पुस्तकों की प्रयोगशाला में महापुरुष

October 1996

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दक्षिण अफ्रीका की बात है, उस दिन गाँधीजी ने ग्लैडस्टन की जीवनी पढ़ी थी। एक प्रसंग था जिसने गाँधीजी के जीवन की एक धारा को उलट कर रख दिया। “एक दिन एक आम सभा हो रही थी। उसमें ग्लैडस्टन के साथ उनकी धर्मपत्नी भी थीं। ग्लैडस्टन को चाय पीने की आदत थी। चाय बनो का कार्य उनकी पत्नी ही करती थीं। आम सभा के बीच ग्लैडस्टन ने चाय पीने की इच्छा की तो श्रीमती ग्लैडस्टन ने बिना किसी झिझक, लज्जा या संकोच के अपने हाथ से वहीं चाय बनाई। पति को पिलाई और कप-प्लेट हाथ से साफ किये। ऐसा उन्होंने कई स्थानों में किया।”

इस घटना को पढ़कर गाँधीजी के जीवन में जो प्रतिक्रिया हुई, उसका उल्लेख उन्होंने स्वयं इन शब्दों में किया है-”पत्नी के प्रति वफादारी मेरे सत्य के व्रत का अंग थी, पर अपनी स्त्री के साथ भी ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए, यह बात दक्षिण अफ्रीका में ही स्पष्ट रूप से समझ में आई।”

लोग पुस्तकें पढ़ते हैं पर जो पढ़ा गया है उस पर चिन्तन, मनन और वार्तालाप नहीं करते। उससे पढ़े हुए का प्रभाव जीवन में स्थायी नहीं हो पाता। यदि पुस्तकों के सार जीवन में उतारने की प्रक्रिया लोग सीख जाएँ, तो सामान्य-सी परिस्थितियों में हर व्यक्ति उत्कृष्टता के चरम बिन्दु तक पहुँच सकता है। पुस्तकें गौघृत और दुग्ध के समान पौष्टिक आहार हैं। जो मन, बुद्धि, आचार-विचार, विवेक को परिपुष्ट करके आत्मोत्थान का उज्ज्वल पथ प्रशस्त करती है।

गाँधीजी ने उक्त प्रसंग राजचन्द्र भाई को बड़े कौतूहल के साथ सुनाया। इस पर राजचन्द्र भाई ने कहा-”बापू इसमें आश्चर्य की क्या बात है? अब आप बताइये अपनी बहिनें, बेटियाँ और छोटे-छोटे बच्चे क्या ऐसे कार्य कहीं भी नहीं कर सकते? बड़ों की आज्ञापालन में तो उन्हें प्रसन्नता ही होती है, पत्नी के इस व्यवहार को असामान्य मानने का एक ही कारण हो सकता है, पत्नी से कोई आकाँक्षा। साधारण लोग अपनी धर्म-पत्नी को कामवासना की दृष्टि से देखते हैं। उससे नारी के प्रति हीनता का भाव आता है। यही भाव हम उसके साथ प्रत्येक कार्य में आरोपित करते हैं। पत्नी उसे ही बुरा मानती है, यदि उसे हीनता या कामुकता की दृष्टि से न देखा जाय तो सचमुच प्रत्येक स्त्री ग्लैडस्टन की धर्मपत्नी की तरह ही बहिन-बेटियों की सी सेवा बिना लज्जा या संकोच के कर सकती है।”

गाँधीजी को यह बात बड़ी महत्वपूर्ण लगी। ग्लैडस्टन के जीवन चरित्र को पढ़ने से जिस मर्म को वह नहीं भेद पाये थे, वह वार्तालाप से खुल गया। तब तक कस्तूरबा और उनमें प्रायः झगड़ा हुआ करता था। उस दिन से बापू ने ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया और इतिहास जानता है कि इसके बाद कस्तूरबा गाँधी ने गाँधीजी के सच्चे मित्र की भाँति खुलकर सहयोग प्रदान किया। उन्होंने उनके साथ जेल जाने तक में भी झिझक या संकोच नहीं किया। स्वाध्याय शीलता और पढ़े हुए को जीवन में पचाने के अभ्यास ने गाँधीजी को महान बना दिया। रस्किन की लिखी पुस्तक ‘एण्ड दि लास्ट’ पुस्तक तो गाँधीजी के सारे जीवन की मार्गदर्शिका रही।

दस वर्ष की आयु में स्कूल जाना छुड़ा दिया गया क्योंकि पिता गरीब था। घर का काम-काज करने के लिए उसकी आवश्यकता आ गई। वह अपने ही शहर सन जान (अर्जेण्टाइना) में दुकानदारी करने लगा। छह वर्ष दुकानदारी में ही बीते।

