आत्मीयता, ममता करुणा, यही थी उनकी उपासना

February 1995

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कहते हैं-भगवान वामन ने तीन कदमों में सारी दुनिया नाप ली थी। हम आप को भी यदि वंदनीय माताजी के व्यक्तित्व की गहराइयाँ तीन अक्षरों से नापनी हों, तो वे तीन अक्षर होंगे करुणा। यही उनका स्वभाव था। किसी के भी दुःख कष्ट को देखकर वह विकल हुए बिना नहीं रह सकती थीं। उनकी उफनती भावना का विस्तार मनुष्यों तक ही सीमित नहीं था। वह कहा करतीं ‘अपने आप को सिर्फ मनुष्य जाति का सदस्य मानने की बात संकुचित दृष्टिकोण की उपज है। यदि दृष्टिकोण का विस्तार हो सक तो लगेगा कि अन्य जीवधारी भी अपनी विचित्रताओं, भिन्नताओं और विशेषताओं के कारण भगवान की इस दुनिया में खास स्थान रखते हैं। सभी प्राणी समान हैं, भले आकार में वह छोटे-बड़े हों। परमात्मा के अनगिनत पुत्रों में इंसान भी एक है।’

उनके अपने परिवार में यह भावना बराबर देखने को मिलती। घर में जितना ध्यान परिवार के अन्य सदस्यों का रखा जाता उससे कम देख-भाल पशु-पक्षियों की नहीं होती थी। इनकी बीमारी-आरामी, सेवा, सुश्रूषा में वह कुछ इस तरह से जुटी रहतीं, जैसे ये सब उनके आत्मीय हों। खाने-पीने में भी इनका बराबर ध्यान रखा जाता। कई बार तो वह अपने सामने की थाली छोड़कर दौड़ पड़तीं-अरे देखो! अभी मैंने गाय के लिए इंतजाम नहीं किया और खुद खाने के लिए आ बैठी।

गुरुदेव के चौबीस लाख के चौबीस महापुरश्चरण लगभग चौबीस सालों में संपन्न हुए। इन सालों में घर में गाय हर हमेशा रही। क्योंकि गाय की छाछ आदि की आवश्यकता अधिक रहती। इसके अलावा आचार्य जी गौयावक व्रत भी करते थे। अर्थात् गाय को जौ खिलाया जाता। उसके बाद गाय के गोबर में जौ के जो दाने आ जाते, उनको बीनकर गौ मूत्र में धोया जाता। फिर इन्हें सुखाकर-पीस कर एक छोटी-सी रोटी-छाछ के साथ वह खाया करते। यह क्रम लंबे समय तक चला।

इसके लिए सारा इंतजाम माता जी स्वयं करती थीं। हर समय उनको गाय के चारे-पानी, सर्दी, गर्मी उसे जौ देने की चिंता लगी रहती। शुरुआत के दिनों में वह और ताई जी (गुरुदेव की माताजी) आँवलखेड़ा में रहती थीं। उस समय घर में एक कपिला गाय रहती थीं। काले रंग की यह गाय बहुत सीधी थी। छोटे बच्चे तक उसका धन पकड़ लेते, फिर भी वह चुपचाप खड़ी रहती। घर में जब भी जरूरत होती उसका दूध निकाल लिया जाता। बार-बार दुहे जाने के कारण यह कहना कठिन है कि वह कितना दूध देती थी।

एक बार वह बीमार हो गई। चारा खाना छोड़ दिया। गुमसुम खड़ी थी। चिकित्सक वहाँ था नहीं, दूसरे गाँव से उसे बुलाया गया। उसने आयुर्वेद की कई दवाएँ दीं, लेकिन सुधार न हुआ। माताजी की परेशानी बढ़ गई। उन्हें खाना पीना अच्छा न लगता। हर समय यही सोचते बीतता कि गाय कैसे ठीक होगी। उन्हें इस तरह चिंताकुल-परेशान देखकर घर के सभी सदस्य हैरानी में थे उन सबको यह लग रहा था कि पशु तो बीमार होते ही रहते हैं, भला इसमें परेशान होने की क्या जरूरत है? परंतु माता जी के लिए तो जैसे उनका कोई अपना आत्मीय बीमार था। उन्होंने बरहन (पास के गाँव) से चिकित्सक बुलाया। चिकित्सक ने बताया कि उसे गला घोटू है। उसके सारे प्रयासों का कोई खास असर न हुआ।

