महर्षि बोधायन अपनी शिष्य मंडली को लेकर तीर्थाटन के रूप में धर्म-प्रचार के लिए निकले। रास्ते में एक सरोवर के तट पर वट वृक्ष के नीचे विश्राम किया। प्रातः अन्य शिष्य उठ बैठे; किन्तु गार्ग्य ज्यों के त्यों पड़े रहे। ऋषि ने जगाया, तो शिष्य ने धीमे स्वर से कहा-”मेरे पैरों में एक भयंकर सर्प लिपटा पड़ा है, सो गया है, थोड़ी देर में वह जागेगा और चला जाएगा, इसलिए अभी मुझे यथावत् ही पड़े रहना चाहिए।” थोड़ी देर में सर्प जगा और झाड़ी में खिसक गया। गार्ग्य उठे और गुरु-वन्दन करने गए। अन्य शिष्यों ने इसे साहस कहा और प्रशंसा की। बोधायन ने कहा-”गार्ग्य कानिर्णय धैर्य और विवेकयुक्त था। इसलिए उसे साहस की अपेक्षा शील कहना उत्तम है।” इस शील का अभ्यास ही जीवन को सही रूप में, आदर्शयुक्त ढंग से जीने के लिए जरूरी है। शिक्षा इसके बिना अपूर्ण है।