दीनबन्धु ऐंड्रूज में विश्व−मानवता के प्रति प्रेमभावना, माँ की प्राणिमात्र के प्रति करुणा के कारण विकसित हुई थी।
“माँ देखना, मैं कितनी अच्छी चीज लाया हूँ।”
“अरे, यह क्या ले आया। यह तो किसी चिड़िया के अण्डे हैं। मुझे ऐसा लगता है कि तू चिड़िया के तीनों अण्डे उठा लाया है। जब वह अपने घर लौटेगी, तो बहुत रोयेगी बेटा।”
“अच्छा माँ! यह चिड़िया के अण्डे हैं। मुझे क्या मालूम था?” वह बालक लंगड़ाते-लंगड़ाते उस पेड़ तक गया, क्योंकि चोट के कारण उसके पैर में दर्द हो रहा था। वह पेड़ पर चढ़ा और उसने सब अण्डे उसी घोंसले में रख दिये और पेड़ के नीचे बैठा तब तक रोता रहा, जब तक कि वह चिड़िया पेड़ पर न आ गयी। चिड़िया को देख कर, उसका सारा दर्द जाने कहाँ चला गया और हँसता-कूदता अपनी माँ के पास लौट आया। यह बालक और कोई नहीं, वरन् दीनबन्धु ऐंड्रूज थे, जो जीवनभर दीनों को अपना भाई समझकर प्यार करते रहे। माँ के दिये यह संस्कार जीवन भर उनकी अमूल्य थाती बन कर रहे।
काशी में अध्ययन कर देवदत्त शास्त्री लौटे, तो अपने यहाँ के नरेश के पास गये। उनसे प्रस्ताव रखा-मैं आपको गीता का भाष्य सुनाना चाहता हूँ। नरेश ने नम्रतापूर्वक कहा-”आप कृपया घर जाएँ। सात बार गीता और पढ़ें, फिर आयें। तब मैं आपका भाष्य सुनूँगा।” शास्त्री जी पहले तो क्रुद्ध हुए। घर जाकर पत्नी से परामर्श किया, तो उनने कहा-”क्या हर्ज है, राजा ने कहा है तो पाठ कर लें, फिर जाएँ।” अतः वे पढ़ने लगे। पढ़कर राजा के समीप पहुँचे। इस बार फिर नरेश ने सात बार पढ़कर आने को कहा। घर गये, तो पत्नी ने फिर समझाया- “राजा भी विद्वान हैं, उनके कथन में कोई गूढ़ अभिप्रायः सम्भव है।” शास्त्रीजी नित्य एकान्त में पुनः गीता पढ़ने लगे। तीसरे दिन सहसा उनका ध्यान गीता के तत्त्वज्ञान की ओर गया। उसके बोध से प्रशिक्षण पाकर भीतर उमड़ने वाले आनन्द-प्रवाह से वे विभोर हो उठे। पछताये कि गीता भी कोई व्याख्या की वस्तु है, यह तो समझने और जीने की प्रक्रिया है, दिशा है। भला इस कामधेनु को भी यों बेचना चाहिए-दरबार में। महीने बीत गये। शास्त्रीजी को राजा के यहाँ जाना अनावश्यक लगा। तभी नरेश एक दिन उन्हें खोजते आ पहुँचे। चरणों में शीश झुकाकर बोले- “अब आप गीतामय हो गये हैं। मुझे कृतार्थ करें गीता सुनाकर, क्योंकि अब आपके मुख से सचमुच गीता का तत्त्वज्ञान निकलेगा।”