गाय को जितना शारीरिक कष्ट था, माताजी की मानसिक विकलता उससे कहीं अधिक थी। परिवार के सदस्यों ने उनकी परेशानी देखकर आगरा से पशु चिकित्सक बुलाया। अपनी समझ में उसने अच्छी चिकित्सा की। लेकिन अब तक गाय का पेट फूल चुका था। प्रातः काल 6 बजे वह जोर-जोर से साँस लेने लगीं लगभग 7 बजे एकादशी के दिन सबको अपने प्यार से वंचित कर ‘चिर निद्रा’ में सो गई।

माताजी का तो जैसे सब कुछ लुट गया। वह फूट-फूट कर रो पड़ीं। ढकेल गाड़ी मँगाई गयी। बहुत बड़ा गड्ढा खोदा गया। गड्ढे में पहले वह उतरीं गंगा जल छिड़का? गंगा जल छिड़कते समय वह गायत्री मंत्र पढ़ती जा रही थीं और बिलख-बिलख कर रोती जा रही थीं। गाय को उसमें उतारा गया। उन्होंने अपने हाथों से उस पर लाल कपड़ा ओढ़ाया। गंगा जल छिड़का अपने मस्तक को उसके पैरों पर रखा, फिर उस पर अपने हाथों से मिट्टी डाली। बाद में उस गड्ढे को मिट्टी से भर दिया। अंत में बालू बिछाई गयी। जिस पर उन्होंने अपने हाथों से लिखा ‘श्रीराम’। यह सब करके वह घर आ गई। परंतु कई दिन तक उनका मन अन्यमनस्क रहा। लगभग एक सप्ताह बाद वह ठीक से खाना खा सकीं।

आँवलखेड़ा से उनका मथुरा आना हुआ। यह कहना बहुत कठिन है कि घर में माताजी पहले आयीं या बंदर। क्योंकि उनके मथुरा छोड़कर जाने के बाद बंदर भी घर छोड़ गए।

हाँ यह सच है कि जब तक वह घर पर रहीं, बंदर दिवाली मनाते रहे। बंदरों का भी कमाल था। बीस-बीस बंदर छत पर बैठे रहते, दीवालों पर गश्त लगाते रहते, पर घर का कोई कपड़ा बर्तन न उठाते। जैसे माताजी ने उन्हें पाल रखा हो। उनके लिए रोटी तो वह टुकड़ों में डाल देतीं। दाल-चावल और सब्जी एक निश्चित बर्तन में रख दी जाती। अपने लिए परोसे गए भोजन से वे सभी पूर्ण संतुष्ट हो जाते। आने वाले साधक, मेहमान, रिश्तेदार, अतिथि वगैरह तो बंदरों से खूब डरते। पर घर वाले सभी लोग अभ्यस्त हो गए थे। बंदरों ने कभी किसी को काटा नहीं। जब माताजी के बनाए-परोसे गए भोजन से ही उन्हें तृप्ति मिल जाती तब काटने-खीझने की जरूरत भी क्या थी।

माताजी का जीवों पर प्रेम अबाध था। उनके लिए सभी जीव उनके अपने थे। किसी की सेवा करतीं, तो किसी के साथ हंस खेल लेतीं, यदा-कदा चिढ़ा भी देतीं। हाँ पीड़ा-कष्ट किसी का भी हो उनकी भावनाएँ आँसू बनकर बहने लगतीं। एक दिन वह धूप में कपड़े सुखा रही थीं। गुरुदेव के साधना कक्ष के सामने खुली जगह थी। वहीं धूप में कपड़े सूखने के लिए डाल दिए जाते थे। अपनी धोती को तार पर फैला कर अभी वह हटी ही थीं कि आसमान से एक घायल तोता ‘लुढ़क-पुढ़क’ करता हुआ छत पर गिरा और पंख फैला गया। उन्होंने समझा कि वह मर गया। स्थिति भी कुछ ऐसी ही थी। उसकी गर्दन पर पीछे की तरफ गहरा घाव था। जिससे खून निकल रहा था। मुँह फटा था। आँखें पथरा रही थीं।

