क्रोधित होने से पहले यह भी सोचें

October 1996

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क्रोध का कारण बताते हुए गीता में कहा गया है, “कामात् क्रोधोऽभि-जायते।” कामनाओं में विक्षेप उपस्थित होने पर उस विक्षेप के कारण के प्रति क्रोध उत्पन्न होता है। तीन-चार महीने के बच्चे को यदि कोई थप्पड़ मार दे तो उस थप्पड़ की पीड़ा से वह रो तो उठेगा, किंतु उठे हुए हाथ और स्वयं की पीड़ा का अंतर सम्बन्ध उसे ज्ञात नहीं रहता, इस हाथ से थप्पड़ मारे जाने के कारण मुझे पीड़ा हो रही है, यह जानकारी उसे नहीं रहती, इसलिए उसके रुदन में क्रोध का आवेग नहीं रहता। इस प्रकार क्रोध, दुःख, कष्ट के कारण के बोध से उत्पन्न होता है। अपनी हानि या दुःख का कोई कारण उपस्थित होने पर क्रोध का आवेग पैदा हो जाता है। अपने मनोरथों को विफल कर सकने वाले अभीष्ट प्राप्ति के मार्ग में बाधक का स्पष्ट परिचय पाकर क्रोध उदित होता है। यह क्रोध का सामान्य स्वरूप हुआ।

किन्तु मनुष्य की कोई भी प्रतिक्रिया सरल, यंत्रवत् नहीं होती। इसलिए क्रोध के स्वरूप और उसकी अभिव्यक्ति के ढंग, दोनों में बहुतेरी भिन्नताएँ होती हैं।

क्रोध मस्तिष्क में उभर पड़ने वाला एक आवेग विशेष है। मस्तिष्कीय संरचना कुछ ऐसी है कि जिस भी आवेग का उसमें बार-बार उदय हो, उसके संस्कार गहरे होते जाते हैं और फिर वह आवेग स्वभाव का एक अंग बनता जाता है। एक ही बाधक विषय वस्तु के प्रति दो लोगों की प्रतिक्रिया भिन्न-भिन्न होती है-एक क्रोध से लाल-पीला होकर मरने-मारने पर उतारू हो जाएगा, दूसरा उस बाधा के निवारण का गंभीर प्रयास प्रारंभ कर देगा। यह भिन्नता मस्तिष्क में पड़ गये संस्कारों की ही है। असफलता प्राप्त होने पर जब क्रुद्ध होने की ही प्रवृत्ति दृढ़ हो जाती है, तो फिर यह क्रोध उस बाधक तत्व के प्रति ही सीमाबद्ध नहीं रहता, अपितु संपर्क में आने वाले लोगों से अकारण क्रुद्ध व्यवहार का प्रेरक बन बैठता है।

मन की जटिलताएँ भी मनुष्य के क्रोधी स्वभाव का कारण होती हैं। मनुष्य अपनी मानसिक जटिलताओं में उलझा, उद्विग्न रहा आता है और यह उद्वेग जिस-तिस पर क्रोध बनकर बरस पड़ता है।

इस प्रकार मोटेतौर पर क्रोध के तीन प्रकार गिनाए जा सकते हैं। प्रथम कामना पूर्ति में अवरोधक बाधक विषय के प्रति क्रोध, जो बाधक को हानि पहुँचाने की भावना से जुड़ा रहता है। दूसरा असफलता से क्रुद्ध मनःस्थिति में संपर्क में आए अन्य व्यक्तियों पर कारणवश या अकारण ही व्यक्त होने वाला क्रोध। तीसरा लम्बे अभ्यास से व्यसन-सा बन चुका क्रोध, जो स्वभाव का स्थायी अंग बन जाता है।

पहले प्रकार का क्रोध लोक-व्यवहार में सर्वाधिक स्वाभाविक माना जाता है। सामाजिक जीवन में उसे एक तरह की स्वीकृति प्राप्त है। किन्तु क्रोध एक विचार मात्र नहीं है, वह एक भावावेग है। उसका सम्पूर्ण शरीर संस्थान और मनःसंस्थान पर प्रभाव पड़ता है। प्रथम तो बाधक को हानि पहुँचाने की जो भावना है वह भी परिणाम में अपने पक्ष में कभी-कभार ही जा पाती है। सम्भव है जिसे हानि पहुँचाने का प्रयास किया जा रहा है, वही कल भिन्न अवसर पर अपने लिए उपयोगी सिद्ध हो। हमारी कामना पूर्ति में वह बाधक बनता दीख रहा है, किन्तु कल को वही कामना ही महत्वहीन लग सकती है और किसी अधिक महत्वपूर्ण कामना में आज का बाधक सहायक के रूप में आ सकता है।

