ज्योति-अवतरण की साधना और उसका विज्ञान

October 1996

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ध्यान-धारणा की साधना में अन्तिम स्थिति प्रकाश-अवतरण की मानी गई है। इस दशा में साधक का अन्तर-बाह्य ज्योतिर्वान होकर उसकी सम्पूर्ण सत्ता इससे ओत-प्रोत हो जाती है। यही ब्रह्मज्योति है। ब्रह्म-दर्शन इसे ही कहा गया है।

ज्योति-अवतरण का अभ्यास आज्ञाचक्र में त्राटक से आरंभ किया जाता है। यह त्राटक अन्तर-बाह्य का सम्मिश्रण होता है। इसके लिए गर्दन की ऊँचाई और सीध में स्वयं से लगभग ढाई फुट की दूरी पर घी का दीपक प्रज्ज्वलित करके रखा जाता है। लौ की ऊँचाई करीब आध इंच होनी चाहिए। इसके लिए मोटी बत्ती और पिघला घृत आवश्यक है। अब इसके सामने बैठकर बारी-बारी से आँखें मूँद और खेल कर इस लौ पर धारणा का अभ्यास किया जाता है। कुछ काल पश्चात् जब अभ्यास परिपक्व हो जाता है तो ज्योति अन्तर में स्थिर और स्थायी बन जाती है। फिर दीपक के अवलम्बन की आवश्यकता नहीं रहती और नेत्र बन्द होते ही आज्ञाचक्र के स्थान पर वह अनायास प्रकट हो उठती है। इसे प्रकाश का ‘स्थिरीकरण’ कहते हैं। अगले चरण में उस प्रकाश का विस्तार करना होता है। दीर्घकाल की साधना के पश्चात् वह ज्योति विस्तृत होते-होते सम्पूर्ण जीवन सत्ता में परिव्याप्त हो जाती है। सहस्रार उस दिव्य तेज से प्रतिभासित हो उठता है। इसी स्थिति में आत्मसत्ता का ब्रह्मसत्ता से मिलन-संयोग होता है। आत्मबोध, तत्वबोध का यह त्रिविध सम्पादन साथ-साथ सम्पन्न होकर साधक को उसके अन्तिम लक्ष्य पर प्रतिष्ठित कर देता है।

अब विज्ञान की दृष्टि से सविता अवतरण की इस प्रक्रिया पर तनिक विचार करें कि वह इसे किस प्रकार से प्रतिपादित करता है। ज्ञातव्य है कि मानवी मस्तिष्क में पीनियल नामक एक महत्वपूर्ण ग्रन्थि है। इस ग्रन्थि के बारे में विज्ञान जगत में वर्षों से यह संदेह तो था कि आध्यात्मिक उन्नति की दिशा में इसका कोई महत्वपूर्ण हाथ होना चाहिए, पर सबूत के अभाव में इस संभावना को बल नहीं मिल पा रहा था। काफी समय बाद गैस्टन और मैनाकर (1968 में ) ने ‘साइन्स’ नामक पत्रिका में एक शोध निबन्ध प्रकाशित कराया, जिसमें उनने पीनियल को प्रकाश केन्द्र (फोटोरिसेप्टर) के रूप में सिद्ध किया था। अभी कुछ वर्ष पूर्व उनकी इस बात की पुष्टि हो गई कि पीनियल का प्रकाश संबंध है। विसकान्सिन विश्व-विद्यालय के वैज्ञानिक एस. एच. स्नीडर ने अपने अनुसंधान में बताया कि रोशनी का पीनियल पर सीधा असर पड़ता है और उस प्रभाव से उससे एक हारमोन निकलता है, जो सेरोटोनिन कहलाता है। उनका मानना है कि सेरोटिन का विभूतियों के विकास से निकट का रिश्ता है। वे यह भी कहते हैं कि मन्द और शीतल प्रकाश में स्राव की मात्रा अधिक होती है, जबकि तीक्ष्ण उत्तेजक रोशनी इस रस-स्राव को घटाती है। उपरोक्त दोनों विज्ञानवेत्ताओं के निष्कर्षों को यदि मिला दें, तो उसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि मानवी काया आँखों के बिना भी रोशनी को महसूस कर सकती है। अंधे व्यक्तियों पर किये गये प्रयोगों से इस बात की पुष्टि हों गई। बस, विज्ञानियों को इसी सूत्र में ज्योति-अवतरण की साधना का रहस्य छिपा प्रतीत हुआ। वास्तव में जिस प्रकार माचिस की तीली में आग छिपी होती है और जब तक उसे रगड़ा न जाय, वह अग्नि अप्रकट स्तर की बनी रहती है, ठीक उसी प्रकार मानवी मस्तिष्क में पीनियल ग्रन्थि की भूमिका प्रकाश केन्द्र के रूप में है। सामान्य स्थिति और साधारण व्यक्ति में वह केन्द्र प्रसुप्त पड़ा रहता है, इसलिए यदि कोई ऐसा व्यक्ति आँख बन्द कर उस दिव्य प्रकाश को देखना चाहे, तो इसमें वह सफल नहीं हो पाता है। इसके लिए साधनात्मक उपचारों द्वारा उस केन्द्र को सक्रिय आगे बढ़ती है वैसे-वैसे एक दिव्य जागरण आरम्भ होता है और वह ज्योति प्रकाश-बिन्दु के रूप में त्रिकुटी में प्रकट होता है। अन्तिम अवस्था में यही प्रकाश कलल विस्तृत होकर सम्पूर्ण सहस्रार को प्रकाशित कर देता है। यही व्याप्ति अथवा ब्रह्म प्रकाश है।

