जगज्जननी-आद्यशक्ति-सजलश्रद्धा को समर्पण

February 1995

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किसी भावप्रवण कवि ने मातृ सत्ता के प्रति अपने उद्गार व्यक्त करते हुए लिखा है-

देवि! तू ही है परम पुरुष या, अतुल, अगम्य, वीर्य पुरुषार्थ। शक्ति रूप है, शक्तिमान या, प्रेय स्वार्थ या तू परमार्थ?॥

जो भी तू है पर या अपरा, यह तू है या वह अभिराम। तुझ को तेरे शिशु अबोध का, देवि! देवि! शतकोटि प्रणाम॥

वस्तुतः शक्ति के रूप में भगवत् सत्ता की आराधना अनादिकाल से होती आयी है तथा ‘वेदोक्ततस्मिह्न तस्थुभुर्वनानि विष्वा’ के माध्यम से इसी आद्यशक्ति की इस संसार का आधार होने की बात बारंबार दुहराई जाती रही है।

ऋग्वेद में मंत्र दृष्टा ऋषि से बारंबार पूछा जाता है-’कस्मै देवाय हविषा विधेम?’ तो ऋषि उत्तर देते हैं-’हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे, भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। स दाधार पृथिवी द्यामुते माँ कस्मै देवाय हविषाविधेम्॥’ अर्थात् आरंभ में प्रजापति हुए जो समस्त भूतों के पूर्वज एवं स्वामी थे। वे अपनी शक्ति से पृथ्वी और आकाश को धारण करते हैं हमें चाहिए कि उन्हीं की स्तुति और पूजा करें। इन्हीं देवाधिदेव को ऋग्वेद में कहीं ‘द्यौ’-पिता कहा गया है तथा कहीं मातृ रूप में ‘अदिति’ कहा गया है। यही उल्लेख करते हुए ऋग्वेद (2-6-17) में तथा स्वर्ग और भूलोक के बीच का जो द्युलोक (अंतरिक्ष) है, वहाँ भी विद्यमान है। वह समस्त देवताओं की जननी है और चराचर भूतों को रचने वाली है। सबकी पिता एवं रक्षक भी वही है। वह स्रष्टा और सृष्टि दोनों ही है। अपने उपासकों की आत्माओं को वह अनुकंपा द्वारा पापों से मुक्त कर देती हैं। वह अपनी संतान को देने लायक सब कुछ दे डालती है। वह सभी देवताओं और दिव्य आत्माओं के विग्रह में निवास करती हैं। भूत एवं भव्य सब कुछ उसी का रूप है। वही सब कुछ है।’

ईश्वर की-आद्यशक्ति के रूप में व्याख्या केवल वैदिक संस्कृति की विशेषता है एवं यही कारण है कि हमारे यहाँ मातृसत्ता को ईश्वर समान माना गया है। जब हमें इस बात की अनुभूति होने लगती है कि प्रकृति अथवा ईश्वर का नारी रूप ईश्वर के व्यक्त स्वरूप का ही एक अंश है और विराट पुरुष अथवा परमात्मा के पुरुष रूप से सर्वथा अभिन्न है, तब यह बात हमारी समझ में आ जाएगी कि ईश्वर इस जगत की रचना अपने अंतस् से करता रहता है। संसार के सभी पदार्थ और शक्तियाँ उसके विराट शरीर में ही विद्यमान रहती हैं, बाह्य उपादानों की उसे आवश्यकता नहीं पड़ती।

‘हे शिवे! तुम्हीं परब्रह्म परमात्मा की परा प्रकृति हो और तुम्हीं से सारे जगत की उत्पत्ति हुई है, तुम्हीं विश्व की जननी हो।’ इस शास्त्र वर्णन द्वारा उस शक्ति की महिमा का हम गान करते हैं जो हम सबकी उत्पत्ति व पोषण का मूलकारण है। जगदंबा की यही शक्ति सारी सृष्टि को विकास के पूर्व अपने उदर में रखती है। वही ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर की जननी है, वही समस्त क्रियाओं का मूल है। वही आदि शक्ति जगदंबा ऋग्वेद के दशम मंडल के 125 वें सूक्त में कहती है-’मुझ पर किसी का प्रभुत्व नहीं। मैं पृथ्वी और आकाश से परे हूँ। अखिल विश्व मेरी विभूति है। मैं अपनी शक्ति से यह सब कुछ हूँ।’ यही जगज्जननी जिस के अंदर हम जीवन धारण करते हैं, चलते फिरते हैं और अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं, हम सबकी आराध्य है।’

