विश्व-संस्कृति के संदेशवाहक बनने हेतु स्वयं को तैयार करें

October 1996

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परमपूज्य गुरुदेव युग परिवर्तन का प्रसंग आते ही एक वाक्य सदैव दुहराते थे-”इन दिनों सारे विश्व को कुसंस्कारों से मुक्त करने के लिए, श्रेष्ठ वातावरण विनिर्मित करने हेतु समस्त ऋषिगण संकल्पित हैं।” उनका यह कथन विश्व-पटल पर चल रही गति-विधियों को देखकर आज साकार होता दिखाई दे रहा है। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि आगामी दस वर्षों में संधि वेला की अंतिम घड़ियों में जब सतयुग की लाली जन-जन को दृष्टिगोचर होने लगेगी तब संस्कारों को परिष्कृत करने वाली चिन्तन प्रक्रिया में आमूलचूल परिवर्तन लाने वाली ऋषि संस्कृति, देव संस्कृति, हिन्दू संस्कृति ही उसका आधार बनेगी। अपने राष्ट्र में भले ही उसके चिन्ह अभी उस व्यापक परिमाण में दृष्टिगोचर न हो रहे हों, सारे विश्व राष्ट्र में यह परिवर्तन प्रक्रिया आरंभ हो चुकी है, उसके लक्षण स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं।

पिछले दिनों सुदूर पश्चिम के कनाडा राष्ट्र के क्यूबेक प्रान्त की राजधानी ‘माण्ट्रियल’ में सम्पन्न अंतिम सत्ताइसवाँ आश्वमेधिक आयोजन (प्रथम पूर्णाहुति समारोह-आँवलखेड़ा तो इस कड़ी का समापन कार्यक्रम था-अश्वमेध महायज्ञ से भी काफी विराट् ऋषियुग्म की सत्ता को समर्पित एक श्रद्धाँजलि समारोह) , जिसे प्रयाज ये अनुयाज तक पूरा कर इन पंक्तियों का लेखक अपने सोलह सदस्यीय दल के साथ लौटा है इस तथ्य की साक्षी देता है। सारा पश्चिम जिस शान्ति, सादगी, तनावमुक्त जीवन-पद्धति को तलाश रहा है, वह उसे मात्र भारतीय संस्कृति में हिन्दुत्व के व्यापक विराट् परिवेश में नजर आ रही है।

हम चाहे कितना भी इस तथ्य को नकारें ,एक तथ्य अपने स्थान पर सही है कि धर्म-संस्कृति के प्रति झुकाव भारत से बाहर के अन्यान्य देशों में अधिकाधिक बढ़ता देखा जा सकता है। भारत स्वतंत्र होने के बाद हमारे यहाँ

से भेजे गये भारतीय विदेश सेवा (आय.एफ.एस.) के अधिकारीगण तो भारतीय संस्कृति के संदेशवाहक नहीं बन पाए, न ही उन्होंने यह प्रयास किया कि वे कहीं से भारत के प्रतिनिधि नजर आएं, किंतु प्रवासी भारतीयों ने इस भूमिका को बखूबी निभाया है एवं अब अमेरिका, कनाडा, इंग्लैण्ड सहित यूरोप व अन्यान्य देशों के नागरिक उनके माध्यम से शाँति, अहिंसा, मैत्री, पारिवारिक सहकार का संदेश पाते दिखाई देते हैं। परमपूज्य गुरुदेव ने अपनी पुस्तक ‘समस्त विश्व को भारत के अजस्र अनुदान’ (1947) में यह तथ्य स्पष्ट शब्दों में उद्घोषित करते हुए लिखा था कि “हमारे प्रवासी भाई व बहिन जो डेढ़ सौ वर्षों से अब तक वहाँ जाकर बसते रहे हैं।, भारत रूपी हृदय की रक्तवाही नलिकाएँ हैं। भारत से यदि भाव संवेदना रूपी रक्त-संचार यदि यथावत होता रहा तो यही 3 करोड़ प्रवासी परिजन हमारे देश के सच्चे राजदूत कहे जाएँगे। “ आज वह कथन सही होता दीख रहा है। अब संख्या साढ़े पाँच करोड़ से अधिक है किन्तु वे ही अब निमित्त बन रहे हैं भारतीय-संस्कृति के विश्व-संस्कृति में परिवर्तित हो रही प्रक्रिया के, वहाँ संव्याप्त समस्याओं का समाधान सुझाने वाले वैज्ञानिक अध्यात्मवाद के संदेश के । लगता बड़ा विचित्र है किंतु यह नितान्त सत्य है एवं तेजी से पश्चिमी सभ्यता को अंगीकार करती जा रही भारतीय जनता के लिए एक तमाचा भी है।

