प्रकृति की पाठशाला में ब्रह्म-विद्या का पाठ

October 1996

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

ज्ञान प्राप्ति के लिए चिरकाल तक तप-अनुष्ठान करने के बाद भी जब दत्तात्रेय को अपनी उपलब्धियों से संतोष न हुआ तो वे ब्रह्मा के पास पहुँचे। विधिवत अर्चन-वंदन करने के बाद दत्तात्रेय ने कहा- “भगवन् ! मैं उपयुक्त गुरु की खोज करने के लिए अब तक कई स्थानों पर भटकता रहा, अनेक गुरुओं, संत-महात्माओं के पास पहुँचा, परन्तु मुझे कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि जिसकी मुझे आवश्यकता थी वह मुझे प्राप्त हो गया है। कृपा कर ज्ञान प्राप्ति का मार्ग बताइये।”

जिससे ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है वह सद्गुरु तो प्रत्येक व्यक्ति के अंतःकरण में विद्यमान है, ब्रह्मा ने कहा- “वत्स आवश्यकता केवल उसी गुरु को खोजने की है- जिस व्यक्ति का अंतःकरण कषाय-कल्मषों से युक्त हो गया है, तपश्चर्या और साधना द्वारा जिससे अपने मल विकारों को नष्ट कर लिया है तथा अंतःकरण को पवित्र, निष्कलुष बना लिया है, वह व्यक्ति अपने चारों आर विस्तीर्ण प्रकृति को देखकर ही धर्म और अध्यात्म का तत्व ज्ञान सीख सकता है।”

प्रजापति ब्रह्मा से यह सूत्र प्राप्त कर दत्तात्रेय पृथ्वी पर लौट आये और उन्होंने प्रकृति में घटने वाली छोटी से छोटी घटनाओं को देखकर उनका निरीक्षण कर ब्रह्मविद्या का अध्ययन किया और जीवनमुक्त हो गये। प्रकृति की खुली हुई पुस्तक पढ़कर अपने आस-पास घटने वाली सामान्य घटनाओं का निरीक्षण करके दत्तात्रेय ने जब अध्यात्म ज्ञान की सिद्धि कर ली, तो वे उन्मुक्त विचरण करते हुए जन-जन को आध्यात्मिकता का संदेश सुनाने लगे। राजा से रंक तक और भोगी से रोगी तक हर कोई उनकी अमृतवाणी श्रवण कर आत्मिक आह्लाद का अनुभव करने लगता।

एक बार राजा यदु ने दत्तात्रेय से पूछा- महात्मन् ! संसार के अधिकांश लोग काम और लोभ के वशवर्ती होकर कष्ट पा रहे हैं। आपने यह जीवनमुक्त अवस्था कैसे प्राप्त की? कृपा कर आप मुझे यह बताइये कि आपको आत्मा में ही परमानंद का अनुभव कैसे होता है तथा आपने यह अपने किस गुरु के चरणों में बैठकर प्राप्त की है।

ब्रह्मवेत्ता दत्तात्रेय जी ने उत्तर दिया- “मैंने अपने अंतःकरण से अनेक गुरुओं द्वारा मूक उपदेश प्राप्त किया है।”

राजा यदु की जिज्ञासा और बढ़ी तथा उन्होंने पूछ ही लिया- “अनेक गुरु? किस प्रकार? क्या नाम हैं उन गुरुओं के?”

एक साथ किये गये इन अनेक प्रश्नों का उत्तर देते हुए दत्तात्रेय ने कहा- “राजन ! ज्ञान प्राप्ति के लिए अकेले गुरु से ही काम नहीं चलता। उसके लिए अंतःकरण में स्थित सद्गुरु की शरण भी जाना पड़ता है, जो कौन गुरु है और क्या शिक्षा दे रहा है? इसका विवेचन करता व समझता है। इस सद्गुरु ने मुझे 24 गुरुओं से शिक्षा ग्रहण करायी। उन गुरुओं में पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतंग, भौंरा, हाथी, मधुमक्खी, हिरण, मछली, पिंगला वेश्या, कुरर पक्षी, बालक, कन्या, बाण बनाने वाला, कुँआरी कन्या, सर्प, मकड़ी और भृंगी कीट हैं।”

“ब्रह्मन् ! यह सब तो जड़ अथवा निर्बुद्धि हैं, इन्होंने आपको क्या उपदेश दिया?” राज यदु ने यह पूछा तो दत्तात्रेय ने बताया जड़ और निर्बुद्धि होते हुए भी प्रकृति तो उस लीलामय की चेतन लीला है। यदि हम अपने अंतःकरण को निर्मल और परिष्कृत बना सकें, तो इस प्रकृति से ही बहुत कुछ सीख सकते हैं। जैसे पृथ्वी से मैंने धैर्य और क्षमा की शिक्षा ली। लोग पृथ्वी पर कितना आघात और उत्पात करते रहते हैं, पर वह न तो किसी से बदला लेती है तथा न रोती-चिल्लाती है। प्राणी जाने-अनजान एक-दूसरे का अपकार कर ही डालते हैं। धीर पुरुष को चाहिए दूसरे की विवशता को समझ कर वह न तो अपना धीरज खोये और न ही किसी पर क्रोध करे।”

