“नारी जाग्रति अभियान” का विशाल वटवृक्ष जिनके संरक्षण में फला-फूला

February 1995

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माता जी को केन्द्र बनाकर नारी शक्ति का विकास होगा। परम पूज्य गुरुदेव के इन शब्दों को वंदनीय माताजी की गति-विधियों-क्रिया–कलापों में साकार होते अनुभव किया जा सकता है। स्वयं गुरुदेव ने महिलाओं की पीड़ा को कम अनुभव नहीं किया। इस अनुभूति के पीछे उनका नारी अंतःकरण था। जिसे उन्हीं की भाषा में कहें तो-’पुरुष की तरह हमारी आकृति बनाई है कोई चमड़ी फाड़ कर देख सके तो भीतर माता का हृदय मिलेगा। जो करुणा, ममता, स्नेह और आत्मीयता से हिमालय की तरह निरंतर गलते रहकर गंगा-यमुना बहाता रहता है।’ हृदय की इन्हीं विशिष्ट धड़कनों में उन्होंने नारी की पीड़ा-व्यथा-वेदना की गहरी अनुभूति की।

वंदनीय माताजी ने तो अंतःकरण ही नहीं शरीर भी नारी का पाया था। ऐसे में स्वाभाविक है उनका हृदय हजारों साल से दलित, शोषित, उत्पीड़ित नारी का जीवन शास्त्र बन जाय। उनके दिल की धड़कनों में हमें बौद्धिक विवेचनाओं के आकर्षण ग्रंथों के भण्डार, लेखमालाओं, वक्तृताओं के अंबार भले ही न मिलें, पर वह आकुलता-आतुरता जरूर देखने को मिलती है, जिसे छूकर कोई भी मन नारी जागरण के लिए कुछ करने को हुलस उठे। प्राणों में वह तड़प भरी बेचैनी पैदा हो जाय, जो अपने समूचे जीवन को इसके लिए उत्सर्ग करने के लिए कृत संकल्पित हो सके।

उनकी यही व्याकुल भावनाएँ हैं जिसका खाद-पानी पाकर ‘नारी जागरण’ का विशाल वटवृक्ष आज युग निर्माण योजना के आँगन में फल-फूल रहा है। जिसकी छाया हजारों-हजार महिलाओं के मन का संताप हरती हैं। इस विशालकाय हो चुके वृक्ष के बीजारोपण की कहानी बड़ी मार्मिक है। उन दिनों माताजी आँवलखेड़ा से मथुरा आई ही थीं। कुछ अधिक साल नहीं हुए थे। एक दिन एक महिला आकर आँसू थमते न थे। बहुत समझाने-बुझाने पर बोली-”भला आपके सिवा मेरा दुख दर्द और कौन समझेगा?”

आखिर सुनूँ भी तेरा दुख दर्द? क्या पीड़ा के दो बोल सुन कर उसने अपनी कथा कह सुनाई। “मेरा नाम फूलवती है। मेरे पति ने मुझे घर से निकाल दिया है। मायके वाले रखने को तैयार नहीं है। इस संसार में मेरा कहीं ठिकाना नहीं।” लगभग तीस वर्ष की इस महिला से अधिक पूछताछ करने पर पता चला कि उसके पति ने उसे इस वजह से घर से बाहर कर दिया है, क्योंकि मायके वालों ने अधिक दान-दहेज नहीं दिया है। अब तो मायके वालों ने भी मुँह फेर लिया है क्योंकि लड़की पराए घर का कूड़ा जो होती है और बाहर किये गए कूड़क को फिर से घर में ले आना कोई समझदारी तो नहीं। लेकिन माताजी के लिए तो उसका कष्ट अपना कष्ट था। उन्होंने समझा बुझाकर प्यार के साथ अपने यहाँ रख लिया। हाँ इस घटना ने उन्हें सोचने के लिए विवश जरूर किया कि आखिर महिलाओं के प्रति इतना दूषित दृष्टिकोण क्यों? कि माँ-बाप उसे पराए घर का कूड़ा मानें। लड़कों की तुलना में लड़कियों का दर्जा निचला हो। पति की नजर में वह कामुकता की आग बुझाने का खिलौना है। जिसे जब तक मन आया इस्तेमाल किया जब मन चाहा बाहर फेंक दिया। ससुराल वालों की दृष्टि में उसकी औकात महज एक दासी की है। जिसे दिन-रात काम में जुटे रहने के बदले किसी सम्मान या सुविधा पाने का अधिकार नहीं।

