुए हैं। योग्यता, प्रकृति, परिस्थिति एवं अभिरुचि के अनुसार इस कार्य विभाजन में किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती। पर कठिनाई तब उत्पन्न होती है जब वंश या कार्य के कारण किसी वर्ग को उच्च और किसी को निम्न बताया जाने लगा। यह विषय इतना गहरा उतर गया है कि लोग ऐसी मूढ़-मान्यता अपनाकर ऊँच-नीच का ढोंग रचते हैं और विवाह-शादियों में इसी आधार पर दहेज का वारा-न्यारा करते हैं। बहुत सोचने पर भी इस ऊँच-नीच की मान्यता को कोई औचित्य समझ में नहीं आता। शास्त्रों और पूर्व पुरुषों की दुहाई देना व्यर्थ है। हिन्दू धर्म इतना अनुदार और संकीर्ण हो ही नहीं सकता कि वह मनुष्य-मनुष्य के बीच घृणा-द्वेष बढ़ाकर सामाजिक एकता को छिन्न-भिन्न करने वाली खाई खोदे।

समयानुसार कितनी ही प्रथा-परम्पराओं में भारी हेर-फेर होता रहा है। सघन वन प्रदेशों में कृषि और पशु पालने के लिए भूमि और जल की व्यवस्था देखकर लोग किसी जमाने में बिखरे हुए छोटे गाँव बसाकर रहते थे। हिंस्र पशुओं और दस्युओं से जूझने के लिए आजीविका के लिए बड़े कुटुँब की आवश्यकता पड़ती थी। उन दिनों बहुपत्नी प्रथा तथा अधिक संतान को सौभाग्य चिन्ह मानने का कारण था। आज के विकसित समाज में बहुपत्नी प्रथा अवाँछनीय हो गई है और जनसंख्या बढ़ने से संतान निग्रह की आवश्यकता अनुभव हुई। पुरानी मान्यताओं को बदलने के लिए समय ने हमें विवश कर दिया है। अब पूर्वाग्रह के लिए लड़ने वाला परम्परावादी अदूरदर्शी ही माना जाएगा।

पुरानी रस-भस्मी अच्छी मानी जाती है, पर पुराना घी कोई नहीं खाता। एक समय की उपयोगी वस्तुएँ समयानुसार निरर्थक हो जाती हैं। तब उसे सुधारने या बदलने की आवश्यकता पड़ती है। ऐसा न होने पर विश्व के हर विचारशील वर्ग द्वारा संकीर्ण, अनुदार एवं अन्यायी होने का आरोप लगता है। बात यहीं तक सीमित नहीं। रूढ़िवादिता, अंधविश्वास से क्षुब्ध हुए लोग अगले दिनों प्रतिशोध की भावना से ओत-प्रोत हो क्या कुछ न कर गुजरेंगे, उसका अनुमान लगा सकना किसी भी दूरदर्शी के लिए कठिन नहीं होना चाहिए। अच्छा हो हम समय रहते चेतें, अपनी भूल सुधारें। मान्यताओं और परंपराओं में हेर-फेर होते रहने का क्रम अनादि काल से चला आ रहा है। उसके लिए हमें अपना मस्तिष्क खुला रखना चाहिए, इसी में हमारा कल्याण है।


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