पूजा का मर्म

October 1996

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सब प्रजाजन उपस्थित हो गए।

श्रीमान की आज्ञा तथा जगतपति के दर्शन के सौभाग्य को कौन अतिक्रमण कर सकता है महाराज? किन्तु..........

किन्तु-किन्तु-परन्तु क्या मंत्रीवर? यह किन्तु क्या? आनर्त महाराज कुछ चंचल एवं उद्विग्न हो उठे। क्या मेरे किसी पूर्व पाप अथवा दुर्भाग्य से भगवान इधर से नहीं पधारेंगे? उन्होंने मार्ग बदल दिया है? आह ! मैं इतना अधम हूँ कि उनके श्रीचरणों में दो पुष्प भी नहीं चढ़ा पाऊँगा।

“आप व्यर्थ व्याकुल होते हैं। भगवान इधर से ही पधार रहे हैं।” हाथ जोड़कर वृद्ध मन्त्री ने कहा। “दूतों ने समाचार दिया है कि प्रभु की मध्याह्न सन्ध्या अपनी ही सीमा में होगी।”

“तब किन्तु क्या?” आश्वस्त होकर महाराज ने पूछा।

“महाराज ! मेरा कुछ और ही अर्थ था। वह सोमपीढ़ बढ़ई........।”

“ओह, वह श्रद्धामय वृद्ध !” महाराज ने मन्त्री को बीच में रोका।

वह सबसे प्रथम प्रभु के श्रीचरणों में अपना उपहार रखना चाहता है। उसे ऐसा कर लेने दो। उन चरणों में राजा और भिक्षुक का भेद नहीं। वहाँ केवल प्रेम ही पुरस्कृत होता है और हमें यह स्वीकार कर ही लेना चाहिए कि वह वृद्ध इस मार्ग में हम सबका नरेश है। उसे सम्मानपूर्वक सबसे पहले पूजन करने दो।

“पर वह आए भी तो श्रीमान् !” मन्त्री ने नम्रता से कहा।

“वह नहीं आया ?” महाराज जैसे आकाश से गिरे।

“जी ! वह नहीं आया और आना चाहता भी नहीं।” मन्त्री ने बहुत ही नम्रता से उत्तर दिया। “मेरे विश्वस्तजनों ने मुझे सूचित किया है।”

“ऐसा हो नहीं सकता।” महाराज के स्वर में विचित्र आश्चर्य था। “मंत्रीवर ! तुम जानते हो उस वृद्ध को ! भगवान के हस्तिनापुर जाने का समाचार पाकर ही वह प्रेमोन्मत्त हो गया था। उसी दिन से उसने मार्ग के तोरण द्वार बनाने प्रारम्भ कर दिए थे। कल मध्य रात्रि तक वह सिंहासन सजाने में लगा था। मेरा तो पूर्ण विश्वास है कि उसी के प्रेम के कारण प्रभु ने इधर से द्वारिका जाना निश्चित किया है।”

“श्रीमान उचित कहते हैं।” मंत्री ने कहा। “उसने कुछ भी पारिश्रमिक हम लोगों के बारम्बार आग्रह करने पर भी ग्रहण नहीं किया है। साथ ही वह इतना श्रम न करता तो यह तोरण द्वार इतना सुन्दर बन भी न पाता।”

“तब वह प्रभु के ठीक आगमन के समय उपस्थित न हो, यह कैसे हो सकता है?” महाराज का गला भर आया था। तुम स्वयं जाकर ले आओ उसे।”

“जो आज्ञा।” राजकीय रथ लेकर प्रधानमंत्री उस बढ़ई को लेने चल पड़े।

कुछ ही देर में रथ वहाँ जा पहुँचा, जहाँ एक फूस की झोपड़ी है। फूस की दीवार और फूस के छप्पर। गोबर से लिपी-पुती स्वच्छ। एक कोने में बढ़ई के औजार समेट कर रखे हैं। एक ओर पुआल पड़ा है और एक केले के पत्ते पर पुष्पों की वनमाला, चावल, चन्दन सजा रखा है। ताँबे के लोटे में सम्भवतः जल होगा।

पूजा का सब उपहार तो सजा है ; पर पुजारी सावधान हो तब न? मंत्री ने रथ उसी झोपड़ी के द्वार पर रोका था। उन्होंने देखा-बूढ़ा भगवन्नाम का स्मरण करता हुआ अपने काम में तल्लीन है। उसके हाथ लकड़ी के टुकड़े पर कारीगरी करने में लगे हैं। नाम स्मरण के साथ हृदय की भावनाएँ रह-रहकर आँखों से छलक उठती थीं।

