विज्ञान भी कहता है-’ब्रह्म सत्यं जगन्माया’

October 1996

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विज्ञान ने अब इतनी प्रगति कर ली है कि वह भौतिकवादी मान्यताओं को पीछे छोड़कर आध्यात्मिक शक्तियों के अनुसन्धान और अनुशीलन की कक्षा में जा पहुँचा है। अल्बर्ट आइन्स्टीन का सापेक्षवाद (थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी) इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है और उससे यह ज्ञात होता है कि वैज्ञानिक भी जिस अंतिम सत्य की जानकारी के लिए बेचैन हैं उसके लिए उन्हें पदार्थ की भौतिकीय जानकारी (फिजीकल नॉलेज ऑफ एलीमेन्ट्स) से हटकर चतुष्विमतीय (फोर डाईमेंशनल) अथवा उससे भी अधिक विमतीय (मल्टी डाईमेंशनल) संसार और तथ्यों का अध्ययन करना आवश्यक होगा।

डाईमेंशन का अर्थ है- आकार। आकार में जितनी बातें सम्मिलित हों, उतने ही डाईमेंशन की वह वस्तु होगी। सरल या सीधी रेखा, जिसमें सिर्फ लम्बाई होती है। एक विमतीय (वन डाईमेंशनल) आयत (रेक्टैन्गिल) जिसमें लंबाई और चौड़ाई होती है। द्विविमतीय (टू डाईमेंशनल) और इसी प्रकार कोई ठोस वस्तु लें तो उसमें लंबाई, चौड़ाई और ऊँचाई (थ्री डाईमेंशनल) होंगे। संसार के जितने भी पदार्थ हैं, वह इन्हीं तीन प्रकार के आकारों के अंतर्गत आते हैं। हमारे पास जो भी वस्तुएँ हैं, वह इन्हीं तक सीमित हैं, इसलिए भौतिक विज्ञान जब भी किन्हीं वस्तुओं का अध्ययन करता है वह इसी सीमा की जानकारी दे पाता है।

लेकिन अल्बर्ट आइन्स्टीन ने बताया कि यह गलत है। जब तक हम एक और चौथे डाईमेंशन ‘समय’ की कल्पना नहीं करते, तब तक वस्तुओं के स्वरूप को अच्छी प्रकार समझ ही नहीं सकते। सभी पदार्थ समय की सीमा से बँधे हैं अर्थात् हर एक वस्तु का समय भी निर्धारित है, उसके बाद या तो वह अपना रूपांतर कर देता है या पदार्थ रूप नष्ट हो ऊर्जा में परिवर्तित हो जाता है। मनुष्य शरीर भी एक दिन नष्ट हो जाता है, फिर वस्तुओं के बारे में तो कहना ही क्या? मनुष्य धोखे में रहता है कि यह वस्तु मेरी है, इस पर मेरा अधिकार है, इसका मैं उपभोग करूंगा, यह मेरे काम की है, इसका उपार्जन मैंने किया है। पर इस चौथे डाईमेंशन को ध्यान में रखकर विचार करें तो पता चलेगा कि जिन वस्तुओं को हम अपना कहते हैं, वह न अपनी है न किसी दूसरे की, सब प्राकृतिक परमाणुओं से बनी आकृतियाँ मात्र हैं। उनका कोई निश्चित स्वरूप नहीं। समय की मर्यादा में बँधे परमाणु जब टूट-टूट कर अलग हो जाते हैं तो वस्तु का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। इस तरह पानी के बुलबुले के समान संसार बनता-बिगड़ता रहता है। स्थिर-तत्व तो कुछ और ही है।