“वायु से मैंने यह शिक्षा ली है कि जैसे अनेक स्थानों में जाने पर भी वह कहीं आसक्त नहीं होता और किसी का भी गुण-दोष नहीं अपनाता, वैसे ही साधक भी किसी का न तो दोष ग्रहण करे और न किसी से आसक्ति तथा द्वेष ही करे।”

जितने भी चल-अचल पदार्थ हैं उनका आश्रय स्थान एक ही है आकाश। आकाश को देखकर मैंने यह जाना कि इस विश्व-ब्रह्माण्ड में जितने भी चर-अचर जीव हैं और स्थिर-अस्थिर पदार्थ हैं, उनमें विद्यमान आत्मा ब्रह्मस्वरूप से सर्वत्र व्याप्त है।

जल स्वभाव से ही स्वच्छ, मधुर और पवित्र है। जल को देखकर ही मैंने यह प्रेरणा प्राप्त की कि साधक को भी अपना स्वभाव स्वच्छ, शुद्ध, मधुर और पवित्र रखना चाहिए। अग्नि तेजस्वी और ज्योतिर्मयी होती है और उसके तेज को कोई दबा नहीं सकता। उसके पास संग्रह, परिग्रह के लिए कोई पात्र नहीं है और वह सब कुछ भस्म कर डालती है। भले-बुरे सभी पदार्थों को भस्म कर डालने पर भी वह किसी वस्तु के दोषों से लिप्त नहीं होती, इसी तरह साधक को भी तेजस्वी, इन्द्रियों से अपराजित और विषयों से निर्लिप्त रहना चाहिए।

चन्द्रमा की गति तो नहीं जानी जा सकती परन्तु काल के प्रभाव से उसकी गति घटती-बढ़ती रहती है। वस्तुतः वह न तो घटता है और न बढ़ता है। वैसे ही जन्म से लेकर मृत्यु तक और मृत्यु से लेकर पुनः जन्म तक जितनी भी अवस्थाएँ बदलती हैं, वे सब शरीर की ही अवस्थाएँ हैं। आत्मा का उनसे कोई सम्बन्ध नहीं है। सूर्य अपनी किरणों में से पृथ्वी का जल खींचता है और समय पर उसे बरसाता है, जैसे ही योगी पुरुष भी समय और विषयों को ग्रहण और त्याग करते हैं, किन्तु सूर्य की भाँति उसमें आसक्त नहीं होते।

अजगर से मैंने यह सीखा कि साधक को हर स्थिति में संतुष्ट रहना चाहिए। समुद्र वर्षा ऋतु में नदियों की बाढ़ के कारण न तो बढ़ता है और न ही ग्रीष्म ऋतु में जब नदियाँ सूखने लगती हैं, तो घटता है। उस समुद्र से मैंने यह प्रेरणा ग्रहण की कि साधक को साँसारिक पदार्थों की प्राप्ति पर न तो प्रफुल्लित होना चाहिए तथा न ही उनके नष्ट हो जाने से खिन्न होना चाहिए।

पतंगा दीपक के रूप पर मोहित होकर उसकी शिखा में कूदता है और जलकर मर जाता है। वैसे ही अपने इन्द्रियों को वश में न रखने वाला पुरुष नाशवान पदार्थों में फँसा रहता है, उसकी सारी चित्तवृत्तियाँ उनके उपयोग के लिए ही लालायित रहती हैं। वह अपनी विवेक-बुद्धि खोकर पतंगे के समान ही नष्ट हो जाता है।

भौंरा छोटे-बड़े अनेक पुष्पों से उनका सार मात्र ग्रहण करे। हाथी से शिक्षा मिलती है कि साधक काठ की बनी पुतले से भी मोह न करे। हाथी काठ की हथिनी को देखकर ही शिकारियों द्वारा खोदे गये गढ्ढे में जा गिरता है तथा उस कारण मृत्यु को प्राप्त होता है। इसी प्रकार काष्ठ मूर्ति में भी साधक की आसक्ति उसके पतन का कारण बन जाती है। आसक्ति का आकर्षण बड़ा ही मोहक जान पड़ता है, थोड़ी-सी भी फिसलन सत्यानाश का परिणाम उपस्थित करना है। इसलिए पतन से बचने की मार्ग की उचित सीख हाथी से मिली।