लोहा को लोहे से काटा जाता है। इसी प्रकार ज्योति को ज्योति से प्रज्ज्वलित करने का विधान है। प्रकाश की कमी को पूरा करने के लिए प्रकाश की कमी को पूरा करने के लिए प्रकाश तत्व की ही आवश्यकता पड़ती है। कोई अन्य तत्व इस कमी की पूर्ति नहीं कर सकता। इसीलिए सविता अवतरण की साधना में प्रकाश को माध्यम बनाया जाता है। दीपक ज्योति के स्थूल प्रकाश द्वारा पीनियल में समाहित व्याप्ति प्रकाश पर बार-बार आघात किया जाता है। इस आघात के फलस्वरूप उत्पन्न रगड़ से वहाँ एक प्रकार की स्फुरणा उत्पन्न होती है। यह स्फुरणा ही अदृश्य प्रकाश को दृश्य में परिवर्तित करना आरम्भ करती है। अपनी चरमावस्था में यह ज्योति इतनी उज्ज्वल, शीतल और स्पष्ट होती है कि आँख बन्द होते ही वह सामने साकार हो उठती है।

कहते हैं विवेकानन्द जब छोटे थे, तब रात में बिस्तर पर जाते और आँखें मूँदते ही उन्हें अनायास इस दिव्य प्रकाश के दर्शन होते थे। चूँकि उनके साथ ऐसा नित्यप्रति ही हुआ करता, इसलिए उनने यह धारणा बना ली थी कि इस प्रकार का ज्योति-दर्शन सामान्य बात है और सम्भवतः हर एक के साथ होता हो। यह तो बाद में ही ज्ञात हो सका कि यह साधारण बात नहीं है। ऐसा अनायास होना पूर्वजन्म की उच्च साधनात्मक पृष्ठभूमि को दर्शाता है, अन्यथा वर्षों के अभ्यास के बाद भी कइयों को इसमें निराशा ही हाथ लगती है।

प्रकाश अवतरण की इस साधना में विभूतियों का जागरण भी अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। साधक दिव्य दृष्टि सम्पन्न तो बनता ही है, इसके अतिरिक्त भी अन्य कितनी ही सिद्धियाँ करतलगत होती हैं। इस दिव्य दृष्टि क्षमता के बारे में आचार्यों का मत है कि ऐसा उस व्याप्ति प्रकाश के कारण ही सम्भव हो पाता है, जो मस्तिष्क से निःसृत होता है। जब किसी के जीवन के बारे में कुछ विशेष जानना होता है, तो इच्छा मात्र से यह प्रकाश-किरण सामने वाले व्यक्ति के भीतर प्रवेश करती और उसके मन में क्या कुछ पक रहा है। यह उद्घाटित करती है। इसके अतिरिक्त भावी सम्भावनाओं और भूतकालीन घटनाओं पर भी काफी प्रकाश डालती है। परोक्ष दर्शन की यह प्रक्रिया लगभग वैसी ही समझी जानी चाहिए, जैसी एक्स-किरण जिस प्रकार शरीर की भीतरी संरचना और गामा किरण इस्पात जैसी कठोर वस्तु की आन्तरिक बनावट का भेद खोल देती है, वैसे ही यह अपार्थिव प्रकाश किरण अपना कार्य पूर्ण करती और भले-बुरे व्यक्तित्व को पल में प्रकट कर देती है।