इन वर्षों में वह पढ़ने के लिए समय अवश्य निकाला करता था। समय ही क्यों वह प्रत्येक पढ़े हुए पर विचार किया करता और उन्नति के अनेक मनसूबे बनाया करता। इस बालक की जीवनी से पता चलता है कि उसकी क्रियाशीलता बड़ी विलक्षण थी। पुस्तकें पढ़ने का उस पर तुरंत प्रभाव होता है और वह प्रभाव उसके जीवन में कोई न कोई परिवर्तन ही लाने वाला होता। व्यापार में ईमानदारी, समाज सेवा और राजनीतिक धड़ेबाजी से संघर्ष करने की हिम्मत भी उसे ऐसे ही मिली, पर मुसीबत यह थी वह पढ़ा-लिख नहीं था।

एक दिन वह फ्रैंकलिन की जीवनी पढ़ रहा था। फ्रैंकलिन को भी दस वर्ष की आयु में पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी, पर उसने अपने अध्यवसाय से स्वतः ही दुनिया की पाँच भाषाएँ सीखीं और एक साथ वैज्ञानिक, दार्शनिक एवं राजनीतिक के रूप में विश्वविख्यात हुआ। यह पढ़कर उस युवक ने विचार किया क्या वह दूसरा फ्रैंकलिन नहीं बन सकता? बन सकता है? उसके मन में कहा- अध्यवसाय से क्या संभव नहीं। वह उस दिन से पढ़ने लगा। अँग्रेजी, चिली, फ्रेंच कई भाषाएँ सीखीं और राजनिति में भाग लेने लगा। इस पर उसे देश निकाला दे दिया गया। वह काफी दिन तक चिली में रहकर देश में राजनैतिक स्वार्थबाजी के विरुद्ध संघर्ष करता रहा। उसने पत्रकार के रूप में अर्जेण्टाइना निवासियों को भ्रष्टाचार के विरुद्ध संगठित कर दिया और एक दिन विद्रोह की ज्वाला फूट ही गई। युवक स्वदेश लौटा और एक दिन वह अर्जेण्टाइना का उपराष्ट्रपति बना। इस महत्वपूर्ण पद पर पहुँचकर भी उसने जनसेवा का मार्ग न छोड़ा, उसने अर्जेण्टाइना को साक्षर बनाने का अभियान चलाया और उसे इतना तीव्र किया कि आज अर्जेण्टाइना दुनिया के देशों में सबसे शिक्षित देश में गिना जाता है। अमेरिका तक ने उसकी सेवाएँ उपलब्ध कीं। एक पुस्तक की प्रेरणा ने इस युवक को ‘डोमिंगो फास्टिनो सारमिण्टो’ के नाम से विश्वविख्यात कर दिया।

वर्मा की क्लैग घाटी पर आजाद हिन्द सेना का मुकाबला अँग्रेज सेना की टुकड़ी से हो गया। आजाद हिन्द सेना के कुल तीन जवान और अँग्रेजों की 169 सैनिकों की टुकड़ी। इस भीषण परिस्थिति में नेताजी बैठे स्वामी विवेकानंद की पुस्तक पढ़ रहे थे- पुस्तक के इस अंश ने ‘जब संकटों के बादल सिर पर मँडरा रहे हों, तब भी मनुष्य को धैर्य नहीं छोड़ना चाहिए। धैर्यवान व्यक्ति भीषण परिस्थितियों में भी विजयी होते हैं।” नेताजी को भारी प्रकाश दिया।

घाटी से खबर आयी क्या तीनों सैनिक पीछे हटा लिए जाएँ। नेताजी के हृदय में छुपे विवेकानंद के विचार फूट पड़े, बोले- नहीं जब तक एक भी सैनिक जीवित रहता है, चौकी खाली न की जाये। तीन सैनिक रात भर गोली चलाते रहे। प्रातःकाल तो वे मुठभेड़ की लड़ाई के लिए चढ़ दौड़े। जब उस चौकी पर पहुँचे तो देखा अँग्रेजों के कुछ सिपाही तो मरे पड़े हैं, शेष अपना सामान छोड़कर भाग गये हैं।

स्वामी विवेकानन्द के साहित्य ने उनमें अगाध निर्भयता, धैर्य और साहस भर दिया। वे जो कुछ भी पढ़े उसके एक-एक वाक्य को अपने जीवन का एक-एक चरण बना लिया। उसी का प्रतिफल था कि वे जापान, सिंगापुर और जर्मनी जहाँ भी गये उसी प्रकार स्वागत हुआ जिस प्रकार स्वामी विवेकानंद का अमेरिका और इंग्लैण्ड में। यह श्रेय स्वाध्याय की ही है, जो सुभाष की जीवनशिला पर क्रियाशीलता बनाकर खुद चुका था।

