अंतर्जगत का देवासुर संग्राम

February 1995

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मनुष्य के अंतःकरण में दो प्रवृत्तियाँ रहती हैं जिन्हें आसुरी एवं दैवी प्रकृति कहते हैं। इन दोनों में सदा परस्पर संघर्ष चलता रहता है। गीता में जिस महाभारत का वर्णन है और अर्जुन को जिसमें लड़ाया गया है वह वस्तुतः आध्यात्मिक युद्ध ही है। आसुरी प्रवृत्तियाँ बड़ी प्रबल हैं कौरवों के रूप में उनकी बहुत बड़ी संख्या है, सेना भी उनकी बड़ी है। पाण्डव पाँच ही हैं उनके सहायक एवं सैनिक भी थोड़े ही हैं। फिर भी भगवान ने युद्ध की आवश्यकता समझी और अर्जुन से कहा-लड़ने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। तामसिक आसुरी प्रकृति का दमन किये बिना सतोगुणी दैवी प्रकृति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायगा। इसलिए लड़ना जरूरी है। अर्जुन पहले तो, झंझट में पड़ने से कतराया, पर भगवान ने जब युद्ध को अनिवार्य बताया तो उसे लड़ने के लिए कटिबद्ध होना पड़ा। इस लड़ाई को इतिहासकार ‘महाभारत’ के नाम से पुकारते हैं। अध्यात्म की भाषा में इसे साधना समर कहते हैं।

देवासुर संग्राम की अनेक कथाओं में इसी ‘साधना समर’ का अलंकारिक निरूपण है। असुर प्रबल होते हैं, देवता उनसे दुःख पाते हैं, अंत में दोनों पक्ष लड़ते हैं, देवता अपने को हारता-सा अनुभव करते हैं वे भगवान के पास जाते हैं। प्रार्थना करते हैं। भगवान उनकी सहायता करते हैं। अंत में असुर मारे जाते हैं, देवता विजयी होते हैं। देवासुर संग्राम के अगणित पौराणिक उपाख्यानों की पृष्ठभूमि यही है।

हमारा अंतः प्रदेश ही वह “धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र” है जिसमें महाभारत होता रहता है। असुर मायावी हैं। तमोगुण का असर हमें माया में फँसाये रहता है। इन्द्रिय सुखों का लालच देकर वह अपना जाल फेंकता है और अपने माया पाश में जीव को बाँध लेता है। उस असुर के और भी कितने ही अस्त्र-शस्त्र हैं जिनसे जीव को अपने वशवर्ती करके पददलित करने में वह सफल होता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर यह छः ऐसे ही सम्मोहन अस्त्र हैं, जिनमें मूर्च्छित होकर जीवन बँध जाता है और वह मूर्छा ऐसी होती है कि उससे निकलने की इच्छा भी नहीं होती है, वरन् उसी स्थिति में पड़े रहने को जी चाहता है।

अर्जुन भीख माँग कर खाने और ऐसे ही किसी तरह जीवन काट लेने को तैयार है। जो दुष्प्रवृत्तियाँ एक ही घर में एक ही कुटुँब में अपने ही शरीर में पैदा हुई तथा पलीपोसी हैं वे उसे स्वजन जैसी लगती है। उन्हें मारने में दुःख लगता है। जो दुर्गुण दुर्भाग्य, दुःस्वप्न, कुविचार और कुसंस्कार अपने मनः क्षेत्र में चिरकाल से साथी बने हुए हैं उन्हें हटाने के लिए जीव की प्रवृत्ति भी नहीं होती। किंतु यह अवसाद आत्मा के लिए अहितकर ही है इसलिए भगवान अपने भक्त के इस अवसाद को हटाने का प्रयत्न करते हैं। अर्जुन को युद्ध में लगना ही पड़ता है।

आत्मा का कल्याण उस तम प्रवृत्ति में पड़े रहने से नहीं हो सकता जिसमें माया मोहित अगणित जीव पाशबद्ध स्थिति में पड़े रहते हैं। इन बंधनों को काटे बिना कल्याण का और कोई मार्ग नहीं। इस तमसाच्छन्न स्थिति को यदि रोका, हटाया या सुधारा न जाय तो उसकी भयंकरता एवं विभीषिका में दिन-दिन वृद्धि ही होती जायेगी और नारकीय यंत्रणाओं एवं यातनाओं के अवसर ही बढ़ते जायेंगे। संसार के अधिकांश प्राणी इसी स्थिति में पड़े-पड़े नाना प्रकार के त्रास सहते रहते हैं। भव-बंधनों में बँधे हुए बिलबिलाते और बिलखते रहते हैं। इस मार्ग से यदि विरत न हुआ जाय तो पाप, पतन एवं पीड़ा के चक्र में गला फँसा कर झूलते रहना पड़ता है।

आत्मा की पुकार ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ की है। वह अंधकार से प्रकाश की ओर जाना चाहती है। तम ही अंधकार और सत ही प्रकाश है। यह अंधकार को त्यागने और प्रकाश को धारण करने का प्रयत्न ही ‘साधना’ है। साधना को जीवन की अनिवार्य आवश्यकता माना गया है। तम की दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा केवल इस एक ही उपाय से हो सकता है। सच्ची शाँति और प्रगति का मार्ग भी यही है।