उन्होंने अपने गीले कपड़े वहीं छोड़ दिए। दोनों हाथों से धीमे से तोता उठा लिया। उठाकर उसे खुली रसोई की छत पर ले आयीं। उसके मुँह में पानी डाला। इतने में गुलाब देवी ‘एजू’ आ गई। पास आकर वह बोली अरे इसके तो खून निकल रहा है। तो देख क्या रही है-उसे संबोधित करते हुए उन्होंने कहा-जल्दी-हल्दी पीसकर ले आ। ‘एजू’ हल्दी पीसकर ले आई। माताजी ने उसके घाव में हल्दी भर दी। तोता थोड़ा छटपटाया, माताजी यह जानकर खुश हो गई कि चलो अभी जिंदा है।

रसोई में बचा हुआ भोजन रखने की काठ की एक अलमारी थी। बीच के खाने में तोता रख दिया गया। बाद में ख्याल आया कि तोता अल्मारी में बीट करेगा। तुरंत एक बड़ा पिंजरा मँगाया गया। अब उन्होंने तोते को अलमारी से पिंजरे में स्थानांतरित कर दिया। पिंजड़े में कटोरी रखी। कटोरी में दाल, एक हरी मिर्च और अमरूद रखा। एक कटोरी में पानी भर कर रख दिया। पिंजड़े में तोता सिकुड़ कर बैठा हुआ था। माताजी ने शाम को फिर हल्दी लगाई। तीन-चार दिन यही क्रम चलता रहा। हर रोज वह पिंजड़े की खिड़की खोलतीं, हल्दी लगातीं और वापस पिंजड़े में बंद कर देतीं। धीरे-धीरे तोता पूर्ण स्वस्थ हो गया। रोज की तरह अब की बार भी उन्होंने खिड़की खोली, हल्दी लगाई। लेकिन इतने में उसने माताजी की उँगली जोर से काट ली। वह जोर से चीख पड़ीं। इतने में तोता हाथ से छूट कर उड़ गया। आसमान में उसे उड़ते देखकर वह प्रसन्नता से हँस पड़ीं। बोली चलो अपनी सेवा काम कर गई।

पीड़ा किसी की भी हो, विकल होकर उसकी सेवा में जुट पड़ना उनकी आदत बन गई थी। घीया मंडी वाले घर में जीने के पास एक बुखारी थी। उसमें वह सूखी लकड़ी और उपले रखती थीं। एक रोज उसी बुखारी में बिल्ली ने चार बच्चे दिये। बिल्लियों के बारे में आम-तौर पर सोचा जाता है कि वह अपने बच्चों को कई घर घुमाती है। पता नहीं इसमें कितना सच है। कुछ भी हो बच्चे देने के बाद वह बिल्ली लड़खड़ाती हुई छत पर चढ़ी। बाद में कहाँ गई कुछ मालूम नहीं। जब कई दिन बिल्ली वापस न लौटी तो बच्चों का बुरा हाल हो गया। उन छोटे-छोटे बिल्ली के बच्चों का सिसकता क्रंदन, माताजी के हृदय को व्यथित करने लगा।

वह अपने को रोक न सकीं। भागकर बुखारी के पास गईं। उपले पलटने पर देखा, चार बच्चे थे। उनकी आँखें अभी तक खुली न थीं। भूख-प्यास से ये सभी लगभग मरणासन्न थे। वह कटोरी में गाय का दूध लायी, रुई की बत्ती बनाई, धीरे से उनका मुँह खोला और रुई की बत्ती से गाय का दूध उनके मुँह में टपका दिया। यह क्रम कई दिनों तक चलता रहा। धीरे-धीरे बच्चे बड़े हो गए। वे जीने से नीचे बाहर घूमने लगे। इस तरह उनका घूमना-फिरना हर किसी के बिस्तर पर जब चाहे चढ़ बैठना, घर वालों के लिए मुसीबत बन गया। अब तक वह दूध-रोटी खाने लगे थे।