“आपको महाराज स्मरण कर रहे हैं।” मंत्री के वचनों से उसकी तन्मयता भंग हुई। सकपकाकर उसने दोनों हाथ जोड़ लिए और इस प्रकार मन्त्री के मुख की ओर देखने लगा मानो कुछ सुना ही नहीं।

“श्री द्वारिकाधीश के दर्शनों के लिए आपको ले चलने मैं रथ लेकर आया हूँ। प्रभु पहुँचने वाले हैं।” मन्त्री ने आग्रह किया।

“आपने व्यर्थ कष्ट किया?” वृद्ध की अंजलि बँधी थी और उसके स्वर में अत्यधिक नम्रता थी। “हम इस प्रकार महाराजाओं की भाँति प्रभु के दर्शन नहीं करते।”

“तब किस प्रकार आप दर्शन करेंगे?” मंत्री आश्चर्यचकित था।

“जब वे मेरे द्वार पर आवेंगे- “ वृद्ध ने सरलता से कहा। इस बूढ़े के गर्व पर मंत्री हँसी को रोक न सके। जो राजसूय में प्रथम पूज्य मानेंगे, जो महाराज के आग्रह पर भी राजसदन में आने की प्रार्थना को अस्वीकृत कर चुके हैं। जिनके दर्शन के निमित्त स्वयं महाराज सीमा तक दौड़े गए हैं। वे इस झोंपड़ी के द्वार पर आएँगे? मंत्री को इस गर्व से अरुचि हुई। उन्होंने पीठ फेर ली। पता नहीं उन्होंने सुना भी या नहीं। वृद्ध ने कहा- प्रभु का कथन है- स्वकर्मणा तर्म्यचम सिद्धि विन्दति मानवः। अपने कर्म से उनकी अर्चना करके मनुष्य उन्हें प्राप्त करता है। मैं तो बस यही कर रहा हूँ। यह कहते हुए वह अपने काम में जुट गया।

रथ जैसे आया था, वैसे ही लौट गया।

गरुणध्वज दृष्टि पड़ा। कोलाहल मच गया। सब लोग दौड़े। स्वयं महाराज पैदल पूजा का थाल लिए आगे-आगे बालकों की भाँति दौड़ रहे थे। यह क्या? रथ तो दूसरी ओर मुड़ गया। भगवान उधर कहाँ जा रहे हैं? लोग आश्चर्यपूर्वक उधर ही चलने लगे।

रोको दारुक ! प्रभु ने सारथी को आज्ञा दी और वह चारों कर्पूरगौर अश्व वहीं स्थिर हो गए।

वृद्ध बढ़ई कुछ समझ सके, तब तक तो रथ से कूदकर मयूर मुकुटधारी एक नीलोज्ज्वल ज्योति उसके सम्मुख खड़ी हो गयी। एक ओर मुख ऊपर उठाकर देखा। खड़े होने का अभी तो अवकाश नहीं मिला था। वैसे ही मस्तक उनके श्रीचरणों पर लुढ़क गया।

महाराज, मन्त्री, सामन्त, सेनापति आदि सभी धीरे-धीरे पहुँच गए। सब आश्चर्य से एवं संकोच से प्रभु के रथ के पास ही खड़े थे। दीनबन्धु दीन के द्वार पर खड़े थे और दी उनके श्रीचरणों पर पड़ा था। स्वकर्म से उनकी अर्चना में सतत् तत्पर उन्हें पा चुका था। पूजा की सामग्री केले के पत्ते पर धरी ही रही। उसे छूने का अवकाश एवं स्मृति किसे?

बहुत देर हो गयी। न तो प्रभु हिले और न वृद्ध ! बड़े संकोच से हाथ जोड़कर दारुक ने कहा, “महाभाग ! प्रभु कब से खड़े हैं। पूजा तो कर लो।”

“दारुक ! पूजा तो हो गई! उन कमल नेत्रों से दो बिन्दु उस वृद्ध के मस्तक पर पड़े। जीव-ब्रह्म की एकता से बड़ी पूजा क्या है? वह पूजा तो सचमुच ही हो गयी थी। श्रीचरणों पर वृद्ध का शरीर ही पड़ा था। वह तो श्यामसुन्दर से श्यामसुन्दर से एक हो चुका था।


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