यों तो, भारत से गायत्री परिवार की विधिवत् संगठनात्मक प्रक्रिया आरंभ हुआ यह छठा वर्ष एवं इस बीच चार शानदार आश्वमेधिक आयोजन प्रथम पूर्णाहुति के पूर्व वहाँ भी हो चुके हैं फिर भी इस पुनर्गठन वर्ष में जब सारे भारत में कोई बड़ा आयोजन नवम्बर, 15 के बाद निषिद्ध कर दिया गया था, विगत वर्ष के लिए प्रस्तावित व फिर आगे बढ़ा दिया गया क्यूबेक कनाडा का ‘माण्ट्रियल अश्वमेध महायज्ञ’ कुछ अभूतपूर्व विशिष्टताएँ लिए सम्पन्न हुआ है, एक प्रकार से विराट् अखिल विश्व गायत्री परिवार के लिए एक मील का पत्थर प्रमाणित हुआ है एवं सभी के लिए अपरिमित संभावनाएँ सामने लेकर आया है। इस यज्ञ का अनेकानेक विशिष्टताओं के कारण याद किया जाता रहेगा।

(1) फ्रेंच बहुल आबादी वाले सुदूर पश्चिम के सेण्ट लारेन्स नदी तट पर स्थित माण्ट्रियल नगर का यह आश्वमेधिक आयोजन सबसे कम प्रवासी भारतीयों वाले भाग में प्रचण्डतम सफलता के साथ संपन्न हुआ।

(2) इस महायज्ञ में पहली बार भारत से इन पंक्तियों के लेखक व वर्तमान में गायत्री परिवार का सारा कार्य-भार वहन कर रहीं श्रीमती शैलबाला पंड्या (आत्मजा परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य एवं माता भगवती देवी शर्मा) सहित 14 अन्य वरिष्ठ सदस्यों अर्थात् सोलह सदस्यीय दल विदेश में इस विराट् आयोजन हेतु प्रस्तुत हुआ।

(3) शून्य से पैंतीस डिग्री कम तापमान में विगत सर्दी में अपने कार्यकर्ताओं द्वारा घर-घर बाँटे गए आमंत्रण के प्रतीक अक्षतों का यह परिणाम निकला कि बिना किसी भेदभाव के सभी पंथों, संप्रदायों एवं धर्मों के लोगों ने न केवल शोभायात्रा में वरन् तीनों दिन यज्ञ में भाग लिया एवं विभिन्न संस्कार सम्पन्न कराके हिन्दू संस्कृति-देव संस्कृति के प्रति अपना अक्षुण्ण लगाव प्रमाणित किया।

(4) मौसम विभाग की भविष्यवाणी के विपरीत एवं गुरुवार को टेण्ट लगाते समय तेज आंधी सहित हुई बारिश के बावजूद गुरुसत्ता का सुरक्षा कवच पूरी अवधि में सक्रिय रहा। शुक्रवार 26 जुलाई 1996 से लेकर मंगलवार 30 जुलाई तक सारा यज्ञ क्रम व्यवस्थित रूप से सम्पन्न हो जाने एवं टेण्ट आदि हट जाने से लेकर पूरे जैरी पार्क क्षेत्र की सफाई हो जाने तक हलकी ठण्डी हवा बहती रही, पानी बिल्कुल नहीं गिरा एवं सब कुछ हो जाने के बाद हुई तेज बारिश से सारी सफाई भी हो गयी।

(5) पहली बार आश्वमेधिक देवमंच से

फ्रेंच, इंग्लिश, हिन्दी एवं गुजराती चारों भाषाओं में मंत्रार्थ एवं विभिन्न वक्तव्य दिये जाते रहे। इसका लाभ उपस्थित फ्रेंचभाषी स्थानीय जनता ने, इंग्लिश मात्र में बात करने वाले वहीं जन्मे प्रवासी बालक-बालिकाओं ने तथा पंजाब व गुजरात बाहुल्य क्षेत्र के पूरी उत्तरी अमेरिका व कनाडा से आए नागरिकों ने लिया।

(6) कनाडा मूल के स्थानीय मेम्बर ऑफ पार्लियामेण्ट, संस्कृति विभाग के प्रान्तीय मंत्री, नगर के मेयर सहित भारतीय समुदाय का संसद (कनाडा) में प्रतिनिधित्व करने वालों ने न केवल भागीदारी की, मंच पर आकर अपने भावोद्गार भी व्यक्त किए तथा यज्ञ भी सम्पन्न किया।

(7) क्यूबेक के सर्वाधिक पढ़े जाने वाले समाचार पत्र ‘द गजट’ ने इसे ‘सन फेस्टिवल’ (सविता महोत्सव) नाम देते हुए इसे पूर्वी संस्कृति का पश्चिमी समुदाय के हितार्थ ही नहीं, विश्व एकता व पर्यावरण के लिए किये जाने वाला एक विशिष्ट उपक्रम वर्णित किया ।