घर के सदस्यों को यह सब अच्छा न लगता। क्या मुसीबत घर में पाल रखी है? माताजी की आलोचना घर में चुपके-चुपके होने लगी। बर्तनों में मुँह देंगे, खाना झूठा करेंगे तब पता चलेगा। उस समय जीवदया महंगी पड़ेगी। घर में इस तरह की बातें होती रहतीं। पर माताजी से सीधे-सीधे कहने का किसी को साहस नहीं होता था। इधर बिल्ली के बच्चे एक दूसरे को यदा-कदा माँ का स्तन समझकर काट लेते। इस तरह काटते रहने से उनके शरीर में तकलीफ हो गई। माताजी उन चारों को एक लकड़ी की टोकरी में रखकर पशु चिकित्सक को दिखाने ले गईं। डॉक्टर बोला-बहिन जो इन्हें खाज हो गई है। इनको फेंक दो। जानवर की खाज आदमी को हो जाय तो बड़ी मुश्किल हो जाती है। इस गंदगी का क्या करोगी?

यह सुनकर उनका हृदय बेचैन हो उठा। वह काफी देर तक डॉक्टर से अनुनय-विनय करती रहीं, बोली खाज की कोई अच्छी-सी दवा दे दो। डॉक्टर ने कहा छोटे हैं, खाज की दवा बर्दाश्त न कर सकेंगे। फिर कुछ सोचते हुए उसने कहा-अच्छा ये शीशी ले लो रुई की फरहरी बनाकर दवा लगाना। दवा लगाकर हाथ साबुन से धोना। माताजी बच्चों और दवा के साथ घर आ गईं। डॉक्टर की बताई विधि से उन्होंने दवा लगाई। बच्चे एक दूसरे से चिपट रहे थे। वे एक-दूसरे की दवाई चाट गए। रात को 7 बजे देखा उनमें से एक लंबा पड़ा था। वह रोने लगीं, बोलीं यह तो मर गई। कुछ देर तक रुआंसी घर का काम करती रहीं। थोड़ी देर बाद अपने बड़े लड़के से बोलीं- ओम्–प्रकाश जरा तुम देखना। उन्होंने देखा दूसरा बच्चा भी लंबा पड़ा है। दोनों लंबे चारों खाने चित्त पड़े हैं। दो चिपट रहे हैं। वह सब काम छोड़ कर दौड़ी भागी आयीं और रोते हुए बोली हाय ये भी मर गई। रात को नौ बजते-बजते तीसरा बच्चा भी लंबा हो गया, माता जी सुबक रही थीं।

घर के सभी लोग सो गए थे। वह अकेली बिल्ली के बच्चों को लिए बैठी थीं इतने में चौथा भी मर गया। उन्होंने भाई ओम्–प्रकाश को कई आवाजें दी, पास आकर झकझोरा। बड़ी मुश्किल से उनकी नींद टूटी। नींद खुलने पर उन्होंने पूछा बात क्या है? जवाब में वह रोते हुए कहने लगीं ओम्–प्रकाश वे चारों मर गईं। मुझ से बड़ा पाप हुआ। मैंने दवाई क्यों लगाई। मैंने चारों को मार डाला। उनके दुख की कोई सीमा न थी। सारी रात रोते-सुबकते कटी। सुबह होने पर उन्होंने बिल्ली के मृत बच्चों को रघुवीर (तत्कालीन कम्पोजीटरः को देते हुए कहा बेटा इन्हें लाल कपड़े में बाँध लो। चारों को अलग-अलग कपड़े में बाँधा गया। इन्हें लेकर रघुवीर जब चलने लगा तब उसे रोकती हुई वह बोलीं बेटे। इन्हें दूर जमुना जी डालना, पशु की योनि से छूट जाएँगे। उसके चले जाने पर वह भगवान से प्रार्थना करती रहीं कि इन आत्माओं को पशु योनि से मुक्ति मिले।

किसी का भी कष्ट उन्हें कातर बना देता। वह विह्वल हो उठतीं करुणा का उद्रेक उन्हें बेचैन किए रहता। वह बेचैनी जितनी मनुष्यों के लिए थी, उतनी ही अन्य प्राणियों के लिए। हो भी क्यों न? सभी उन विश्व जननी की संतान ही तो हैं। एक दिन की घटना है-माताजी चटाई पर बैठी छत पर कुछ पढ़ रही थीं। यकायक उनकी नजर बिल्ली पर पड़ी। बिल्ली के मुँह में कबूतर था। कबूतर के पंखों सहित पिछला हिस्सा बिल्ली के मुँह में था। उसकी पेट और गर्दन सुरक्षित थे।