अंतरात्मा में निरंतर चलने वाले देवासुर संग्राम में तामसिकता का पक्ष भौतिक सुख-साधन इकट्ठे करते रहने और सात्विकता का पक्ष आत्मकल्याण की दिशा में अग्रसर होने का है। जब दोनों में से कोई एक पक्ष प्रबल हो उठता है तो संग्राम में तेजी दिखाई देने लगती है। यदि असुरता प्रबल हुई तो दुष्प्रवृत्तियों की अभिवृद्धि होकर पतन का नारकीय परिपाक सामने आ जाता है और यदि सुरपक्ष प्रबल हुआ तो सत्प्रवृत्तियों का उभार आता है और मनुष्य, सत्पुरुष महामानव, ऋषि एवं देवदूत बनकर पूर्णता के लक्ष को प्राप्त करने के लिए द्रुत गति से आगे बढ़ता है।

एक बीच की स्थिति रजोगुण ही अवसाद भूमिका कहलाती है। इसमें तम और सत दोनों मिले रहते हैं। लड़ाई बंद हो जाती है और काम चलाऊ समझौता-सा करके दैवी और आसुरी तत्व एक ही घर में रहने लगते हैं। भले और बुरे दोनों ही तरफ के काम मनुष्य करता रहता है। पाप के प्रति घृणा न रहने से आत्मिक प्रगति की ओर कोई विशेष उत्साह न रहने से, दिन काटने की वैसी ही स्थिति बन जाती है जैसी मंद विष पीकर मूर्च्छित हुए अर्धमृत प्राणी की होती है। मानव जीवन जैसा अलभ्य अवसर प्राप्त होने पर इस प्रकार का अवसर भी चिंताजनक ही है।

भगवान कृष्ण ने बार-बार उकसा कर अर्जुन को युद्ध के मैदान में खड़ा कर दिया था। गाण्डीव उठाकर शत्रुओं पर सर संधान करने के लिए उसे तत्पर ही होना पड़ा था। हमारा भगवान-अंतरात्मा भी हमसे यही कराना चाहता है। उसकी गीता निरंतर हमारे अंतःकरण में कुरुक्षेत्र में कही जाती रहती है। पर हम उसे सुनते नहीं, मूर्छा छोड़ते नहीं, गाण्डीव को छूते नहीं, हमारा कृष्ण हमें झकझोरते-झकझोरते हार चला, पर हम चेतना शून्य ही बने बैठे हैं।

पुराणों में उस देवासुर संग्राम का वर्णन पग-पग पर किया गया है। प्रत्येक पुराण में किसी न किसी बहाने देवताओं और किन्हीं असुरों की लड़ाई के प्रसंग बार-बार वर्णन किये गये हैं। सच तो यह है कि यह देवासुर संग्राम अनादि काल से चल रहा है और अनंत तक चलता रहेगा। गीता में जिस धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र का वर्णन है और जिस महाभारत में धर्म और अधर्म का पक्ष प्रतिपादन करने वाली कौरव पाण्डव सेनाओं का वर्णन हुआ है वह भी केवल उस शस्त्र युद्ध तक सीमित नहीं है। रीछ-वानर की राम सेना और रावण, कुम्भकरण, मेघनाथ जैसे समर्थ योद्धाओं का युद्ध भी एक प्रकार की हमारी भीतरी स्थिति का ही बाह्य चित्रण है। अध्यात्म रामायण में इसका निरूपण अधिक स्पष्ट रूप से हुआ है। प्रत्येक अवतार पाप को नाष करने और पुण्य की स्थापना के लिए-देवताओं की रक्षा और असुरों के संहार के लिए अवतरित होता है। ऐसा अवतार समय-समय पर हममें से अनेकों के अंतःकरण में अवतरित होते हुए देखा भी जाता है।

प्रत्येक मनुष्य के भीतर पाप और पुण्य के दोनों प्रकार के प्रबल संस्कार मौजूद हैं। दोनों की शक्ति प्रचंड है, दोनों ही उद्भट योद्धाओं के समान हैं। दोनों एक दूसरे से प्रतिकूल प्रकृति के होने से परस्पर लड़ते भी रहते हैं और एक दूसरे को परास्त करने का भी प्रयत्न भी करते हैं। यही देवासुर संग्राम है। हर मनुष्य के भीतर पाप और पतन की असुरता के कुसंस्कार पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं। चौरासी लाख निम्न योनियों में लाखों वर्षों तक भ्रमण करने की अवधि में इसने इन्हें जमा किया होता है। पाशविक वृत्तियाँ उन पतित योनियों में उपयुक्त भले ही कही जायँ पर मनुष्य के महान गौरव को देखते हुए वे हेय एवं त्याज्य ही होती हैं। सुरदुर्लभ मानव शरीर में देवत्व की छाया रहती है क्योंकि यह योनि ईश्वर के सबसे निकट है। इस शरीर में आये हुए जीव के लिए ईश्वर तक पहुँचने में छोटी छलाँग लगानी मात्र शेष रह जाती है। इसलिए उसका महत्व एवं उत्तरदायित्व भी अधिक है। देवत्व मनुष्य को अपनी तरह ऊँचा उठाने के लिए खींचता है और असुरता की पाशविक वृत्तियाँ अपनी ओर आकृष्ट किये रहना चाहती हैं। इसी खींचतान में हवा के सहारे उड़ने वाले तिनकों की तरह आमतौर से मनुष्य कभी इधर कभी उधर उड़ते ही रहते हैं। सतत् अवसाद असमंजस का जीवन जीता है। इस अवसाद की स्थिति का अंत करना ही उचित है। देवासुर संग्राम में अपने देवपक्ष को विजयी बनाना ही श्रेयस्कर है। तम को छोड़ें और सत का प्रकाश ग्रहण करें इसी में हमारा हित है। साधना में ही मनुष्य का सच्चा स्वार्थ सन्निहित है।


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