इससे भी बड़ी बात यह है कि क्रोध में दुःख या हानि के कारण को नष्ट कर देने की या क्षतिग्रस्त कर देने की भावना इतनी तेजी से उमड़ती है कि अपनी भूल या दोष की ओर तो ध्यान नहीं ही जाता,जो करने जा रहे हैं, उसके परिणाम का भी विचार नहीं आ पाता। ऐसी स्थिति में कई बार पूर्व में हो गई हानि के साथ ही क्रोध में किए गये कामों से और बड़ी हानि हो जाती है।

क्रोध मन को उत्तेजित और खिंची हुई अवस्था में रख देता है, इससे शरीर में भी तनाव आ जाता है। रक्त संचालन तीव्र हो उठता है और अनावश्यक गर्मी शरीर में आ जाती है। विचार शक्ति शिथिल हो जाती है। तीव्र रक्त संचालन से चेहरा तमतमा उठता है, ओठ फड़कने लगते हैं, आँखें लाल हो उठती हैं। भीतरी अवयवों पर भी ऐसा ही अनिष्ट और दूषित प्रभाव पड़ता है। हृदय स्पंदन तेज हो जाता है, आँतों का पानी गर्मी से सूखने लगता है। पाचन क्रिया शिथिल पड़ जाती है, रक्त में एक प्रकार का विष उत्पन्न हो जाता है, जो जीवनी-शक्ति को क्षीण कर देता है। एड्रीनल ग्रंथियों से क्रोध की स्थिति में जो हार्मोन्स स्रवित होते हैं वे रक्त के साथ मिलकर जिगर में पहुँचते हैं और वहाँ जमे ग्लाइकोजन को शर्करा में बदल देते हैं। यह अतिरिक्त शक्कर शरीर पर विघातक प्रभाव डालती है। इस प्रकार क्रोध से बाधक तत्व को हानि हो या नहीं, अपनी हानि अवश्य होती है। क्रोध के कारण तो कोई क्षति कभी-कभार होती है, क्रोधी व्यक्ति की स्वयं क्षति हर बार होती है।

फिर कामनाएँ भी बहुरंगी होती हैं। किसी की प्रत्येक कामना की पूर्ति असंभव तो है ही, अनुचित भी है, क्योंकि उनमें से कई दूसरों की कामनाओं के विरुद्ध होती है। किसी एक की सब कामनाएँ पूरी हो जाने का वरदान यदि मिल जाए, तो उसमें अनेकों की अनेक कामनाएँ विफल होने का शाप भी सम्मिलित समझना चाहिए। इसलिए अपनी प्रत्येक कामना की पूर्ति को आवश्यक मानने और उसमें बाधा उत्पन्न होते ही क्रोध से भड़क उठने की मनःस्थिति को अपरिपक्व और क्षुद्र कहा जाएगा। फिर उस क्रोध की प्रतिक्रिया में औरों का भी क्रोध भड़क उठने की सम्भावना और उस सम्भावना के परिणामों का सामना करने को भी तैयार रहना चाहिए।

क्रोध के अधिकांश कारण तो अत्यन्त सामान्य व छोटे होते हैं। कई बार तो वे सर्वथा आधारहीन ही दिखाई पड़ते हैं। ऐसे भी समाचार सुनने में आते रहते हैं कि किसी छोटी-सी बात पर क्रोधावेश में आकर मरने तक पिटाई कर दी। यह अविवेकी क्रोध और उन्मत्त अहंकार के स्वाभाविक किंतु भयंकर परिणाम हैं।

ऐसे घातक परिणामों को लक्ष्य कर ही यह कहा गया है कि क्रोधी ‘अन्धा’ होता है। वह केवल उस ओर देखता है, जिसे वह दुःख का कारण या अपनी कामनाओं का बाधक समझता है। उसका नाष हो, उसे हानि, दुःख, कष्ट पहुँचे, यही क्रोधी का लक्ष्य होता है। वह लक्ष्य भी पूरा नहीं हो पाता, क्योंकि क्रोध एक अति वेगवान मनोविकार है। सोचने-विचारने का समय वह मस्तिष्क को देता ही कब है। वह तो आँधी-तूफान की तरह पूरे मनोजगत पर सहसा छा जाता है और अनर्थकारी कार्य सम्पन्न करने के बाद ही हटता है। इसीलिए तो ऋषियों ने कहा है-

यषसस्त पसष्चैव क्रोधो नाषकरः परः ।

अर्थात् मनुष्य द्वारा बहुत प्रयत्नों से अर्जित यश और तप को भी क्रोध नष्ट कर डालता है।

