कैसा है आपका अभ्युदय?

October 1996

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आपने कभी अपने अभ्युदय का स्वप्न देखा है? आप जानते होंगे कि यह स्वप्न भी कितना सुखदायी, कितना भव्य होता है। लेकिन कितनों का वह स्वप्न पूरा होता है? फिर वह तो स्वप्न है, स्वप्न पूरा हो जाय, वही एक स्वप्न बना रहे तो फिर स्वप्न क्या? एक स्वप्न पूरा होगा, यह आशा भी जान पड़े, इससे पहले तो दूसरा स्वप्न सजीव हो उठता है और-और-और किसी के मन की भूख कभी पूरी हुई है।

आपको आश्चर्य होगा- एक है जो कहता है-”मेरा स्वप्न पूरा हो गया। भले मेरा वही स्वप्न ज्यों का त्यों पूरा नहीं हुआ; किन्तु मेरे स्वप्न की सीमा हो गयी। मेरा जो कुछ होना-हवाना होगा, हो रहेगा। मैं अपने अभ्युदय का शिखर देख चुका। रही वहाँ पहुँचने की बात, सो आज या दस दिन पीछे। जो मेरा काम नहीं, उसके लिए मैं व्याकुल नहीं बनता।

आपको और अधिक आश्चर्य होगा- उसके सारे स्वप्न नष्ट हो गए हैं। उसका एक भी स्वप्न सफलता की ओर बढ़ा नहीं। किन्तु वह इतना प्रसन्न है, जैसे वही इस सारे विश्व का सम्राट है।

एक दूसरा भी है। उसके स्वप्न सत्य ही होते रहे हैं। उसने स्वप्न देखा और जुट पड़ा। सफलता की देवी उसके आगे जैसे हाथ बाँधे खड़ी रहती है। वह ऐसा है कि उसके समकक्ष बैठने का स्वप्न भी बहुतों के लिए असम्भव-सा स्वप्न है। वह उन्नत है, यशस्वी है, सबल है। अधिकांश की दृष्टि में वह अभ्युदय के शिखर पर पैर रखकर खड़ा है।

आपको फिर भी आश्चर्य होगा- वह कहता है-”मेरा स्वप्न यदि सत्य हो पाता। मैं अभी अभ्युदय के महापर्वत के नीचे ही तो खड़ा हूँ। मस्तक उठाने पर उसका शिखर देख तक नहीं पाता मैं।

वह चाहे जितना गर्विष्ठ दिखे, चाहे जितना झल्लाए, यह सब तो अपनी दुर्बलता छिपाने के उसके प्रयत्न हैं। वह कितना दीन, कितना लघु, कितना दुर्बल है, अपने आपमें, यह वही जानता है। यह सब मिलकर उसे निरन्तर अशांत, क्षुब्ध, चिन्तित बनाए रखते हैं। उसका क्या दोष है यदि वह झल्ला उठता है अथवा बाहर से अपने को गर्विष्ठ, सन्तुष्ट होने की कोशिश करता है।

आपने कभी पर्वतों की चोटी पर चढ़ने का मन किया है? एक चोटी पर चढ़े तो दूसरी उससे ऊँची दिखती है। दूसरी पर चढ़ो तो तीसरी और तीसरी पर चढ़ो तो चौथी। चलता रहता है यही क्रम। उन्नति-अभ्युदय-उसके स्वप्न नए-नए होते रहते हैं। वह जब मस्तक उठाता है उसे प्रत्येक क्षेत्र में बड़े, अपने से बहुत बड़े दिखते हैं। वह बढ़कर उन्हें छूने का प्रयत्न करता है, छू लेता है और सिर उठाता है। किन्तु वहाँ तो बड़े, बहुत बड़े, दूसरे सामने खड़े दिखते हैं। उसका मस्तक झुक जाता है। वह फिर उद्योग में लगता है।

