सूक्ष्म शरीर-प्रकाश शरीर

October 1996

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श्रीमती जे. सी. ट्रस्ट ने एक ऐसे व्यक्ति को चुना , जो छोटी-छोटी बातों में उत्तेजित हो जाता था। वह दिन में कई बार क्रुद्ध हो जाने के कारण बहुत दुबला पड़ चुका था, सर्दी-गर्मी के हलके परिवर्तन भी उसकी कष्टदायक प्रतीत होते, उसे कोई न कोई बीमारी प्रायः बनी रहती थी।

एक बार जब वह गुस्से में था, तब श्रीमती ट्रस्ट ने उसे लिटा दिया और उसके नंगे शरीर पर बालू की हलकी परत बिछा दी। उनके शिष्य, अनुयायी और कई वैज्ञानिक भी उपस्थित थे। उन सबने बड़े कौतूहल के साथ देखा कि जिस प्रकार पानी की भरी काँसे की थाली को बजाने से पानी की थरथरी काँसे के अणुओं में उत्तेजन और स्पंदन का आभास कराती है, उसी प्रकार मनुष्य के शरीर से भी प्रकाश अणु निरंतर निसृत होते रहते हैं।

क्रोध जैसे उत्तेजनशील आवेश के समय यह प्रकाश अणु बड़ी तेजी से थरथराते हुए निकलते हैं। जो व्यक्ति जितना अधिक शाँत, कोमल चित्त, मधुर स्वभाव, मितभाषी, स्थिर बुद्धि होता है, उसके सूक्ष्म शरीर के प्रकाश अणु बहुत समय तक शरीर में उष्णता, शक्ति और सहनशीलता बनाये रखते हैं।

रसायनविज्ञ रोमेल ने भी इस तथ्य को एक प्रयोग द्वारा सिद्ध करके दिखा दिया कि शरीर में निरंतर विद्युत चुम्बकीय उर्मियाँ (कम्पन) निकलती रहती हैं और मानव अणुओं को बाहर निकालते रहते हैं। शरीर से जीवन अणुओं कास निकलना एक वैज्ञानिक सिद्धान्त है। उसकी अपेक्षा महत्वपूर्ण जानकारी है, शरीर में पहले से व्याप्त इन प्रकाश अणुओं में से धूमिल मटमैले, गन्दे संस्कारों वाले प्रकाश अणुओं के स्थान पर दिव्य अणुओं का विकास। यदि इस विकास प्रक्रिया को कोई जान ले तो संसार को अद्भुत विद्या के शक्तिमयी रहस्य को हस्तगत कर सकता है। किसी के कष्ट निवारण छाया शरीर का नियंत्रण, परकाया प्रवेश और समाधि अवस्था में सुदूर प्रान्तरों एवं ग्रह’-नक्षत्रों में विचरण सब इसी विद्या की शाखाएँ हैं। बाइटल फोर्स के रूप में प्रकाश अणु निःसृत होकर श्वास-प्रश्वास के माध्यम से शरीर में प्राण शक्ति का कार्य करता है।

परकासनी (इन्फ्रारेड) विकिरण तो शरीर में पर्याप्त भीतर ही भीतर बिखर जाती है। मनुष्य की त्वचा एक मिलीमीटर गहराई तक इन किरणों को सम्प्रेषित करती रहती है। काली चमड़ी वालों में यह प्रकाश-कण सोखने की क्रिया धीमी होती है। फिर यही तथा विद्युत चुम्बकीय तरंगें स्नायु सूत्रों तथा विद्युत चालकों प्रोटानों के माध्यम से शरीर के सभी कोनों में फैल जाते हैं।

शरीर के दूसरे अवयव जैसे- कोशिकाओं, रक्त, माँस मज्जा, काँर्टिक्स तथा स्नायु सूत्रों में भी प्रकृति की अन्य वस्तुओं की भाँति कई प्रकार के विकिरणों को ग्रहण करने, परिवर्तन, शोषण, सम्प्रेषण तथा पुनः विकिरण करने को भी क्षमता होती है। प्राणायाम द्वारा प्राणों का नियंत्रण और योगाभ्यास द्वारा उन शरीर संस्थानों को जाग्रत कर जो प्राण-शक्ति को आकाश में से बहुतायत से खींच सकते हैं।

इस प्रमाण के लिए रूसी खगोल शास्त्री श्री चिटोव्स्की को भारी तप करना पड़ा। इनके अनुसार सूर्य आदि की चमक और उसके 11 वर्षीय सन स्पाट्स से मनुष्य की मनोदशा से गहरा सम्बन्ध है। इसका सम्बन्ध जिन थाइराइड एड्रीनल और पिट्यूटरी ग्रंथियों से है। वे सब नलिकाविहीन होती हैं। इन अंतःस्रावी ग्रन्थियों में प्राण का प्रवाह इस प्रकार होता है जिस प्रकार तार में विद्युत कण। जैसे-जैसे यह प्रकाश कण होते हैं, वैसे-वैसे भाव उठते हैं। सूर्य की तेज धूप में क्लान्ति, क्रोध, वीरता जैसे भाव आते हैं तो चन्द्रमा के प्रकाश में आह्लाद और शीतलता के। अब यदि कोई व्यक्ति अपना ध्यान किसी प्रकाश स्रोत पर लगाता है तो इसका अर्थ यह हुआ कि हमारी नलिका विहीन ग्रंथियाँ उस स्रोत विशेष से विद्युत चुम्बकीय सम्बन्ध स्थापित कर लेती हैं और वह कण तेजी से हमारे अंदर भरने लगते हैं।

उदाहरण के लिए गायत्री उपासना के साथ सूर्य का ध्यान भी करना पड़ता है। ध्यान की अवस्था में सूर्य के विद्युत-चुम्बकीय प्रवाह से अपने मस्तिष्क की चोटी वाले स्थान से नलिका विहीन ग्रंथियों का संबंध जुड़ जाता है और सूर्य के तेज कण हमारे शरीर ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी होता चला जाता है। जिस दिन शरीर के सभी प्रकाश अणु बदल जाते हैं उसी दिन साधक गायत्री सिद्ध या सूर्य की सी गति वाला हो जाता है।

इस तरह सुँदर, शुद्ध स्थान में रहकर, महापुरुषों व देवस्थानों के संपर्क में आकर, प्राणायाम-प्रत्याहार आदि के द्वारा तथा जप और ध्यान के माध्यम से साधक प्रकाश अणुओं या प्राण शरीर पर नियन्त्रण करना व विकास करना ही सीखता है। इस तरह वह शक्तिशाली बनता व महान् जीवनोद्देश्य पूरा करता है।


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