आइन्स्टीन का संपूर्ण सापेक्षवाद का सिद्धान्त इसी तथ्य को समझना है। आज वैज्ञानिकों, भौतिकवादी, शिक्षितों और पाश्चात्य देशों के निवासियों तक को इस सापेक्षवाद के सिद्धान्त ने उलझन में डाल दिया है। बड़े-बड़े डिफ्रेंन्शियल कैलकुलस (एक प्रकार की गणित) और बाइनामियल जैसी थ्योरम्स को समझ लेना आसान समझा जाता है किन्तु आइन्स्टीन के सापेक्षवाद की भावानुभूति को समझना दुस्तर हो रहा है। कारण कि वह संसार, सांसारिक परिस्थितियों, प्रकृति और मानवीय चेतना का एक ऐसा अध्ययन है जो मनुष्य को संसार की यथार्थता से अवगत कराती है और उसे जीवन के प्रति एक नये प्रकार का दृष्टिकोण अपनाने की सम्मति प्रदान करती है। जिसमें प्रकृति ही प्रकृति, पदार्थ ही पदार्थ नहीं वरन् एक परम तत्व (एब्सेलूट एलेमेन्ट) भी है, जिसके जानने से ही संसार की वास्तविकता का पता लगाया जा सकता है। भारतीय अध्यात्म विज्ञान उसे ही ईश्वर, परमात्मा, परमगति और संसार की सर्वोच्च सत्ता मानता है, दोनों सिद्धान्त एक स्थान पर मिल रहे हैं। केवल नाम और अनुभूति के तरीके (वे ऑफ कान्सेप्शन) में अंतर है।

संसार में जितने भी पदार्थ हैं वह 1-समय 2-स्थान 3-गति 4-कारण-इन चार के अंतर्गत ही आते हैं। हम समय की सीमा में बँधे हैं अर्थात् हमारा एक निश्चित समय है। अधिकतम अपनी आयु भर के अन्दर की वस्तुएँ सोचते-विचारते हैं, न तो जन्म से पहले की कल्पना है और न मृत्यु के बाद की, इसलिए जो कुछ भी करते हैं उसका सीधा संबंध इस समय से ही होता है। उसके बाहर का कोई भी संसार हमारे मस्तिष्क में नहीं आता।

होना यह चाहिए कि हम परम समय को ध्यान में रखकर ही अपने क्रियाकलाप निर्धारित करें। भारतीय आचार्यों ने आचार-संहिता तैयार करते समय इस बात को ध्यान में रखा था और ऐसी व्यवस्था की थी कि मनुष्य पूजा-उपासना, संयम, सेवा-सदाचार का पालन करता हुआ अपने भौतिक कर्तव्य पूरे करे, ताकि आत्म-शक्तियों का क्षय न हो। शक्ति को विघटित कर देने से मनुष्य इस जीवन में भी दुःखी होता है और वह निम्नगामी योनियों की ओर आकर्षित हो जाता है। बढ़ी हुई शक्ति चाहे वह शारीरिक हो, मानसिक, बौद्धिक अथवा आत्मिक उससे यह जीवन तो सफल होता ही है उस परम स्थिति को प्राप्त करने में भी लाभ मिलता है। इस विज्ञता का ही परिणाम है कि भारतीय जीवनशैली आज भी अपने ही ढंग की है। उसमें पाश्चात्य ढंग के विकारों के लिए कोई स्थान नहीं।

‘समय’ की तरह ही हम ‘स्थान’ से भी बँधे हैं। अब विज्ञान और समाज शास्त्र ने इतनी उन्नति कर ली है कि सारी पृथ्वी एक परिवार की तरह हो गई है और हमारी प्रत्येक क्रिया का प्रभाव सारे विश्व में पड़ता है। अब हम संपूर्ण पृथ्वी की घटनाओं और हलचलों के बारे में विचारते हैं पर इससे पहले का मनुष्य अधिक से अधिक अपने देश की बात सोच पाता था; क्योंकि उसके लिए संसार उतने ही देश (स्थान) में बँधा था। कोई समय ऐसा भी रहा होगा, जब उसका यह विस्तार का संसार और भी छोटा रहा होगा। आज तो मनुष्य स्वार्थी नहीं रह सकता, उसे विवश होकर संसार के और लोगों के हित पर ध्यान देना अनिवार्य हो गया है। पहले उसके कर्तव्य की सीमा बहुत छोटी थी। सापेक्षवाद के चार अनुभागों में दूसरा ‘स्थान’ हमें यह बताता है कि हम जितने संसार से परिचित हैं, उतने से ही अपने कर्त्तव्य से जुड़े रहते हैं और उतने लोगों की भलाई या बुराई को ध्यान में रखकर काम करते हैं।