नीचे-नीचे-बहुत नीचे तक लोग हैं उसके। वे भी मनुष्य हैं। उनका भी जीवन है। उनके भी स्वप्न होंगे। उनका भी सुख-गौरव होगा ही। उनका भी काम चल जाता है। लेकिन पर्वत पर चढ़कर नीचे देखा जाय- कितने तुच्छ दिखते हैं नीचे के पदार्थ। वह क्यों नीचे देखे? नीचे के तुच्छ समुदाय पर वह क्यों ध्यान दे। वहाँ वह अपने स्थान को देखने की कल्पना करे-छिः।

उसे ऊपर जाना है। अभ्युदय प्राप्त करना है- महत्तर अभ्युदय। वह बड़ा होना चाहता है। ऐसा बड़ा, जिससे बड़ा और कोई न हो। कम से कम अपने क्षेत्र में उसे सर्वोच्च होना ही चाहिए। वह प्रयत्न कर रहा है- निरन्तर प्रयत्न कर रहा है।

यह तो संसार है। यहाँ क्या महत्ता की कोई सीमा बनी है? एक से बड़ा दूसरा और दूसरे से बड़ा तीसरा। यहाँ क्या इसकी कोई सीमा हो सकती है। उसका स्वप्न, उसका अभ्युदय, उसकी महत्ता-लेकिन कोई अनन्त आकाश की माप लेने चल पड़े तो उसका कार्य कब समाप्त होगा, यह आप बता सकते हैं?

उसकी अशांति, उसकी उलझन, उसकी व्यग्रता, उसका असन्तोष बढ़ता जा रहा हैं यह तो कहावत है न कि पैसे वाला रोबे पैसे को और रुपये वाला रोबे रुपये को। सौ पैसे वाले के पास दुःख पैसे भर और रुपए वाले के पास दुःख रुपये भर तो रहना ही ठहरा।

अभ्युदय के, साँसारिक ऐश्वर्य के क्षेत्र में वह बढ़ता जा रहा है और साथ ही बढ़ता जा रहा है, उसका दुःख, उसका असन्तोष, उसकी व्यग्रता। वह आज किसी शिखर पर खड़ा है तो वह अशांति का शिखर है। आप बाहर से उसे कैसा भी देखें ओर कोई भी नाम दें, सत्य तो सत्य ही रहता है।

आपको आश्चर्य तो होना ही ठहरा। ये दोनों ही मित्र थे दोनों एक ही पाठशाला की एक ही कक्षा में पढ़ते थे। दोनों साधारण स्थिति के किसानों के पुत्र थे। क्या हुआ जो दोनों के आकार में कुछ अन्तर था। दो मनुष्यों के आकार में अन्तर तो होता ही है। ब्रह्मा बाबा तो जैसे एक साँचा दो बार काम में लेना जानते ही नहीं। लेकिन दोनों के स्वभाव प्रायः एक से थे। दोनों तीक्ष्ण-बुद्धि थे। दोनों परिश्रमी थे और सबसे बड़ी बात तो यह कि दोनों के स्वप्न प्रायः एक जैसे ही थे।

खूब बड़ा-सा ईंटों का मकान, अच्छा-सा दालान, द्वार पर नीम का पेड़ चार बड़े-बड़े बैल, दो मुर्रा भैंसें, एक गाय। दोनों कभी-कभी बैठ जाते, कहीं एकान्त देखकर और अपने स्वप्नों का विनिमय करते। दोनों मिलकर उसमें थोड़ा-बहुत सुधार करते-चार बड़े-बड़े निवार के पलंग, एक तख्ता, एक छोटी चौकी, दस-बारह मोढ़, कुछ मचिया, एक हुक्का- नहीं-नहीं एक चमकता काँसे की बड़ी भारी नली वाला गड़गड़ा और एक हुक्का भी। गड़गड़े के बिना द्वार की कहीं शोभा बनती है।