मधु निकालने वाली मक्खी से राजन मैंने जान पाया कि जिस प्रकार वह प्रयत्नपूर्वक रस का संचय करती है उसी प्रकार लोभी व्यक्ति भी धन का संचय करते हैं। लोभी मधुमक्खी का संचित रस अन्य लोग ही ले उड़ते हैं। उसी तरह लोभी मनुष्य का संचित धन भी कोई दूसरा ही भोगता है। हरिण वादक यंत्रों के कारण श्रवणेंद्रियों के विषयों में आसक्त होकर अपना प्राण गँवाता है, उसी प्रकार साधक को श्रवणेंद्रियों के विषय की आसक्ति पतन की ओर धकेलती है। सुनकर तथ्य पर सहज विश्वास कर लेना दुःखद परिणाम प्रस्तुत कर सकता है। मछली काँटे में फँसे हुए माँस के टुकड़े में अपने प्राण गँवा देती है वैसे ही स्वाद का लोभी मनुष्य भी अपनी जिह्वा के आगोश में सर्वस्व भूल जाता है और मौत के मुँह में जा समाता है।

प्राचीनकाल में विदेह नगर में पिंगला नाम की अति सुन्दरी वेश्या रहती थी। उसके मन में धन की बहुत कामना थी, इसलिए सह सदा ही यह सोचा करती थी कि कोई धनी पुरुष आकर उसे अपना धन दे जाएगा। एक दिन वह आधी रात तक इसी तरह प्रतीक्षा में खड़ी रही, अत्यधिक देर हो जाने से उसका मुँह सूख गया और चित्त व्याकुल हो गया, पर उस रात को उसे निराश ही रहना पड़ा। इस निराशा के कारण उसे वैराग्य हो गया। इससे मैंने यह सीखा कि दूसरों से आशा करना, उन पर निर्भर रहना ही सबसे बड़ा दुःख है। दूसरों से आशा न कर अपने प्रयत्नों पर ही निर्भर रहना सबसे बड़ा सुख है। उस रात जब पिंगला ने दूसरों से आशा करना छोड़ दिया तो वह सुख की नींद सो सकी।

एक बार किसी कुमारी कन्या के घर, उसे वरण करने के लिए कई वर और उसके परिजन पहुँचे। संयोग से उस दिन घर के लोग कहीं बाहर गये हुए थे। इसलिए कन्या ने स्वयं ही उनका आतिथ्य सत्कार किया और उन्हें भोजन कराने के लिए घर के भीतर एकाँत में धान कूटने लगी। धान कूटते समय उसकी कलाई की चूड़ियाँ बज रही थीं। उससे उसे बड़ी लज्जा हुई। उसने एक-एक करके सारी चूड़ियाँ उतार दीं, केवल एक ही रखी। मैंने उससे यह शिक्षा ग्रहण की कि साधक के चित्त में जब बहुत-सी वृत्तियाँ हों तो वहाँ भी इसी प्रकार का कोलाहल उत्पन्न होता रहता है। चित्तवृत्तियों के निरोध को ही योग कहा गया है। योग का आरंभ यहीं से होता है। लक्ष्य प्राप्ति हेतु साधक को संसार की स्वप्नमयी दुनिया में अपनी इच्छाओं को न रमने दे वरन् समस्त आशाओं को सीमित कर अपने चित्त में एकनिष्ठ और पवित्र बनाना आवश्यक है। इसलिए साधक को अपने चित्त में एक ही ध्येय का अवलम्बन करना चाहिए।

एक बाण बनाने वाला अपने कार्य में इतना तन्मय हो गया था कि उसके पास से ही राजा की सवारी दल-बल के साथ निकल गयी, पर उसे इस बात का पता ही नहीं चला, क्योंकि वह अपने काम में पूरी तरह तन्मय था। उससे मैंने यह शिक्षा ली कि साधक भी अपने ज्ञातव्य के चिंतन में तन्मय रहे तो उसे संसार में होने वाली उथल-पुथल अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। तन्मयता ही वह कारण है जो मनुष्य के अन्दर सोयी पड़ी सुषुप्त शक्ति के समुचित विकास में सहयोग करती है। तन्मयता को आधार मानकर ही ज्ञान-विज्ञान, दर्शन, साहित्य, कला आदि अनेक क्षेत्रों में नवीन खोज, आविष्कार एवं शोध हुआ और समाज को लाभ मिला। अतः साधक को तन्मयतापूर्वक अपने कार्य को अंजाम देना चाहिए।