सिलसिला फूलवती तक सीमित नहीं रहा। इसी तरह की एक अन्य महिला भी आयीं नाम था प्रेमवती देवी। इनकी उम्र लगभग तीस वर्ष थी। विधवा थीं। इनकी लिखावट बहुत सुँदर थी। इन्होंने माता जी का बहुत प्यार पाया। माताजी ने इनको डाक विभाग का काम सौंपा। जिसे वह बड़ी खूबसूरती और निष्ठा के साथ करती थी। एक अन्य महिला भी इस कड़ी में आ जुड़ी-नाम था कौशल्या देवी। इनकी उम्र तकरीबन पचास साल रही होगी। ये लुधियाना की रहने वाली थीं। ये खाना बनाने में मदद करती थीं। कौशल्या की तरह रतन देवी भी आ मिली। इनका निवास स्थान नेपाल में था। इनके पति ने इन्हें छोड़ दिया था। आयु लगभग तीस वर्ष रही होगी। इन चार महिलाओं के साथ पांचवीं महिला थी नारायणी जिन्हें माताजी का सहचरत्व मिला।

इन पाँच महिलाओं के लेकर एक महिला मंडल बनाया गया। अब तो युग निर्माण योजना के अंतर्गत सैकड़ों-हजारों महिला मंडल हैं। परंतु यह पहला महिला मंडल था। यही थी नारी जागरण अभियान की शुरुआत जिसे माताजी ने अपने हाथों संपन्न किया। वह स्वयं इन पाँचों को पढ़ने-लिखने की औपचारिक कला के साथ जीवन विद्या सिखाती उन्हें यह भी सिखाया जाता कि जिंदगी की समस्याओं से किस तरह जूझा और उबरा जाय। शिक्षा के साथ स्वावलंबन का भी क्रम चलता।

शिक्षा और स्वावलंबन का अभाव ही है, जिसकी वजह से पर्दाप्रथा, अनुभवहीनता एवं सामाजिक कुरीतियों में आधी जनसंख्या बेतरह जकड़ी हुई है। इस पराधीनता का एक रूप यह भी है कि उसे पर्दे में, पिंजड़े में, बंदी गृह की कोठरी में ही कैद रहना चाहिए। इस मान्यता को अपनाकर विश्व जननी अबला की स्थिति में पहुँच चुकी है। आक्राँताओं का साहस पूर्वक मुकाबला करने की बात तो दूर अब तो आड़े समय में अपना और अपने बच्चों का पेट पाल सकने तक की स्थिति नहीं रही है। व्यापार चलाना बड़े-बड़े पदों की जिम्मेदारी सँभालना तो दूर, परिवार व्यवस्था से जुड़े साधारण कामों में, हाट, बाजार, अस्पताल तथा अन्य किसी विभाग का सहयोग पाने के लिए जाने में गूँगे-बहरों की तरह व्यवहार करती हैं।

इन परिस्थितियों में बदलाव आना तब तक मुमकिन नहीं जब तक महिलाओं में आत्म बल नहीं जगता। साथ ही नारी के प्रति-मातृ शक्ति के प्रति जन श्रद्धा का जागरण नहीं होता। गायत्री तपोभूमि के निर्माण के साथ इन दोनों कार्यक्रमों को आँदोलन के स्तर पर चलाने की बात सोची गई। नारी आत्म बल संपन्न बने इसके लिए सामान्य सामाजिक प्रयासों के अलावा साधनात्मक उपक्रम भी आवश्यक हैं। इसी को पूरा करने के लिए महिलाओं को गायत्री जप का अधिकार दिया गया। इसका उपयोग सबसे पहले माताजी ने स्वयं किया। फिर गुरुदेव के साथ देशभर में घूम-घूम कर हजारों-हजार महिलाओं को गायत्री मंत्र में दीक्षित किया।

यों गायत्री मंत्र सविता उपासना का मंत्र है। विभिन्न संप्रदायों में इसकी उपासना की अनेक-पद्धतियाँ-विधियाँ देखने को मिलती हैं। परंतु गुरुदेव-माताजी को तो वह उपासना विधि प्रचलित करनी थी जिसे मातृ शक्ति के प्रति जन भक्ति जाग्रत हो। इसी को लक्ष्य करके गायत्री माता की साधना का प्रचार हुआ। ऋषि युग्म के तप प्रभाव से गायत्री शक्ति युग शक्ति बनकर अवतरित हुई। इस काम में संकट कम नहीं आए पंडे, पुजारियों, धर्माचार्यों ने कम विरोध नहीं किया। विरोध का यह क्रम अपमान-तिरस्कार तक ही सीमित नहीं रहा। मृत्यु संकट के कुचक्र भी खड़े किए गए। पर जिसका लक्ष्य ही आत्म बलिदान हो उसने संकटों की कब परवाह की है?