दोनों ने अपने ग्राम के मुखिया को अपना आदर्श मान रखा था। बालक ही थे दोनों। मुखिया के घर में, द्वार पर उन्हें जो कुछ जैसे दिखता था, वह वैसे ही उनके स्वप्न में सम्मिलित हो जाता था। उनके लिए मुखिया ही संसार का सर्वश्रेष्ठ पुरुष था। केवल एक बात में थोड़ा-सा मतभेद था दोनों में। द्वार पर घोड़ा रहे या हाथी। मुखिया के द्वार पर घोड़ा था; किन्तु उन्होंने हाथी देखा था। सुना तो जिसके द्वार पर हाथी झूमे, वह बहुत बड़ा आदमी माना जाता है। लेकिन उसका मन झिझकता था- इतनी बड़ी कल्पना उन्हें करनी चाहिए या नहीं।

दोनों में बहुत मित्रता, बहुत एकता सही। लेकिन दोनों के प्रारब्ध तो एक थे नहीं। एक के पिता-माता उसे छोड़कर परलोक चले गए। उसकी पढ़ाई छूट गयी। उसके घर जो कुछ था, दूसरों ने अवसर लेकर दबा दिया। उसका घर तक धीरे-धीरे खण्डहर होता गया। घर छोड़कर उसे बाहर जाना पड़ा और फिर घर धरा क्या था जो वह लौटकर आता। प्रारब्ध ने जहाँ जैसे भटकाया-भटकता रहा।

दूसरे को ननिहाल की सम्पत्ति मिली, पढ़ाई का सुयोग मिला। अवसर-अनुकूल आते गए, वह बढ़ता गया। गाँव उसने भी छोड़ दिया है। नगर के बाहर उसकी बड़ी विख्यात कोठी है। बगीचा है, मोटरें हैं, नौकरों की भीड़ है। अब उसे कहाँ अवकाश है कि गाँव जाय। गाँव पर उसके चचेरे भाई रहते हैं। उन्होंने वहाँ पक्का मकान बनवा लिया है। अब वहाँ एक तो क्या कई गड़गड़े रहते हैं। हाथी और घोड़ा दोनों साथ रहे वहाँ और अब तो दोनों का स्थान मोटर ने ले लिया है। लेकिन उसे कहाँ अवकाश है यह सब जानने का। वह एक नन्हें से गाँव की बात कहाँ सोचता बैठ सकता है। वह गाँव उसे कब का भूल चुका है।

जीवन की दिशा बदलती है, उसके स्वप्न बदलते हैं जब घर ही नहीं रहा, घर के स्वप्न को समाप्त हो जाना था। वह पहले जब घर छोड़ने को विवश हुआ, स्थान-स्थान पर भटकता रहा, उसके स्वप्न छोटे होते गए। कभी बढ़े भी तो बढ़ने का आगे स्थान न देखकर संकुचित हो गए। निराशा, विफलता, प्रतिकूलता ने उसे दी उदासीनता, दृढ़ता, तटस्थता। क्या कठिनाई आवेगी या आ सकती है, इसे सोचना अब उसे व्यर्थ जान पड़ता है। इतनी कठिनाइयाँ, इतने संकट वह झेल चुका है कि अब और क्या नया होना है। क्या सुख, क्या सुविधा मिलेगी या मिल सकती है, इसमें उसे रस रहा ही नहीं है। जब उन्हें दो दिन में नष्ट होना ही है, वे आवें या जायें। उसने अनुभव कर लिया है इस भटकने-भटकाने में कि सुख-सुविधा का बने रहना भी कोई अर्थ नहीं रखता। बहुत शीघ्र उनका रस बासी पड़ जाता है। वे फीके पड़ जाते हैं।