एक अन्य तथ्य यह है कि हम ‘गति’ के नियमों से भी बँधे हुए हैं। प्रकृति के सभी परमाणु क्रियाशील हैं। छोटे-छोटे टीले बढ़कर पहाड़ बन जाते हैं और छोटी-छोटी नालियाँ, नदियाँ, गड्ढे, तालाब बन जाते हैं और पौधे विशालकाय वृक्ष। हमारी पृथ्वी में दिन-रात और जलवायु संबंधी परिवर्तन भी गति के ही परिणामस्वरूप होते हैं। प्राकृतिक गतिशीलता से हम स्वयं भी प्रभावित होते हैं। ऐसा कोई भी पदार्थ या प्राणी इस धरती पर नहीं है जो इन परिवर्तनों से प्रभावित न होता हो। हमारे सुख-दुःख भी इनके साथ जुड़े हुए हैं, कभी-कभी परिवर्तन हमारी इच्छाओं के अनुरूप होते हैं तो हमें सुख मिलता है और कभी-कभी प्रतिकूल होने से हमें दुःख और कष्ट का अनुभव होने लगता है। तात्पर्य यह है कि गति हमारे भौतिक जीवन को ही नहीं चेतन विचार और भावनाओं को भी प्रभावित करता है।

आज हम जिस स्थिति में हैं, वह अनेक घटनाओं का क्रमबद्ध इतिहास होता है। इसे ही ‘कारण’ कहते हैं। जो आइन्स्टीन के सापेक्षवाद सिद्धान्त का चौथा तत्व है। हमारा जन्म भी स्वयं भी कारण के विकास की प्रतिक्रिया है। इसी प्रकार संसार में जो कुछ भी है, वह पूर्व से घटनाबद्ध है। कोई भी प्रभाव या परिणाम कारण के बिना संभव नहीं है।

यह चार बातें हैं जो हमारे जीवन को घेरे हुए हैं। हम समय, स्थान, गति और कारण से बँधे हुए हैं। इन चार के अतिरिक्त हम और कोई बात सोच भी नहीं सकते। सही बात तो यह है कि हमारे विचार इन चार बातों में इतने आसक्त हो गये हैं कि हम इससे आगे की कोई बात सोच ही नहीं पाते। इन चारों से जो जितनी संकीर्णता में बँधा रहता है वह उतना ही स्वार्थी, संकीर्ण और भोगवादी होता है। जो व्यक्ति केवल वर्तमान की बात सोचता है, भूत और भविष्य के निष्कर्षों का लाभ नहीं लेता, वही पाप और स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियों को स्वयं भी करता है और दूसरों को भी प्रोत्साहित करता है। इसी प्रकार जो केवल अपने शरीर या अधिक से अधिक अपने परिवार के ही हित की बात सोचता है, उसके कार्य भी संकीर्ण और दुःखद होते हैं। विकास संबंधी अवस्था को भी जो बहुत छोटी सीमा में मानते हैं और भौतिक जगत में होने वाली गतिविधियों में किसी दूरवर्ती कारण को नहीं देखते, वे गलत लक्ष्य बनाते या अधिक से अधिक अपने स्वार्थ की बात सोचते हैं। संकीर्णता की यह मनोवृत्ति ही संसार में दुःख का कारण है। इसी का नाम माया या भ्रम कहा गया है।

मैं अरु मोर तोर तै माया । जेहिवष कीन्हें जीव विश्व निकाया॥

अर्थात् मैं और मेरे, तू और तेरे की संकीर्णता ने ही मनुष्य को भौतिक बंधनों में बाँध लिया है, इसी का नाम माया है।

