सम्राट विक्रमादित्य राज कवि का चुनाव करेंगे। यह खबर समूचे देश में फैल गई जिसने जहाँ सुना उसी के मन में आशा की तरंगें हिलोरें लेने लगीं। एक से एक जाने माने प्रतिष्ठित कवि उज्जयिनी पहुँचने लगे। सभी के स्वागत और निवास का अच्छा प्रबंध था। आकर सभी कवि गण अपने-अपने लिए नियत आवासों में ठहरने लगे। नगर कवियों के कोलाहल से इस तरह भर गया मानों साँझ के समय पखेरू अपने-अपने कोटरों में तरह-तरह की ध्वनि से चहचहाट कर रहें हों।
दूसरे दिन कवि दरबार का आयोजन हुआ। सरस्वती के एक से एक बाँके पुत्र समूची साज-सज्जा के साथ मंच पर आ विराजे। उन्हें देखकर ऐसा लगता था मानो वे कविता पाठ के लिए नहीं अपना विवाह रचाने आए हों। कवियों की बाँकी सज-धज और परस्पर रसीली वार्ताएँ देखते और सुनते ही बनती थीं।
महामंत्री बैताल भट्ट ने सभा के प्रयोजन की घोषणा की-कलामंच प्रजा के मन को व्यवस्थित और अनुशासित रखने वाला उन्हें प्रेरणाएँ और प्रकाश देने वाला सबसे श्रेष्ठ साधन है। महाराज चाहते हैं कि उस मंच को चलाने, नियंत्रित और संगठित करने वाला कोई उस विद्या का ज्ञाता ही हो। इसी मकसद को ध्यान में रखकर यह काव्य समारोह आयोजित किया गया है। ‘राजकवि’ की पदवी किसे दी जाय, इसका निर्णय महाराज स्वयं करेंगे।
इसी घोषणा के साथ ही प्रारंभ हुआ कवि सम्मेलन। एक-एक कवि मंच पर आते और अपनी कविता का पाठ कर उपस्थित प्रजाजनों पर अपनी विद्वता की छाप डालने की कोशिश करते। लेकिन उज्जयिनी के नागरिक ऐसे बुद्ध नहीं थे जो हर कवि की विचारधारा से प्रभावित हो जाते।
नायिका भेद, विप्रलंभ, विरह गीत, अभिसार कथाओं के ऐसे-ऐसे रंगीन गीत कवियों ने एक से एक बढ़-चढ़ कर सुनाए। इन्हें सुनकर ऐसा लगा जैसे कवि दरबार में श्रृंगार रस मूर्तिमान हो उठा हो। एक कवि आए और अपनी कविता में सारी शक्ति नारी के नख-सिख वर्णन में लगाकर चले आए। दूसरे ने आकर स्त्री के अंगों एवं कामचेष्टाओं भंगिमाओं का ऐसा सुरम्य किंतु स्पष्ट वर्णन किया मानो वे एक-एक कील को जोड़कर आभूषण बनाने वाले सुवर्णकार रहे हों। किसी कवि ने नारी के परिधानों को उपमाओं और अलंकारों से सजा डाला तो किसी ने उसे साक्षात रति के रूप में ही गढ़ डाला। श्रृंगारवादी कवियों की बाढ़ को देखकर सम्राट विक्रमादित्य को ऐसा लगा जैसे कला तो मर गई और ये सभी उसका मुर्दा ढो रहे हैं? फिर भी वह कुछ बोले नहीं।
तभी आया एक युवक कलाकार। उसने सफेद धोती और कुर्ता पहन रखा था कंधों पर उत्तरीय था। सफेद परिधान में उसे देखकर ऐसा लगा जैसे उपस्थित कवियों के निकम्मेपन को देखकर सरस्वती ने अपना पुत्र भेज दिया हो। उसके रंगमंच पर पहुँचते ही कविगण एक साथ चिहुंक उठे। कल का छोकरा क्या जाने काव्य किसे कहते हैं? किंतु उसके उदात्त स्वर और आदर्शवादी काव्य प्रेरणाओं ने एक बार फिर से महाराज को आश्वस्त कर दिया कि कला के सच्चे उपासक निताँत समाप्त नहीं हुए भले ही चारणों की वंश वृद्धि कितनी ही क्यों न हो गई हो।
इतने पर भी राज कवि का चुनाव नहीं हो पाया। कवि मंडली अपने-अपने आवासों में चली गई। उनके लिए उत्तम स्वादयुक्त भोजन मदिरा और न जाने क्या-क्या बहुमूल्य राज भोग उपस्थित थे। वे सभी उन पर टूट पड़े और सुरा सुन्दरी के ताप से झुलस-झुलस कर थोड़ी ही देर में ढेर हो गए। इतने पर भी एक कवि इन सभी भोगों से सर्वथा अपरिचित अपने कक्ष में दीवट जलाए बैठा था। उसे पता ही न चला कब अर्धरात्रि आ पहुँची। प्रहरी ने टोका-”आर्य! आपको विश्राम करना चाहिए।” युवक ने प्रहरी की ओर देखा और कहा “तात! तुम क्यों नहीं सो रहे हो?” “इसलिए कि” प्रहरी ने उत्तर दिया “कहीं ऐसा न हो कि शत्रु अचानक हमला कर दे और राष्ट्र पराधीन हो जाए।”
“मैं भी प्रहरी हूँ तात! राष्ट्र के जन-मन का प्रहरी।” युवा कवि ने प्रहरी को आश्चर्यचकित करते हुए उत्तर दिया। “प्रजा के जीवन को, उनके चिंतन को दुष्प्रवृत्तियाँ आक्राँत न कर दें, इसीलिए मैं भी सन्नद्ध रहता हूँ।” प्रहरी कोई उत्तर दे इससे पूर्व ही पीछे खड़े सम्राट ने आगे बढ़कर उसे बाहों में भर लिया। उन्होंने भाव-विभोर होते हुए कहा-”तात! मुझे जिसकी तलाश थी, वह मिल गया। आज से तुम मेरे राजकवि हो राजकवि तुलसीदास।”