(8) नारी-शक्ति ने सत्तर प्रतिशत से अधिक उपस्थिति दिखाते हुए प्रमाणित कर दिया कि नारी सदी-इक्कीसवीं सदी सुनिश्चित रूप से आने वाली है एवं संस्कार-परिवर्तन की प्रक्रिया वही आरम्भ करेगी।

(9) इस महायज्ञ में पूरे नार्थ अमेरिका की सौ से अधिक शाखाओं के दस हजार व्यक्तियों सहित, कनाडा की दस शाखाओं एवं यूके (इंग्लैण्ड) दक्षिण व पूर्वी अफ्रीका तथा न्यूजीलैण्ड, फिजी के अतिरिक्त त्रिनिदाद-टोबेगो में बसे पश्चिमी भारत (वेस्ट इण्डीज) के नागरिकों की भी भागीदारी रही।

(10) कनाडा सरकार ने इस महायज्ञ हेतु निःशुल्क सारा वह स्थान उपलब्ध कराया जो कि नगर के केन्द्र में ही नहीं था, अपितु जहाँ अभी तक कभी भी किसी धार्मिक आयोजन की स्वीकृति नहीं दी गयी थी। माण्ट्रियल के जैरी पार्क में 26, 27 व 28 जुलाई (शुक्रवार से रविवार तक) सम्पन्न हुए इस आयोजन को सारे नगर की जनता ने उत्सुकतापूर्वक आकर बार-बार देखा व सूर्य देवता को पर्यावरण संरक्षण के निमित्त दी जा रही आहुति के माहात्म्य को स्वीकारा, जिसके कारण मौसम की भविष्यवाणी भी गलत सिद्ध हो गयी थीं।

(11) स्थानीय टेलीविजन के चैनलों द्वारा इसे प्रमुख समाचारों सहित पूरे फीचर के रूप में प्रसारित किया गया एवं यह आयोजन टोरेण्टो सहित पूरे कनाडा के पाँच हजार मील चौड़े क्षेत्र में पश्चिमी तट पर स्थित बैंकूवर तक देखा गया।

(12)विज्ञान व अध्यात्म के समन्वयात्मक स्वरूप को प्रदर्शित करने वाली प्रदर्शनी को तीन दिन में पचास हजार से अधिक नागरिकों ने देखा, जिसमें युवा वर्ग के बालक-बालिकाओं ने उत्साहपूर्वक सभी को समझाया। स्लाइड व लेसर प्रोजेक्टरों द्वारा पहली बार इसे जन-जन द्वारा देखा गया व सभी ने इसकी स्थापना करने वाले परमपूज्य गुरुदेव के समग्र वाङ्मय के 44 खण्डों को देखकर अपनी अभिव्यक्ति यही दी कि विचारक्रान्ति अब सुनिश्चित है।

(13) इसी महायज्ञ में गुरुसत्ता की सूक्ष्म प्रेरणा द्वारा मंच से आगामी वर्ष के आयोजनों के विश्वव्यापी-भारतव्यापी स्वरूप के ‘संस्कार महोत्सवों ‘ के रूप में सम्पन्न होने की घोषणा की गयी एवं इसका भारत से बाहर प्रथम आयोजन ‘न्यूजर्सी ‘ में जुलाई, 1997 में होने की विधिवत् घोषणा भी कर दी गयी एवं वहाँ के परिजनों को इसकी जिम्मेदारी सौंप दी गयी । इन आयोजनों को नहीं, ज्ञान यज्ञ की महत्ता को निरूपित किया गया तथा पहली बार एक साथ सौ कम्प्यूटर्स से मल्टीमीडिया द्वारा भारतीय संस्कृति के विज्ञानसम्मत स्वरूप को पश्चिमी जगत को दिखाने वाली एक विराट् प्रदर्शिनी व साँस्कृतिक महोत्सव जिसमें 251 जोड़ों के आदर्श विवाह एवं अन्य सभी संस्कार सम्पन्न किये जाने की बात कही गयी। इसी उद्घोषणा ने भारत में आगामी वर्ष बसंत के बाद सम्पन्न होने वाले आयोजनों की रूपरेखा भी बना दी।

(14) पहले भी चार अश्वमेध महायज्ञ विदेश में लीस्टर (यूके), टोरोण्टो (कनाडा), तथा शिकागो (उ. अमेरिका) में सम्पन्न हो चुके हैं। किंतु पहली बार इन पाँचों यज्ञों का अनुयाज चौदह सदस्यीय दल द्वारा विधिवत् इन पंक्तियों के लिखे जाने तक सम्पन्न होता जा रहा है एवं सुनियोजित ढंग से ज्ञानघटों , वेद स्थापना, ज्ञान मंदिरों की स्थापना के रूप में केन्द्र से जुड़ी शाखाओं के माध्यम से पूरे अमेरिका, कनाडा एवं इंग्लैण्ड में स्थापनाएँ सम्पन्न हो चुकी हैं।

