अपनों से अपनी बात -

October 1996

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ईश्वर तो रोम-रोम में समाया है। किसी के अहित की कामना करना ही अपने लिए संकट बुलाना है। दधीचि पुत्र पिप्पलाद ने जब माता से अपने पिता की देवताओं द्वारा अस्थियाँ माँगे जाने और उनसे बने वज्र से अपने प्राण बचाने का विवरण सुना, तो उनके मन में देवताओं के प्रति बड़ी घृणा उपजी । अपना स्वार्थ साधने के लिए दूसरों का प्राण हरण करने का छल करने वाले यह लोग कितने नीच ; इनसे पिता को सताने का बदला लूँगा। पिप्पलाद तप करने लगे। लम्बी अवधि तक कठोर तपश्चर्या से प्रसन्न होकर भगवान् शिव प्रकट हुए और बोले- वर माँग। पिप्पलाद ने नमन किया और बोले-देव प्रसन्न हैं तो अपना रुद्र रूप प्रकट कीजिए और इन देवताओं को जलाकर भस्म कर दीजिए।

शिव स्तब्ध रह गये पर वचन तो पूरा करना था। देवताओं को जलाने के लिए तीसरा नेत्र खोलने का उपक्रम करने लगे; इस आरम्भ की प्रथम परिणति यह हुई कि पिप्पलाद का रोम-रोम जलने लगा। वे चिल्लाये-बोले, भगवान् यह क्या हो रहा है? देवता नहीं, उलटा मैं जला जा रहा हूँ। शिव ने कहा-देवता तुम्हारी देह में तो ही समाये हुए हैं। अवयवों की शक्ति उन्हीं की सामर्थ्य है। देव जलें और तुम अछूते बचे रहो, यह नहीं हो सकेगा। आग लगाने वाला स्वयं ही जल मरता है।

पिप्पलाद ने अपनी याचना लौटा ली। शिव ने कहा-देवताओं ने त्याग का अवसर देकर तुम्हारे पिता को कृत-कृत्य और तुम्हें गौरवान्वित किया है। मरना तो होता ही है, न तुम्हारे पिता बचते , न काल के ग्रास से वृत्तासुर बचा रहता। यश-गौरव प्राप्त करने का लाभ प्रदान करने के लिए देवताओं के प्रति कृतज्ञ होना ही उचित है। पिप्पलाद का भ्रम दूर हो गया। उनकी तपस्या आत्मकल्याण की दिशा में मुड़ गयी।

महाकाल के गतिचक्र की एक झलक-झाँकी


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