सत्संग में बार-बार त्याग की महिमा का वर्णन आता था। उसे ईश्वर-प्राप्ति का मार्ग बताया जाता था। सुनने वालों में से एक भावुक भक्त जरायुध ने अपनी सारी सम्पदा दान कर दी। फिर भी उन्हें न शान्ति मिली और न ईश्वर प्राप्ति हुई। जरायुध महाज्ञानी शुकदेव के पास पहुँचे और बोले-”जनक तो संग्रही हैं, तो भी उन्हें ब्रह्म ज्ञान हुआ है और मैं सब कुछ त्याग चुका, तो भी शान्ति लाभ न कर सका। इसका क्या कारण है?” शुकदेव ने कहा-”आवश्यक वस्तुओं का परमार्थ प्रयोजन में लगा देना तो नैतिक और सामाजिक कर्तव्य है।
आध्यात्मिक स्तर के त्याग में हर वस्तु का ममत्व छोड़ना और उन्हें ईश्वर की धरोहर समझना पड़ता है। शरीर और मन भी सम्पदा है, उन्हें ईश्वर की अमानत मानकर उसी की इच्छानुसार प्रयुक्त किया जाने लगे तो समझना चाहिए कि सच्चा त्याग हुआ और मोक्ष का मार्ग मिला।”