कोई पक्षी अपनी चोंच में माँस का टुकड़ा लिए बैठा था। उसे छीनने के लिए दूसरे पक्षियों ने उसे अपनी चोंचों से मारना शुरू कर दिया। जब उस पक्षी ने चोंच में दबाये हुए टुकड़े को फेंक दिया तो वह कष्ट से मुक्त हो गया। अनावश्यक संग्रह ही दूसरों के मन में ईर्ष्या को जन्म देता है और दूसरों को ईर्ष्या के कारण कष्ट पहुँचाता है। यदि संग्रह रूपी लिप्सा ने अभीष्ट तृष्णा का रूप धारण कर लिया तो चिंतन और श्रम पूरी तरह उसी दिशा में लगा रहेगा। फिर साधक के लिए उच्चस्तरीय अध्यात्म प्रयोजन मात्र एक कल्पना की वस्तु बनकर रह जाएगा। फलतः वे सारे कार्य अपूर्ण ही पड़े रहेंगे, जिनके लिए यह बहुमूल्य जीवन का अनुपम उपहार मिला है। दूरदर्शिता इसी में है कि संग्रह उतना ही किया जाये जिससे सामान्य निर्वाह की गाड़ी चलती रहे और साधक को अभीष्ट प्रयोजन में कोई विघ्न-बाधा न पड़ने पावे।

इसी प्रकार साँप से मैंने यह शिक्षा ली कि संन्यासी को मठ या मण्डली बनाने के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। अध्यात्म का पथ एकाकी का पथ होता है। जीवन की यात्रा भी एक एकाकी रूप से जन्म से प्रारम्भ होती है। निर्भय, निर्विघ्न हो अपने पथ पर दृढ़ हो साहस मनोबल लिए बढ़ते रहना चाहिए।

मकड़ी बिना किसी सहायक के अपने ही मुँह के तारों द्वारा जाला बना लेती है, इसी में विहार करती है और फिर उसे ही निगल जाती है। मकड़ी के इस कार्य से मैंने सर्वशक्तिमान भगवान की विश्व रचना के कार्य को समझने का प्रयत्न किया है। मकड़ी के जाले की तरह पंचतत्वों के प्रपंच में फँसने की अपेक्षा आत्मा को जानने वाला व्यक्ति ही पराशक्तिओं, महा समर्थ और अतीन्द्रिय क्षमताएँ एकत्रित करता है। यह संसार चेतना का ही खेल है, यहाँ मकड़ी के समान क्रियाशील, साहसी, कठिनाइयों से हिम्मत न हारने वाले पर देर तक विचार-विमर्श करके जीवन की आवश्यक नीतियाँ निर्धारित वाले व्यक्ति ही सफल होते हैं। उस तरह सृष्टिकर्ता बिना किसी सहायक के अपनी ही माया से इस ब्रह्माण्ड को रचता है, उसमें जीवरूप से विहार करता है और अपने आप को ही लीन करके अंत में अकेला ही शेष रह जाता है।

भृंगी किसी कीट को पकड़ कर अपने रहने के स्थान में बंद कर देता है और कीड़ा भय से उसी का चिंतन करते-करते तद्रूप हो जाता है, उसी प्रकार साधक को भी केवल परमात्मा का ही चिंतन करके परमात्मा रूप हो जाना चाहिए। विसके और वैराग्य की शिक्षा देने के कारण यह मेरा शरीर भी एक गुरु है। यद्यपि यह शरीर अनित्य है, तो भी इससे परम पुरुषार्थ का लाभ हो सकता है। मैंने इस प्रकार प्रकृति के चौबीस गुरुओं से शिक्षा प्राप्त की तथा जीवनमुक्त होने का मार्ग पाया।

भागवत महापुराण के एकादश स्कन्ध में दत्तात्रेय के चौबीस गुरुओं का सविस्तार वर्णन आया है और इस आख्यान का प्रतिपाद्य मर्म रहस्य यही है कि व्यक्ति यदि सीखना चाहे तो उसके लिए आवश्यकता केवल तीव्र लगन और आकुल जिज्ञासा भर की है। ये सभी साधन-सुविधाएँ उपयोगी हैं और आवश्यक भी पर ज्ञान प्राप्ति में आधारभूत दृष्टि से यह आवश्यक है कि व्यक्ति में ज्ञान प्राप्त करने के लिए कितनी उत्कण्ठा है, कितनी लगन है और कितनी साध है।

भागवत पुराण के एकादश स्कन्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- ज्ञान प्राप्त करने के लिए अकेले गुरु से ही काम नहीं चलता; बल्कि उसके लिए स्वयं भी सोचने, समझने और चतुर्दिक् होती रहने वाली छोटी-छोटी घटनाओं से भी बहुत कुछ समझना आवश्यक है। साधक यदि अपनी दृष्टि को सूक्ष्म और ग्राह्य बनाये, तो उसके चारों ओर ब्रह्मविद्या का महाविद्यालय खुला पड़ा है, प्रकृति ने अपनी प्रिय संतान के लिए अपने ही आँगन में ब्रह्मविद्या का भाग्योदय मंदि खोल रखा है। कोई उसमें नम्र याजक पूजक की तरह जाये तो सही।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118