अमृतपान की अभिलाषा में उत्तुंग मुनि कठोर तप करने लगे। समयानुसार इन्द्र प्रकट हुए और वर माँगने के लिए कहने लगे । उत्तुंग ने अपना मनोरथ कह सुनाया।
इन्द्र यह कहकर अंतर्ध्यान हो गये कि-”जल्द ही आपका मनोरथ पूर्ण होगा। जो कमी है, उसे तब तक और पूरा कर लें।”
बहुत दिन बीत गए, उमंग तीर्थ प्रव्रज्या पर निकले। मरुभूमि का लम्बा क्षेत्र मार्ग में आ गया। पानी का कोई प्रबन्ध ही नहीं था। गला सूखने लगा। उद्विग्न होकर उत्तुंग एक पेड़ की छाया में लेट गये।
इतने में एक चाण्डाल सामने से आया। साथ में जल-पात्र था, बोला-”लीजिए, अपनी प्यास बुझा लीजिए।”
उत्तुंग चाण्डाल का जल पीने को सहमत न हुए। अनुरोध स्वीकृत होते न देखकर, वह वापस चला गया। किसी प्रकार उत्तुंग उस क्षेत्र से प्राण बचाकर निकले और त्रिवेणी तट पर पहुँच कर प्यास बुझा सके।
रात्रि को उन्होंने स्वप्न में इन्द्र को देखा। वे बोले-” उस दिन मैं चाण्डाल वेश में अमृत लाया था, आपने वापस कर दिया। अब यदि उसे पुनः प्राप्त करने की इच्छा हो, जो मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद बुद्धि दूर करने के लिए दूसरा तप करें।”