मानवीय चेतना और मानवीय लक्ष्य का विस्तृत अध्ययन, चिन्तन और मनन करने के बाद आइन्स्टीन को भी कहना पड़ा कि मनुष्य का इस प्रकार समय, स्थान, गति और कारण की संकीर्णता में बँधना उसकी भयंकर भूल है। उन्होंने बताया कि ये संपूर्ण चीजें है ही नहीं। संसार में न तो समय का कोई अस्तित्व है, न स्थान का, न गति का और न किसी कारण या परिणाम का। यह चारों मस्तिष्क की उपज हैं और हम जब तक इनसे प्रतिबंधित हैं, तब तक अंतिम सत्य की अनुभूति नहीं कर सकते। अंतिम सत्य वह है जो इन चारों से बँधकर नहीं इनको बाँधकर रखता है। जो स्वयं इनसे प्रभावित नहीं होता वरन् इन्हें प्रभावित करता है। उन्होंने बताया जो भी है, जैसा भी है, मस्तिष्क इन चारों से ऊपर का एक बहु-विमतीय (मल्टीडाईमेंशनल) तत्त्व है, उसे इन चारों चीजों से मुक्त कर दिया जाय तो परम स्थिति को अच्छी तरह जाना जा सकता है, वही संसार का अंतिम सत्य परमात्मा, परमपद, मोक्ष या स्वर्ग और मुक्ति की स्थिति है।

इतने बड़े दृश्य संसार को मिथ्या कह देना एक वैज्ञानिक के लिए साधारण बात नहीं थी। उन्हें सापेक्षवाद के सिद्धान्त पर नोबुल पुरस्कार प्रदान किया गया था, इसलिए जो लोग इस सिद्धान्त की गहराई को नहीं समझ सके, उनका प्रश्नों पर प्रश्न करना स्वाभाविक था। आइन्स्टीन से पूछा गया कि-”यह जो समय और पदार्थों की हमें अनुभूति होती है, दिखाई देते हैं यह सब क्या है? उनने उत्तर दिया-’माया’ अर्थात् सापेक्षता। हमने अनुभव कर लिया है कि सूर्योदय से सूर्यास्त तक का समय 24 घण्टे का होता है। समय कोई भौतिक पदार्थ नहीं है यह तो दो घटनाओं के बीच की अवधि की माप है, जो कभी शाश्वत सत्य नहीं हो सकता। क्योंकि यदि आप चंद्रमा में बैठे हों तो एक बार सूर्य के उदय होने और अस्त होने में 12 ग 7 = 84 घंटे लग जाते हैं। 84 घंटों को यदि 60 मिनट के घंटों में बाँटे तो वहाँ का दिन 100 घंटे से भी बड़ा होगा, इसलिए समय कोई स्थिर या शाश्वत वस्तु नहीं है। सृष्टि जहाँ से आरंभ हुई है, वहाँ से लेकर सृष्टि जहाँ समाप्त होगी, वहाँ तक को समय की इकाई क्यों न मानें? कारण कि अंतिम सत्य तो यही दो घटनाएँ होंगी। हमारे जन्म से मृत्यु तक का समय इसी विशाल समय की सापेक्षता ही तो है। इसलिए जब तक हम उस अंतिम समय को नहीं जान लेते, समय संबंधी सारे माप और उनको प्रभावित करने वाले कार्य सब गलत हैं।

इस दृष्टि से केवल वही कार्य और कर्त्तव्य हमारे लिए सच्चे होते हैं, जो समय की इस परम गति को प्रभावित करते हैं। शेष सभी कार्य चाहे उसमें खाना, पहनना, चलना, उठना,बैठना भी क्यों न सम्मिलित हो गलत भ्रम है। यह कार्य वैसे दोनों ही परिस्थितियों में उभयनिष्ठ रहते हैं। इसलिए हम अपने जीवन में उन्हीं कार्यों को शुद्ध व यथार्थ मानते हैं, जिनसे हमें परम-काल गति की अनुभूति में सहायता मिलती है। केवल भौतिक सुख के लिए किये गये सभी कार्य व्यर्थ हैं। उसमें हमारा चाहे कितना ही श्रम, बुद्धि, कौशल, साधन क्यों न प्रयुक्त हो रहा हो।