इस संक्षिप्त वृत्तांत से परिजन, जो पाक्षिक ‘प्रज्ञा अभियान’ के माध्यम से समय-समय पर विदेश की धरती पर प्रज्ञावतार के लीली संदोह को जानते समझते रहे हैं, भलीभाँति उन तथ्यों को हृदयंगम कर सकते हैं जो परिवर्तन की प्रक्रिया की एक झलक दिखाते हैं। वस्तुतः इस आयोजन के 28 जुलाई को सम्पन्न हो जाने के बाद अब जाकर यह अहसास हो पाया है कि ऋषियुग्म की सत्ता की अनुकम्पा किन’-किन रूपों में बरसी है।

यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान के बढ़ते साधनों ने आज धरती के सुदूर छोरों को एक-दूसरे के समीप ला दिया है, साइबर टेक्नालॉजी का एक हाइवे-राजमार्ग तैयार हो चुका है जिसका यदि सदुपयोग किया जा सके तो प्रसुप्त प्रतिभाओं से लेकर इक्कीसवीं सदी का निर्माण करने वाले भावी नागरिकों के मस्तिष्कों को अभी से ढाला जा सकता है। यह कार्य परमपूज्य गुरुदेव के विराट परिमाण में प्रकाशित साहित्य के छपे प्रारूप के अलावा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी भलीभाँति कर सकता है, यह योजना इस यज्ञ के तुरन्त बाद जन्मी एवं इसने क्रिया रूप ले लिया। निर्णय लिया गया कि परमपूज्य गुरुदेव के समग्र वाङ्मय को, जो उनकी लेखनी से लिखा एकमात्र प्रामाणिक ऐसा संग्रह है जो पहली बार विधिवत् विषयवार प्रकाशित हुआ है, अँग्रेजी सहित विदेश की चार प्रमुख भाषाओं फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश एवं जापानी में केवल प्रकाशित किया जाय अपितु, इनकी काम्पेक्ट डिक्स (सी.डी) भी तैयार कर दी जाय। जिसे भारत व बाहर के करोड़ों व्यक्ति अपने कम्प्यूटर के माध्यम से देख-सुन सकें। मिशन के समग्र परिचय का दिग्दर्शन कराने वाली प्रश्नोत्तरी प्रक्रिया द्वारा भारतीय संस्कृति संबंधी सभी जिज्ञासाओं का समाधान करने वाली तथा गायत्री-मंत्र एवं प्रज्ञा गीतों की सी.डी. बनाने का भी निर्णय इस प्रवास में लिया गया एवं दो सी.डी.,आडियो कैसेट्स का निर्माण कर उसका विधिवत् शुभारम्भ कर दिया गया है।

जो व्यक्ति पढ़ नहीं सकते अथवा जिनके पास पढ़ने के लिए समय नहीं है अथवा प्रमादवश स्वाध्याय नहीं कर पाते, उनके लिए -आडियो बुक’ लगभग एक हजार की संख्या में आगामी एक वर्ष में तैयार करने का निर्णय लिया गया है। विदेश में अब इनका प्रचलन अत्याधिक है। ज्ञानेन्द्रियों में आँखें देखें या कान सुनें, कोई फर्क नहीं पड़ता । मस्तिष्क की ग्रहणशीलता पर निर्भर करता है कि स्वाध्याय सार्थक हो पा रहा है या नहीं। पूज्यवर के साहित्य के महत्वपूर्ण अंश अब ‘ऑडियो बुक्स’ के रूप में भी शाँतिकुँज की रजत जयंती के उपलक्ष्य में प्रतिमाह निकलते रहेंगे एवं दीपावली उनके प्रथम किश्त निकल जाय, यह विदेश प्रवास से लौटकर सुनिश्चित कर लिया गया है, इसी तरह वीडियो के माध्यम से नन्हें-मुन्हें बच्चों के लिए एनीमेशन फिल्मस से लेकर बड़ों के लिए एक्शन साँग्स, एकाँकी नाटिकाएँ एवं पूज्यवर एवं मातृसत्ता का संदेश और भी प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करने की योजना बनी है।

यह माना जाना चाहिए कि महाकाल की युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया अपनी चरमावस्था पर पहुँच रही है एवं उपरोक्त वर्णन मात्र उसकी एक झलक-झाँकी भर है। भारतीय संस्कृति बनना है एवं प्रत्येक परिजन को उसके लिए अब संदेशवाहक बनने हेतु कमर कसकर आश्विन नवरात्रि की इस संधि-वेला में स्वयं को तैयार कर लेना चाहिए।


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