वह तुरंत समझ गईं कि कबूतर की जान बचाई जा सकती है। उन्होंने बिल्ली को घेर लिया। निकल भागने का एक ही रास्ता था और वह रास्ता उन्होंने घेर लिया। बिल्ली उस रास्ते से जिधर को मुड़ती वह उसी तरफ से “हुष” करतीं। उनके हाथ में कुछ नहीं था। बिल्ली भी कुछ कमजोर न थी। वह बराबर उछल-कूद मचा रही थी। वहीं पर एक चप्पल पड़ी थी। उन्होंने चप्पल उठाकर बिल्ली को मारी पर उसे लगी नहीं। खीझ से भरी बिल्ली ने उन्हीं के ऊपर छलाँग लगाई। पास में ही एक लकड़ी पड़ी थी, जिसे हाथ में लेकर उन्होंने बिल्ली को रोकने की कोशिश की। इस धमा चौकड़ी में बिल्ली के मुँह से कबूतर छूट गया।

उन्होंने दौड़कर कबूतर उठा लिया। कबूतर के पेट में नीचे की तरफ बिल्ली के दाँतों से हुए घाव से खून निकल रहा था बांया पैर भी घायल था। बड़ी बुरी हालत थी बेचारे की। काफी देर तक उसे अपने हाथ में लिए वह सहलाती रही। फिर प्रेमवती को पास बुलाकर बोली “जा जल्दी से हल्दी लेकर आ।” प्रेमवती बोली माताजी कबूतर तो मरेगा। बिल्ली के दाँतों का जहर चढ़ेगा। हल्दी से कुछ होने वाला नहीं, तोते की बात और थी।

एक क्षण के लिए उनका चेहरा उतर गया। फिर कुछ सोचकर उन्होंने कबूतर को कमरे में बंद कर दिया। कमरे में उसके लिए दाना-पानी रख दिया। दोपहर में तपोभूमि से कुछ साधक खाना-खाने के लिए आयें उन्हीं में डॉ. जी. के. पारिख भी थे। माताजी ने अपने कबूतर का दुख-दर्द उन्हें कह सुनाया। डॉ. पारिख अहमदाबाद के अच्छे सर्जन थे। कई आप्रेशन उन्हें रोज करने पड़ते। परंतु कबूतर का इलाज उन्होंने कभी न किया था।

वह खाना खाते हुए इस गूढ़ गुत्थी को सुलझाते रहे। मानो, आप्रेशन टेबल पर कोई मरीज मर रहा हो। डॉक्टर को, उसकी एम. एस. की डिग्री को कबूतर चैलेंज कर रहा था। आखिर माताजी का कबूतर था। डॉ. पारिख खाना खाकर बाजार चले गए। दवा, सिरिंज, मरहम न जाने क्या-क्या लेकर लौटे। कोई दवा वहाँ लगाई जहाँ से खून निकल रहा था। बाद में इंजेक्शन लगाया। पैर में मरहम लगाया। उनका यह क्रम तकरीबन पाँच दिन चलता रहा। धीरे-धीरे कबूतर पूर्ण स्वस्थ हो गया।

डॉक्टर ने कबूतर को अपने हाथ से उड़ाया। कबूतर पंख पसार कर आसमान की सैर करने लगा। उन्होंने चरण छूकर माताजी को प्रणाम किया और कहा-कि वह अहमदाबाद के अमुक अस्पताल में सर्जन हैं। सिर्फ दो दिन की छुट्टी लाये थे। अब आठवें दिन जाकर ड्यूटी ज्वाइन करेंगे। माताजी खुश होकर मुसकरायी और बोली “बेटा! बना बात मैंने तुम्हें इतने दिन रोक लिया।”