सुख न चाहे ऐसा प्राणी हो कैसे सकता है। दुःख सभी को उद्विग्न करते हैं, सुख सभी को लुभाते हैं। लेकिन दुःख भोगते-भोगते भी एक टेव पड़ जाती है। आप कह सकते हैं कि उसे टेव पड़ गयी है। लेकिन बात ऐसी नहीं है। उसके मन ने उससे कभी पूछा था- ऐसा नहीं हो सकता कि कठिनाइयाँ आती रहें और हम मौज में बने रहें। सुख का स्वाद बासी और फीका पड़ जाता है, तो दुःख का स्वाद तीखा ही क्यों बना रहे। वह क्या बासी नहीं पड़ेगा? दुःख भी बासी पड़ता है। दीर्घ रोगी अपने रोग के कष्ट को उतना अनुभव नहीं करता जितना नय रोगी अनुभव करता है। जो विपत्ति ही विपत्ति भाग्य में लाया हो, उसे दुःख बासी होना जानते कितने दिन लगते हैं।

वह भी अभ्युदय चाहता था। परिस्थिति ने उसे विचार का स्वभाव दिया था। विचार के अतिरिक्त करने को था ही नहीं उसके पास। वह अपने विचार अभ्युदय का स्वप्न देखने लगा था-”दुःख यदि मन को स्पर्श ही न करे? आने के पहले ही वह बासी हो जाय? सुख बासी होकर दुःख हो जाता है, यह तो सबका नित्य का अनुभव है। सुख ताजा किया ही न जाए तो? उसे लगा कि उसने दुःख को सदा के लिए बासी बना देने का मर्म देख लिया है।

पर्वत की टेड़ी-मेढ़ी, आड़ी-तिरछी शिलाएं धारा के प्रवाह में पड़कर बराबर हो जाती हैं, चिकनी हो जाती हैं, गोल हो जाती है। बहुत लुढ़कना पड़ता है उन्हें, बहुत टक्कर खानी पड़ती है। कभी कोई ग्रामीण उन्हें उठाकर यदि पीपल के नीचे या वेदी पर रख दे, तो वे भगवान शंकर की प्रतिमा बन जाती हैं। वह कहता है, मैं लुढ़का और टकराया, गोल तो हो चुका। सुख आवे या दुःख, दोनों मुझे छूते चले जाते हैं। मेरा अभ्युदय तो हो चुका। मन्दिर की मूर्ति बनना कुछ मेरे बस की बात नहीं। जिसे जब बनाना होगा, बना देगा।

तुम इस अभ्युदय कहते हो? उन ईंट और पत्थरों को? इन चाटुकारों के समुदाय को? वह आज अपने पुराने मित्र से मिलने आया है। उसके मित्र की महानता आपको स्वीकार करनी पड़ेगी। उन्होंने अपने पहरेदारों को नहीं कहा-’मुझे अवकाश नहीं है। कह दो, फिर कभी आवें।’ उन्होंने नहीं सोचा कि एक कंगाल, अप्रख्यात, साधारणतया अपठित जैसे व्यक्ति के लिए वे क्यों अपना मूल्यवान समय नष्ट करें। वे गए स्वयं द्वार तक उसे ले आये। उसका स्वागत किया। उसे जलपान कराया। उसके सन्तोष के लिए उसके साथ एकान्त में बातें करने बैठे। लेकिन आने वाला भी तो अद्भुत है। वह तो ऐसे बोल रहा है, जैसे अपनी पाठशाला के उसी पुराने छात्र से बोल रहा हो। सचमुच तुम्हारे पास अब कोई स्वप्न नहीं है? तुम सुखी और सन्तुष्ट हो।

‘कहाँ की बात करते हो तुम !” उन्होंने एक लम्बी श्वास ली। अभ्युदय की तो बात ही दूर है। अभी तो ठिकाने से उसका श्रीगणेश भी नहीं हुआ है। लेकिन मैं प्रयत्न में लगा हूँ। मेरा अभ्युदय, मेरा अभ्युदय तो वह कि विश्व के लोग शताब्दियों तक मुँह में अंगुली दबाए रह जाया करें।