निराशा और घुटन की जिन्दगी से ऊबकर बालक अपने एक मित्र के पास गया। तब वह एक वकील के पास क्लर्की करता था। मित्र से उसने कुछ धन की सहायता के लिए कहा तो मित्र ने इनकार कर दिया। निराशा और एक कदम आगे बढ़ गई।

इस निराशा ने उसे एकाँत जीवन में ढकेल दिया। सौभाग्य से इस समय का सहचर बना सद्साहित्य। स्वाध्याय, चिंतन, मनन से मस्तिष्क में विचारों का समुद्र लहराने लगा।

फिर उसने समुद्र का मंथन किया। इच्छा तो थी एक वकील बनने की पर ज्ञान-संचय उसे अपनी ही ओर खींच ले गया। बालक लेखक बन गये। पढ़े हुए विचारों को परिमार्जित रूप देने वाला यही बालक प्रसिद्ध उपन्यासकार बना। उसे 19वीं शताब्दी का उपन्यास स्रष्टा कहा जाता है। अनेक प्रकार के ज्ञान के समन्वय से उसने विश्व को एक नई समन्वयपूर्ण विचारधारा दी।

सात वर्ष के एक बालक में पढ़ने की अभिरुचि जाग गई। जब उसके दोस्त मटरगस्ती कर रहे होते तब वह कोई कहानी-कविता, नाटक और धार्मिक पुस्तकें पढ़ रहा होता। हर्बर्ट स्पेन्सर, स्टुअर्ट मिल और टिण्डल की पुस्तकों न उसे बहुत प्रभावित किया, फिर उसने बेकार किस्म के उपन्यास, कहानियाँ पढ़ना छोड़कर सृजन साहित्य में रुचि ली। वह एक स्टेट एजेंट के यहाँ नौकरी कर रहा था, तब भी अच्छी पुस्तकें पढ़ने का चाव उसने न छोड़ा, इससे उसके जीवन में बुराइयों का प्रवेश नहीं हो सका। पश्चिम में जन्म लेकर माँसाहार का कट्टर विरोधी यही बालक एक दिन जार्ज बर्नार्ड शाँ के नाम से विख्यात हुआ। उसने जब लेखनी उठाई तो दुनिया के सर्वश्रेष्ठ नाटककारों की श्रेणी में जा बिराजा।

एक फटी-सी पुस्तक मेरे हाथ लगी। आरंभ के कुछ पृष्ठ फटे थे। पर प्रत्येक पुस्तक से कोई न कोई अच्छी बात सीखने का मुझे व्यसन हो गया था। इस पुस्तक को पढ़ने से मुझे कुछ बहुत ही मार्मिक पंक्तियाँ हाथ लगीं, उन्हें मैंने अपनी डायरी में नोट कर लिया। यह पंक्तियाँ एक कहानी की थीं और इस तरह थीं- “मैं किसान हूँ, मुझे किसान होकर जीने दो और वैसे ही मरने भी दो। मेरा पिता किसान था अतः उसके पुत्र को भी वैसा ही होने दो।” मुझे दस वर्ष बाद पता चला कि यह शब्द जार्ज ए॰ ग्रीन के थे।

इन प्रत्येक पुस्तक से मैंने अनीति के विरुद्ध संघर्ष, मानव जाति से प्रेम के पाठ पढ़े और सीखे। यों कहूँ कि पुस्तकों का सारांश ही उतरकर मेरे जीवन में समा गया, जो कुछ भी सफलता दिखाई दे रही है वह उनका ही आशीर्वाद है।

आप समझ गये होंगे यह शब्द मैक्सिम गोर्की के हैं। मानवता की सेवा के लिए उन्हें बहुत समय तक याद किया जाता रहेगा।

संसार की अधिकांश प्रतिभाएँ पुस्तकों से निकली हैं। पढ़ते हम लोग भी हैं, पर पढ़कर अपने जीवन को महान बनाने का जो अवसर जवाहरलाल नेहरू, मार्क्स स्टालिन, माइकल फैराडे, डार्विन, लूथर बरबेंक, गैलियस आदि ने प्राप्त किया उस रहस्य को हम कहाँ जान पाये? हम भी इनकी तरह पढ़े हुए आदर्शों को अपने जीवन में उतार सके होते तो हमारी श्रेणी भी गाँधी, गोर्की जैसे महान् प्रसूत पुत्रों में रही होती।


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