परम वंदनीय माता जी की स्मृति में यह विशेषांक लिखते हुए सतत् इस आद्यशक्ति का स्मरण आता है व लगता है कि शक्ति का लीला संदोह कितना अद्भुत है जो दृश्य रूप में तो समझ में नहीं आता, अनुभूति उसकी सतत् होती है, किंतु अब स्थूल में न दीख पड़ने पर भी वह और भी व्यापक विस्तार में अपना कार्य करती जब सूक्ष्म दृगों से नजर आती हैं तब ज्ञात होता है हम किस महान शक्ति स्रोत से जुड़े थे व अब भी जुड़े रहकर सतत् पाने के अधिकारी हैं यदि उसकी महत्ता व निजी गरिमा को समझ सकें। परम पूज्य गुरुदेव ने स्थान-स्थान पर शक्ति की आराधना की बात लिखी है व गायत्री महाविद्या द्वारा अशक्ति से मुक्ति, अविद्या से मुक्ति, अभावों से मुक्ति का जो वर्णन किया है उसका उनने देवीभागवत व बाद में ‘कुँडलिनी महाशक्ति व उसकी संसिद्धि’ प्रकरण में बड़ी विस्तृत व्याख्या की है। वस्तुतः शक्ति एक ही है। साकार भाव को प्राप्त परब्रह्म की ही मूर्ति देवी भाव में स्थित होकर सीता, राधा, सरस्वती, लक्ष्मी, महेश्वरी आदि विविध रूपों में विभिन्न उपासकों के द्वारा आराधित होती हैं। रामकृष्ण परमहंस ने उसी को काली के रूप में पूजा था व उसी के दर्शन अपने प्रिय शिष्य नरेन्द्रनाथ दत्त को कराकर साक्षात आद्यशक्ति के दर्शन कराये थे। श्री अरविंद ने महत्चेतना के रूप में सुपर चेतन जगत में विद्यमान सत्ता से अवतरित हो रही सावित्री महाशक्ति के रूप में उसी आद्यशक्ति की व्याख्या की एवं श्री माँ के माध्यम से उसका बहिरंग जगत को अवलोकन कराया। परम पूज्य गुरुदेव शाक्तमत के प्रचारक थे या किसी और सिद्धाँत के, इस विवाद में न पड़ कर हम यही विचार करें कि उन्होंने हमारे समक्ष आद्यशक्ति का मातृस्वरूपा एक जाज्वल्यमान रूप रखा जो स्नेह, ममत्व, करुणा, पोषण लालन-पालन, सुधार-दुलार सभी का समन्वित रूप बन माता भगवती देवी के रूप में हम सबके बीच में आयीं। गायत्री महाशक्ति एक मंत्र छंद के रूप में वेदों में विद्यमान हैं, यदि मानें तो उनमें किन गुणों को देखें, यह उनने परम वंदनीय माताजी के रूप में साक्षात् प्रतिबिंबित कर दिखाया।

सभी जानते हैं कि शक्ति के दो परस्पर विरोधी रूप होते हैं। एक रूप ‘विद्या’ का जो ईश्वरोन्मुख स्वरूप होता है, जिसे संस्कृत में ‘विद्या’ कहते हैं तथा दूसरा संसार प्रधान जिसे संस्कृत में ‘अविद्या’ कहते हैं। पहली मोक्ष और आनंद देने वाली है और दूसरी बंधन और दुःख का कारण है। दूसरी का आवरण पहली पर चढ़ा रहता है। उसे हटाकर ही शक्ति के वास्तविक स्वरूप को देखा जा सकता है। जगज्जननी के उपासक यही कहते हैं कि ‘हे देवि! हम तुम्हारी अविद्या शक्ति से मोहित होकर तुम्हें भूल जाते हैं और संसार के तुच्छ पदार्थों में सुख का अनुभव करने लगते हैं। परंतु जब हम तुम्हारी पूजा करते हैं, तुम्हारे प्रति अपनी श्रद्धा आरोपित करते हैं तुम्हारी शरण आ जाते हैं तब तुम हमें अज्ञान से एवं संसार की आसक्ति से मुक्त कर देती हो और अपने विराट परिवार के बच्चों को सुख-शांति प्रदान करती हो।’