हमारे लिए कोई भी स्थान सत्य नहीं है। हमारे द्वारा वस्तुओं को पहचानने के अतिरिक्त स्थान का कोई अर्थ ही नहीं है। जिस प्रकार समय अनुभव के अतिरिक्त कुछ नहीं था, इसी तरह स्थान हमारे मस्तिष्क द्वारा उत्पन्न काल्पनिक वस्तु के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं। वस्तुओं को समझने तथा उनकी व्यवस्था जानने में सहायता मिलती है, इसलिए स्थान की कल्पना को हम सत्य मान लेते हैं अन्यथा स्थान एक निश्चित तरीके के परमाणुओं के अतिरिक्त और है भी क्या? परमाणु भी इलेक्ट्रान्समय होते हैं, इलेक्ट्रॉन एक प्रकार की ऊर्जा निकालता रहता है जो तरंग रूप में होता है। जिन वस्तुओं के इलेक्ट्रॉन जितनी मंदगति के हो गये है, वह उतने ही स्थूल दिखाई देते हैं। यह हमारे मस्तिष्क की देखने की क्षमता पर निर्भर करता है। यदि हम पृथ्वी को छोड़कर सूर्य जैसे ग्रह में बैठे हों तो पृथ्वी एक प्रकार के विकिरण के अतिरिक्त और कुछ न दिखाई देगी। इसलिए स्थान भी वस्तुओं की संरचना का अपेक्षित (रिलेटिव) रूप है। उसकी यथार्थता भी परम अवस्था पर ही हो सकती है।

‘गति’ का ज्ञान भी हमारी सापेक्ष बुद्धि का परिणाम है। अभी हम कहते हैं कि यह हमारा कमरा स्थिर है। ऐसा कहने का हमें इसलिए अधिकार है कि पृथ्वी के साथ हमारा कमरा भी घूम रहा है। यदि एक स्टेशन पर दो गाड़ियाँ समान गति से एक ही दशा में दौड़ रही हों तो दोनों गाड़ियों के सवार अपने आपको स्थिर अनुभव करेंगे। किन्तु एक गाड़ी 45 मील प्रति घंटा की गति से पूर्व को जा रही हो और दूसरी 45 मील प्रति घंटा पश्चिम की ओर तो दोनों गाड़ियाँ जिस स्थान पर साथ-साथ होंगी वहाँ एक-दूसरे की गति 90 मील प्रति घंटा अनुभव करेंगी। इससे यह सिद्ध होता है कि ‘गति’ भी एक ‘परमगति’ की सापेक्ष है। उसमें भी कोई अंतिम सत्य नहीं है।

पदार्थों के ‘कारण’ के संबंध में भी हम पूर्ण सापेक्ष हैं। थोड़े से तत्व चाहे उन्हें पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि और वायु कहें अथवा हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, सल्फर, जिंक, कोबाल्ट, एसिड्स कहें, इन्हीं से मिल-जुल कर भौतिक पदार्थों का बनना-बिगड़ना चालू रहता है। हमारे कोई भी कार्बनिक या अकार्बनिक पदार्थ इन तत्वों की परस्पर रासायनिक क्रिया का ही परिणाम होते हैं। परंतु जब हम पदार्थ के अंतिम टुकड़े परमाणु को संरचना, जो कि रासायनिक क्रिया में भाग लेता है, पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि संपूर्ण पदार्थों में आवेश का अन्तर है अन्यथा मूलभूत तत्व कोई और ही है। पदार्थ शक्तियों के परिवर्तित रूप हैं इसी प्रकार शक्तियों की भी एक अंतिम स्थिति होनी चाहिए। इसका आभास प्रकाश की क्वांटम थ्योरी से होता है। अर्थात् संसार का कारण भी भौतिक नहीं कोई परम तत्व है।

उस परम अवस्था को कैसे अनुभव करें, जब आइन्स्टीन से यह प्रश्न किया गया तो उनका जवाब था हम समय, स्थान, गति और कारण की सापेक्ष अवस्था से यदि अपने मस्तिष्क

को ऊपर उठा दे तो उस परम अवस्था की अनुभूति कर सकते हैं। हमारी सापेक्ष अवस्था की अनुभूति ही माया है किन्तु यदि हम इन चारों से ऊपर उठकर संसार का अनुभव करें तो अंतिम सत्य की अनुभूति कर सकते हैं। सापेक्षवाद के सिद्धान्त का यही संक्षेप में सार और निष्कर्ष है।


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