ब्रह्मवादिनी सुलभा अपने परिभ्रमण काल में एक बार राजा जनक से मिलने पहुँची। उनने सुन रखा था कि जनक को अपने ज्ञान का अहंकार हो गया है और वे अपना परिचय देते हुए, समय-समय पर आत्मश्लाघा व्यक्त करते हैं। विनम्रता का ध्यान नहीं रखते। सुलभा से परिचय पूछे जाने पर वे मौन रहीं और राजा से ही अपना परिचय देने को कहा। जब कथन पूरा हो गया, तो सुलभा ने अपना सामान्य परिचय देते हुए कहा- “लक्ष्य की एकता और गुण सम्पदा से परिपूर्ण अपने योग्य वर न मिलने पर उन्होंने सदा ब्रह्मचारिणी रहने का व्रत लिया है और सदा धर्मोपदेश के लिए परिभ्रमण करती रहती है।” किसी का साहस नहीं पड़ा कि उन्हें अकेली देखकर दुर्बुद्धि का परिचय दे।
महाभारत शान्तिपर्व में जनक-सुलभा संवाद बहुत विस्तार से दिया गया है। सुलभा ने वाणी के आठ गुणों और आठ दोषों का वर्णन करते हुए, परोक्ष रूप से जनक की अहमन्यता को निरस्त करने का प्रयत्न किया। जनक संकेत समझ गये और भविष्य में उन्होंने विनयशीलता का सम्भाषण में अधिकाधिक समावेश किया।