डॉक्टर चले गए। कुछ समय बाद मथुरा में विदाई समारोह का भव्य आयोजन हुआ और माताजी भी मथुरा छोड़कर शाँतिकुँज में रहने लगीं। यहाँ आकर उनकी ममता और व्यापक हो उठी। उनकी करुणा के सरित प्रवाह में असंख्य लोग स्नान करने लगे। मनुष्यों के अलावा इनमें कुछ अन्य प्राणी भी थे। इन्हीं में से था पूज्य गुरुदेव का कुत्ता मन्टो। भूटान के किन्हीं कर्नल साहब ने इसे गुरुदेव को भेंट दिया था।

उस समय पूज्यवर अपनी तीसरी हिमालय यात्रा से वापस लौटे थे। शाँतिकुँज में प्राण प्रत्यावर्तन सत्रों का सिलसिला चल रहा था। उन दिनों जो भी परिजन शाँतिकुँज आए हैं। उन्हें मन्टो की आन बान-शान भूली न होगी। वह हमेशा गुरुजी के साथ रहता। सुबह जब वह प्रवचन देने के लिए जाते, मन्टों उनके आगे-आगे चलता। दोपहर में उनके पास सोफे पर बैठता। जमीन पर बैठना उसे पसंद न था। उसे माता का पर्याप्त लाड़-प्यार मिला। जब कभी उसे भूख लगती, दौड़कर माताजी के पास पहुँच जाता और अपना पेट दिखाकर भौंकने लगता जैसे कह रहा हो, मुझे जोर की भूख लगी है-जल्दी कुछ इंतजाम करो। उसका इशारा समझकर माताजी जल्दी ही कुछ खाने के लिए जुटा देतीं। जो धोती पहनकर आता, भारतीय वेषभूषा में गुरुदेव एवं माताजी के चरण स्पर्श करता उन्हें वह कुछ न कहता किंतु विदेशी पोशाक वाले पर भौंक कर तुरंत चेता देता कि अगली बार भारतीय वेश में आना। ऋषि सत्ता से मिलने दो-तीन साल वह माताजी का स्नेह सान्निध्य पाता रहा। बाद में वह मर गया। गुरुजी माताजी ने उसे गंगा के दूसरी ओर बालू में गड़वा दिया।

मन्टो के अलावा माताजी का स्नेह बटोरा पंकज नाम के खरगोश ने। उसे पंकज नाम माताजी ने दिया था। पंकज माता जी के हाथों से दूध पीता, उन्हीं के इर्द-गिर्द मंडराता रहता। जब कभी वह उछलकर उनकी गोद में चढ़ जाता और वह मुस्कुरा उठतीं। इस खरगोश को रूठना बहुत पसंद था तो माताजी को मनाना। कुछ सालों तक वह उनके प्यार से तृप्त होता रहा। बाद में एक दिन मर गया। उस दिन माताजी खाना न खा सकीं। कई दिन तक उनके चेहरे पर उदासी छायी रही जब कभी उसके किस्से बयान करने लगतीं। उनकी इन ममता भरी यादों में बहुत कुछ था। रामायण काल में जब माँ सीता धरती पर आयी थीं। न जाने कितने बंदर भालुओं ने, गीध, गिलहरी ने उनका प्यार पाया। आज के युग में सतयुग का अवतरण करने वाली परमशक्ति माँ भगवती के प्यार में उनकी करुणा में अनगिनत प्राणी सराबोर हुए। वह ठीक ही कहा करती थीं-’प्यार-प्यार प्यार यही हमारा मंत्र है। आत्मीयता, ममता, स्नेह, यही हमारी उपासना है। सो बाकी दिनों अब अपनों से अपनी बातें ही नहीं कहेंगे, अपनी सारी ममता भी उन पर उड़ेलते रहेंगे। शायद इससे हमारे बच्चों को यत्किंचित् सुखद अनुभूति मिले। प्रतिफल और प्रतिदान की आशा किए बिना हमारा भावना प्रवाह तो अविरल जारी रहेगा। अपने बच्चों को भरपूर स्नेह-यही इन बीते दिनों का हमारा उपहार है। जिसे कोई भुला सके तो भुला दे। हम कहीं भी रहें, शरीर रहे अथवा न रहे, धरती पर रहें या किसी और लोक में अपने बच्चों पर ममत्व और करुणा उड़ेलते रहेंगे।’


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