कुछ लोग तुम्हारे वैभव पर अब भी चकित रह जाते हैं। उसने कहा चकित रहने वाले दस हों, दस हजार हों या दस करोड़ हों। दस दिन वे चकित रहें या दस शताब्दी, बात तो वह की वही रहेगी।

‘तुम अब अद्भुत हो गए हो।’ उन्होंने उसकी ओर हँसकर देखा।

‘तुमसे अद्भुत नहीं।’ वह हँसा नहीं-तुम तो ईंट, पत्थर और मूर्खों द्वारा की गयी प्रशंसा में अभ्युदय मान बैठे हो। तुमने कभी सोचा है कि अभ्युदय का अर्थ होता है सुख, शान्ति और सन्तोष? कितना मिला वह तुम्हें अपने उद्योग में?’

‘तुम्हें मिला है वह?’ उन्हें अच्छा नहीं लगा कि यह कंगाल उनका इस प्रकार परिहास करे, ये अपने उद्योग में नितान्त विफल लोग दूसरों का उपहास करके ही सन्तोष करते हैं।

कभी तुम पर कोई संकट आया है? उसने उनके प्रश्न का उत्तर न देकर एक नया ही प्रश्न कर दिया।

संकट किस पर नहीं आता। अब उनके स्वर में उपेक्षा मात्र थी।

कभी तुम्हें संकट पर किसी अज्ञात शक्ति को पुकारना पड़ा है? कभी तुम्हें लगा है कि संकट तुम्हारी बुद्धि या शक्ति से नहीं, किसी अज्ञात के संकेत से दूर हो गया है। वह उपेक्षा का तो सदा का अभ्यस्त ठहरा, कोई नवीनता उसे उपेक्षा में लगी नहीं थी। वह तो अपनी बात अपने ढंग से कहने का अभ्यासी है।

मैं आस्तिक हूँ। भगवान में मेरा विश्वास है। उन्होंने स्थिरतापूर्वक कहा।

सो तो है, लेकिन तुमने कभी यह भी सोचा है कि जीव का अभ्युदय उस भगवान से भी कुछ सम्बन्ध रखता है या नहीं? वह गम्भीर होता जा रहा था।

मुझे धार्मिक अध्ययन का अवकाश नहीं मिलता। उन्होंने यह कहना अपने गौरव के अनुकूल नहीं समझा कि वह इस विषय में उनसे अधिक जानता है।

जो विपत्ति में अकारण हमें सहायता देता है, हमारे अभ्युदय में उसकी सहायता हमें अपेक्षित नहीं होनी चाहिए? वह जो कुछ कहना चाहता है, उसके निकट आता जा रहा हूँ।

उसकी सहायता तो हमें सदा ही अपेक्षित है। अब सहसा उनके स्वर में फिर स्नेह आया। बड़े से बड़ा व्यक्ति भी दुर्बल होता है। संसार तो है ही दुर्बलता का क्षेत्र। जहाँ दुर्बलता है, वहीं दैन्य है और अपेक्षा है। वे जैसे अनुरोध कर रहे हों-तुम मेरे लिए प्रार्थना नहीं करोगे?

माता-पिता से प्रार्थना नहीं करनी पड़ती। शिशु का कल्याण किसमें है, यह वे स्वयं जानते हैं। शिशु के अभ्युदय में वे उसके नित्य सहायक होते हैं। वे मना करें, उधर न जाय ; वे प्रोत्साहित करें, उधर बढ़ने का प्रयत्न करे। शिशु का अभ्युदय तो उनके हाथों में सुरक्षित है। अब की बार उसने अपनी पूरी बात जैसे समाप्त कर दी। उठकर खड़ा हो गया विदा लेने के लिए।

अद्भुत पागल है। उन्होंने रोका नहीं। उनके पास व्यर्थ नष्ट करने को समय नहीं था। उसकी बातें सोचने-समझने के स्थान पर अनेक योजनाएँ थीं और उनमें सफलता प्राप्त करने के लिए तत्काल उन्हें व्यस्त हो जाना चाहिए था। उसे द्वार तक विदा करके वे अपने कार्य में लग गए।