जैसा कि पहले कहा जा चुका है पीनियल ग्रन्थि प्रकाश के रस का भी उद्गम स्थल है। यह सेरोटोनिन आखिर है क्या? इस बारे में वैज्ञानिक अभी अनुमान भर लगा सके हैं । कुछ विज्ञानियों का मत है कि तनावजन्य स्थिति को दूर करने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसके आगे वे कुछ भी बता पाने में असमर्थ हैं। यदि अनुसंधान कर्ताओं के इस कथन को सत्य मान भी लिया जाय, तो भी इसे सम्पूर्ण सत्य के रूप में स्वीकारा जा सकता, कारण कि अध्यात्म की दृष्टि से जिसे इतना महत्वपूर्ण माना जा रहा है। वह अवयव इतना स्थूल कार्य करे- यह बात गले नहीं उतरती । हाँ, ऐसा हो सकता है कि क्रिया स्थूल पक्ष को शोधकर्मियों ने परख लिया हो; पर इसकी जो सूक्ष्म और अदृश्य स्तर की गतिविधियाँ हैं, उसको जाँचने में वे विफल हो गये। इसी आधार पर उनने इसके गोचर पहलू की व्याख्या-विवेचना कर दी, जबकि अगोचर आयाम अछूता पड़ा रहा। सत्य तो यह है कि पदार्थ का अदृश्य पक्ष इतना महत्वपूर्ण है कि उसकी किसी प्रकार उपेक्षा नहीं की जा सकती; पर असत्य यह भी नहीं है कि पदार्थ विज्ञान की अपनी सीमाएँ हैं और उसमें सामर्थ्य नहीं। पदार्थ के इस आयाम की भली-भाँति व्याख्या तो अध्यात्म विज्ञान ही कर सकता है, दूसरा कोई नहीं।

अध्यात्म विज्ञान में प्रत्येक पदार्थ की प्रकृति दो प्रकार की बतायी गई है। एक वह जिसे दृश्य अथवा स्थूल कहा गया है। यह पदार्थ की बाह्य संरचना और प्रकट प्रभाव से संबंधित पक्ष कहकर पुकारते हैं। यह पदार्थ का संस्कारजन्य पहलू है। भोजन करने से पेट भर जाता है। यह इसका स्थूल प्रभाव और स्वभाव हुआ; किन्तु इसका सूक्ष्म संस्कारजन्य पक्ष वह है, जो हमारे चिन्तन, चरित्र और भावनाओं को प्रभावित करता है। यह अनुभूतिजन्य है। वैज्ञानिक यंत्रों और उपकरणों से इनका निरीक्षण-परीक्षण कर पाना अभी संभव नहीं हुआ है।

सेरोटिनन की शरीर-क्रिया संबंधी भूमिका के बारे में अनुसंधान कर्ताओं ने तो अपनी सम्भावना प्रकट कर दी; पर उसकी सूक्ष्म भूमिका को उपेक्षणीय कैसे रखा जाय? संभव है साधक में ऋद्धि-सिद्धियों का द्वार खोलने में इसका उच्चस्तरीय योगदान हो। कारण कि सामान्य स्थिति और अवस्था में जो सिर्फ आवश्यक शरीर क्रिया तक सीमित होता है, उसी का साधनात्मक उपचारों के माध्यम से जब इच्छानुसार नियंत्रण होता है, तो साधक की इच्छाओं, आकाँक्षाओं , आस्थाओं और भावनाओं में उदात्तता स्फुट झलकने लगती है। यहीं पर सामान्य व्यक्तियों और एक यथार्थ साधक में अन्तर स्पष्ट होता है और यह भी प्रकट होता है कि स्थूल अवयवों की भूमिका सिर्फ शरीर-क्रिया के संचालन तक ही सीमित नहीं है, वरन् उससे भी आगे व्यक्तित्व को गढ़ने-ढालने में उनका उच्चस्तरीय योगदान होता है। इसी क्रम में ऋद्धि-सिद्धियों का मार्ग प्रशस्त करता हुआ साधक ‘साधना से सिद्धि’ के अपने अन्तिम पड़ाव पर पहुँचता है।

पेड़ों के नीचे ज्योति-अवतरण साधना का विशेष महत्व बताया गया है, कारण कि उस दौरान वृक्ष और साधक दोनों के मध्य एक विशिष्ट स्तर का तारतम्य जुड़ जाता है, जो उसकी प्रगति में सहायक सिद्ध होता है। ज्ञातव्य है कि वृक्षों में सेरोटिनिन से मिलता-जुलता एक रस-स्राव मेलाटोनिन पाया जाता है। यह हारमोन केले, पीपल और बरगद जैसे पेड़ों में सर्वाधिक परिमाण में पाया जाता है। कदाचित् इसीलिए इनका धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व इतना अधिक बताया गया है। धर्मकृत्यों में, शादी-विवाहों में केले के तने और पत्तों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता है। इसी प्रकार हिन्दू धर्म में पीपल वृक्ष को पवित्र माना गया है। गीता में कृष्ण ने पेड़ों में स्वयं को अवश्य (पीपल) बताया है॥ इन दोनों के बाद बरगद का ही स्थान है। महात्मा बुद्ध ने इसी वृक्ष के नीचे बुद्धत्व प्राप्त किया था। इससे भी इस विटप का महात्म्य सिद्ध होता है।

इस प्रकार सविता अवतरण की साधना में उपरोक्त बातों पर यदि ध्यान रखा गया, तो साधक की सफलता सुनिश्चित है। वह ब्रह्म-ज्योति दर्शन के साथ-साथ अनेक ऐसी विभूतियों का भी स्वामी बन जाता है जो साधारण अवस्था में असम्भव है।


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