विद्या और अविद्या शक्ति के इन दो आयामों को समझ कर बहिरंग ‘अविद्या’ वाले स्वरूप से नहीं, विद्या वाले स्वरूप को भली भाँति समझ कर यदि शक्ति को समर्पण किया जाय तो वह सब मिल सकता है जो पाषाण की मूर्ति में विद्यमान महाकाली से परमहंस को मिला। वास्तविकता यही है कि मातृशक्ति रूपी देवी सत्ता के प्रति श्रद्धा जिसकी जिस परिमाण में हुई उसे उसी अनुपात में मिलता चला गया परम पूज्य गुरुदेव ने अगस्त 19779 के अपने ‘प्रज्ञावतार अंक’ में स्पष्ट लिखा है कि ‘युगशक्ति का अवतरण श्रद्धा और विवेक के संगम के रूप में होने जा रहा है। अगले दिनों मनुष्य की सबसे बड़ी संपदा एवं उपलब्धि ऋतंभरा प्रज्ञा मानी जाएगी। ऋतंभरा वह जिसमें विवेक और श्रद्धा का समुचित समावेश हो।’ इसमें ‘श्रद्धा’ की परिभाषा करते हुए उनने कहा है कि ‘श्रद्धा उस आस्था का नाम है जो उत्कृष्ट आदर्शवादिता को अत्यधिक प्यार करे और उस स्तर के चिंतन तथा कर्तृत्व से भाव भरे रसास्वादन का आनंद प्रदान करे।’ विवेक और श्रद्धा का जहाँ जितना सम्मिश्रण होता है, वहाँ उतनी ही महानता दृष्टिगोचर होती है। उसी उपलब्धि के सहारे सामान्य परिस्थितियों में जन्मे, पले व्यक्ति भी ऐतिहासिक महामानवों की भूमिका निभाते और विश्व निर्माण में ऐतिहासिक भूमिका निभाते चले जाते हैं।

परम पूज्य गुरुदेव ‘प्रखरप्रज्ञा’ के, विवेक के, बुद्धि के उत्कृष्टतम स्तर के प्रतीक के रूप में, अवतारी सत्ता के रूप में, हम सबके बीच में आए। परमवंदनीय माताजी ‘सजलश्रद्धा’ के रूप में, शक्ति के स्वरूप में हम सबके बीच उनकी पूरक सत्ता के रूप में आयीं। दोनों के सम्मिलित पुरुषार्थ से प्रज्ञावतार की युगाँतरीय चेतना ने जन्म लिया तथा सर्वप्रथम सुसंस्कारिता के जागरण, तत्पश्चात् संकल्पशक्ति व साधना समर्पण के माध्यम से देव संस्कृति विस्तार की प्रक्रिया के निमित्त गीता के अठारह अध्याय की तरह अठारह दिग्विजयी पुरुषार्थ अश्वमेधों के रूप में दो वर्ष की अवधि में संपन्न हो गए। यही शक्ति का प्राकट्य है जो पहले स्पष्ट दिखाई नहीं पड़ता, फिर अपनी शक्ति का झंझावाती आभास देकर सूक्ष्म में विलीन हो और प्रखर-शक्तिशाली रूप में दृष्टिगोचर होने लगता है।

परमवंदनीय माताजी के प्रति पूज्यवर के जो विचार थे, वे स्थान-स्थान पर इस विशेषांक में परिजन पढ़ेंगे किंतु सबसे बड़ी उपमा जो उन जैसी महाकाल की सत्ता ने उन्हें सतत् दी है वह है ‘सजलश्रद्धा’ रूपी शक्ति की, जिनसे उन्हें युग परिवर्तन का कार्य कर सकने की ऊर्जा मिली। यह कृतज्ञता ज्ञापन मात्र नहीं, संक्षिप्त परिचय है उस आद्यशक्ति का जो हम सबके बीच आयीं, सीमित अवधि की सामान्य-सी दीखने वाली असामान्य जीवनचर्या को जीती हुई देखते-देखते हमारे बीच से ओझल हो गयीं। यदि हम उनके सही रूप को समझ पाये तो महाकाल के सहचर महाकाली के रूप में उन्हें समझना होगा। एक ही पुरुष महाकाल पुरुष की दस शक्तियों में सर्व प्रसिद्ध प्रथम स्थान पर महाकाली का नाम है। अर्धनारीश्वर की उपासना का मौलिक रहस्य इसी तत्वज्ञान में छिपा है कि हम उन्हें एक दूसरे का पूरक मानें तथा ‘सा च ब्रह्म स्वरूपा च नित्या सा च सनातनी’ के मर्म को समझते हुए अपनी श्रद्धा अपना हृदय से समर्पण उसके प्रति अभिव्यक्त कर उससे एक ही प्रार्थना करें कि माँ! विद्या की ओर सद्बुद्धि की ओर ले चल। हमारी तेरे प्रति सच्ची श्रद्धाँजलि यही हो कि हम अधिकाधिक को तेरे सच्चे स्वरूप का भान कराकर सुपथ पर चलने को प्रेरित करें। इसी भावना के साथ यह अंक मात्र मातृसत्ता के युगल चरणों में समर्पित है।


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