दोनों मित्रों को अपने-अपने मार्ग से जाना ठहरा, दोनों के अभ्युदय के आदर्श भिन्न हो चुके थे अब। दोनों के स्वप्न, किन्तु अब एक के पास तो कोई स्वप्न ही नहीं है। वह कहता है- जो अचानक अज्ञात रहकर भी आपत्ति में मुझे बचा लेता है, मेरा अभ्युदय उसके हाथ में सुरक्षित है। क्या है वह, मैं इस झमेले में नहीं पड़ता। आज या कल, मेरे पिताजी के पास जो है, वह मेरा नहीं है, ऐसा कहने वाला ही मूर्ख है।

पानी का प्रवाह आता है, प्रवाह में पड़ा पत्थर कभी हिलता है, डोलता है, कभी गोल होता है, कभी तट पर पड़कर धूप में गरम हो उठता है। वह घिस-घिस कर गोल हो गया- बस। मन्दिर में आराध्य पीठ पर उसे धरना न धरना, तो धरने वाले की इच्छा। किन्तु अब उसे प्रवाह से कुछ लेना नहीं, तट पर पड़ती धूप में तपते रहने में कुछ बिगड़ता नहीं। वह कहता है-”मैं तो अब गोल-गोल पत्थर हो गया।”

पानी का प्रवाह आता है, पर्वत की बड़ी शिला पर टकराता है। शिला का कण-कण टूटता, गिरता रहता है। घिसती, टूटती, क्षीण होती रहती है शिला। मैं इतने प्रवाह से ऊपर खड़ी हूँ। उसका यह गर्व उसे तृप्त करता हो तो भले करे। लेकिन उसकी दो ही गति हैं-कण-कण टूटकर रेत बन जाना या प्रवाह में लुढ़क कर गोल होने के लिए अपने को छोड़ देना। किसमें अभ्युदय है उसका।

एक के पास स्वप्न हैं। स्वप्न सत्य करने की धुन है। सबके पास स्वप्न होते हैं। सबके स्वप्न सत्य नहीं होते। सबमें वह धुन नहीं होती। लेकिन स्वप्न सभी के पास हैं। जो जैसा है वैसे है उसके स्वप्न। चोर विश्व का सर्वश्रेष्ठ चोर बनना चाहे, तपस्वी विश्व का सर्वोत्तम तपोनिष्ठ होने का विचार करे, कवि विश्व कवि की उपाधि की आकाँक्षा करे-यह तो अब चल ही रहा है। प्रत्येक विषय में रिकार्ड स्थापित करने की प्रतिद्वन्द्विता चल रही है। अभ्युदय है रिकार्ड स्थापित कर देने में?

एक के पास स्वप्न ही समाप्त हो गए हैं। उसे न सुख-सुविधा की बहुत लालसा है, न अभाव-आपत्ति का कोई विशेष भय। वह तो साक्षी हो गया है। उसका कहना है- अभ्युदय तो वह, जहाँ सुख का सागर उमड़-उमड़ कर चरणों में चुप बैठ जाय और दुःख का झंझावात फुँकार मारता-मारता सिर पटक कर स्वयं थक जाय। सुख, शाँति और संतोष अभ्युदय तो बस इनकी पूर्णता में है और वह पूर्णता कुछ मनुष्य के वश की नहीं। वह तो जो नित्य पूर्ण है, उन परमात्मा के ही श्रीचरणों में सुरक्षित है। मनुष्य का तो उन चरणों में अनुराग हो, उनकी ओर प्रीति से देखे-बस हो गया।

आप भी तो अभ्युदय चाहते हैं, कैसा है आपका अभ्युदय। अपने अभ्युदय के विचारों को आप इन दोनों मित्रों में से किसके साथ रखना पसन्द करेंगे?


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