यह तो बाधक तत्व को हानि पहुँचाने की उत्तेजना उत्पन्न करने वाले क्रोध के दुष्परिणाम हैं। जब क्रुद्ध मनः-स्थिति में संपर्क में आए अन्य व्यक्तियों के प्रति रोषपूर्ण व्यवहार किया जाता है, तब वह तो सर्वथा अनुचित एवं अन्यायपूर्ण होता है। उसका परिणाम भी अधिक हानिकारक होता है। जिसे यों अकारण अपमानित किया गया है, उसके मन में अपमान का यह शूल निरन्तर चुभता रहता है और उसका परिणाम हर प्रकार से अशुभ ही होता है। आफिस से बिगड़कर आया ऑफिसर या क्लर्क पत्नी को पीटकर एवं बच्चों से नाराज होकर पारिवारिक सुख में आग लगाता है। बाहर का क्रोध घर के नौकर पर उतारने वाले, क्षुब्ध नौकर द्वारा छिपकर की जाने वाली चोरी, लापरवाही वह क्षति को भोगते हैं। क्रुद्ध मनःस्थिति में मित्रों, परिचितों से दुर्व्यवहार करने वालों को मैत्री सुख और परिचितों की सहानुभूति से वंचित रहना पड़ता है। साथ ही निंदा व तिरस्कार भी सहना पड़ता है।

क्रोधी मनुष्य दूसरे के समर्थ-शक्तिशाली होने पर जब अपने मन्तव्य में सफल नहीं हो पाता, वो वह स्वयं अपने ऊपर वैसी ही क्रिया करने लगता है, जो वह दूसरों को हानि पहुँचाने के लिए करने की सोच रहा था।

अनौचित्य को देखकर उत्पन्न होने वाले विवेक नियंत्रित क्रोध की बात भिन्न है। भारतीय मनीषियों ने इसे मन्यु की संज्ञा दी है तथा दिव्यता का अंश बताया है। सामाजिक जीवन में वैसे क्रोध की जरूरत बराबर पड़ती है, उनमें दया, विवेक आदि उत्पन्न करने में बहुत समय लगता है और तब तक वे अत्यधिक अनर्थ कर चुके होते हैं। लोक कल्याणकारी क्रोध की, मन्यु की बात भिन्न है। उस क्रोध का जन्म उद्वेग-उत्तेजना से नहीं, विवेक-विचार से होता है। जनसामान्य के क्रोध में प्रतिकार और परपीड़न की ही उग्रता होती है। क्रोध का मन के दूसरे विकारों से घनिष्ठ सम्बन्ध है। अस्थिरता, क्षणिकता, कुण्ठा, उद्वेग, अहंकार, असहिष्णुता आदि उसके सहचर है। चिड़चिड़ापन कमजोर व्यक्तियों में उत्पन्न होने वाला क्रोध-आवेश ही है।

सात्विक आहार, प्रसन्नता एवं शाँत विचारों से क्रोध को जीता जा सकता है। क्रोध की बाह्य अभिव्यक्ति दबाकर मन ही मन लम्बे समय तक सुलगते रहना ही ‘बैर’ है। यह बैर क्रोध से भी भयंकर हानियाँ उत्पन्न करता है।

जब कभी क्रोध उमड़े तो एक प्रयोग कर देखना चाहिए। क्रोध का उभार होते ही चुपचाप कमरे में चले जाएँ और दर्पण में अपना चेहरा देखें। आप स्वयं देखेंगे कि चेहरे पर आयी तमतमाहट ने सौंदर्य को तनिक भी बढ़ाया नहीं, कम ही किया है। मुँह फीका पड़ गया है, जैसे तेज ज्वर चढ़ा हो। थोड़ी देर टहलने के बाद या तत्काल ही पानी से मुंह धोए और पोंछ कर फिर शीशे के सामने खड़े हों। पहले चेहरे और अब के चेहरे में अंतर स्पष्ट दिख जाएगा। क्रोध से बचकर मुसकराहट लाने का प्रयास जारी रखें। क्रोध को दूर से ही नमस्कार कर लें।

क्रोध सदैव जल्दबाजी का परिणाम होता है। जब कोई गलत कार्य होता दिखे या कोई हानि हो जाए, तो उसके कारण का निश्चय करने में जल्दबाजी न करें। स्मरण करें कि पहले विचारक्रम में बहुधा कारण खोजने में चूक हो जाती है। अतः अनुचित या हानिप्रद कार्य के घटनास्थल से इधर-उधर हट जाएँ, किसी सुरम्य उद्यान में टहलें या किसी प्रियजन के पास पहुँच जाएँ। उससे स्नेहपूर्ण बात करें। कुछ न हो सके तो एक गिलास ठण्डा पानी पिएं और क्रोध को शाँत करें। इस आवेग को भड़कने देने में घाटा ही घाटा है। शमित करने में लाभ ही लाभ है। इसलिए विश्व के समस्त धर्मशास्त्रों और नीति ग्रंथों में क्रोध को विनाशकारी अतः त्याज्य ही ठहराया गया है।


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