समाज के इन ठेकेदारों ने अपने कुचक्रों के कारण नारी की स्थिति पंख कटे पक्षी की तरह कर डाली है। यद्यपि आज के इन प्रचलनों का प्राचीन भारतीय संस्कृति के साथ कोई ताल-मेल नहीं बैठता स्वर्ग-नरक आकाश-पाताल में जितना अंतर है उतना ही नारी के प्रति प्राचीनकाल में उच्चस्तरीय श्रद्धा रखे जाने और सुविधा दिए जाने की स्थिति में और इस हेय प्रतिबंधन की स्थिति में समझा जा सकता है। सामंती युग के इन अवशेषों ने जिसे नरक का द्वार कहकर उपेक्षणीय ठहराया। वैदिक ऋषिगण उसी की प्रशंसा करते नहीं अघाए। एक स्थान पर तो शास्त्रकार ने यहाँ तक निःसंकोच भाव से कह दिया

नारी त्रैलोक्य जननी, नारी त्रैलोक्य रूपिणी। नारी त्रिभुवनाधारा, नारी शक्तिस्वरूपिणी॥

इसका सबसे बड़ा प्रमाण वैदिक भारत में ईश्वर की मातृ रूप में प्रतिष्ठा है। माँ की गरिमा एवं महत्ता को समझ कर ही ऋषियों ने मातृशक्ति की आराधना एवं पूजा का विधि-विधान बनाया। बुद्धि-विवेक से संपन्न मनुष्य ने सभ्यता की ओर जैसे ही कदम रखना प्रारंभ किया, उसके दिमाग में यह सवाल उभरा वह आया कहाँ से? यहीं से माँ के प्रति श्रद्धा भाव उत्पन्न हुआ और ईश्वर को आदि जननी मानकर आराधना प्रारंभ की। यहीं से प्रेरणा पाकर संसार की सभी संस्कृतियों में मातृशक्ति की उपासना किसी न किसी रूप में प्रचलित है।

चाहे वह इटली की फारचुना के रूप में, रोम की साइवेले ग्रीक की हरा, मध्यपूर्व की मान्ट हो, अथवा उत्तरी अफ्रीका की तिवायत। मैक्सिको की एसिस हो, यूनान में अनोन्का सीरिया में अरन्टीटें, मोआब में आख्तर और अबीसीनियाँ में आसार के नाम से नारी शक्ति ही पूजित रही है। बेबीलोन में यही अर्चना ‘लाया’ और मिश्र ने आइसिस के रूप में संपन्न की। प्रायः विश्व के हर कोने ने परमेश्वर को नारी के रूप में पूजित कर नारीत्व के प्रति अपने श्रद्धा-सुमन अर्जित किए हैं और इसकी प्रेरक शक्ति भारत भूमि रही है।

गायत्री महाशक्ति की उपासना का क्रम और कुछ नहीं प्राचीन का नवीनीकरण था। नारी शक्ति को महाशक्ति बनाने का उपक्रम था। गायत्री साधना से आत्मबल प्राप्त करके महिलाएँ समाज में अपना बहुमुखी विकास कर सकें। इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर शाँतिकुँज की स्थापना हुई। इस भाव पूर्ण प्रयास को गुरुदेव के शब्दों में कहें तो-’शांतिकुंज की स्थापना का मूल प्रयोजन माताजी के मार्गदर्शन में महिला जागरण अभियान का आरंभ करके उसे नारी के समग्र उत्कर्ष को अनेकानेक गतिविधियों को विश्वव्यापी बनाना है।’

शाँतिकुँज की स्थापना के तुरंत बाद पूज्य गुरुदेव तो तप साधना के लिए हिमालय चले गए। यहाँ माता जी ने नारी के अभ्युदय एवं विकास के लिए अनवरत साधना का क्रम अपनाया। अनेकों कन्याओं को उन्होंने इसमें भागीदार बनाया। पहले इन लड़कियों की संख्या चार थी, बाद में चौबीस हुई, बाद में बढ़ते-बढ़ते सौ से भी अधिक पहुँच गई। साधना के साथ इन लड़कियों के शिक्षण का काम भी वह स्वयं संपन्न करती रहीं। शिक्षण के इस क्रम में औपचारिक शिक्षा के साथ संगीत-कर्मकाण्ड, पौरोहित्य के साथ वक्तृत्व कला का भी समुचित स्थान रहता।

उन दिनों शाँतिकुँज का कलेवर इतना बड़ा न था। सिर्फ दो-तीन कमरों का छोटा सा परिसर था। आस-पास वनप्रांत, निकट में बहती गंगा की जलधारा, इस सब की सुरम्यता अनुभव ही करने योग्य थी। शब्दों में भला वह सामर्थ्य कहाँ कि इसका वर्णन कर सकें। जैसे-जैसे लड़कियों की संख्या बढ़ती गई नए भवन भी विनिर्मित होते गए। बाद में गुरुदेव के वापस आने पर विधिवत देवकन्या प्रशिक्षण विद्यालय आरंभ किया गया। जिसकी मुख्य अधिष्ठात्री भी माताजी स्वयं थीं।

उनके द्वारा प्रशिक्षित की गई कन्याओं ने सारे देश में कार्यक्रम संपन्न करके नए कीर्तिमान स्थापित किए। पंद्रह से अठारह साल की इन भोली-भाली मासूम कन्याओं का उद्बोधन सुनकर लोग आश्चर्यचकित रह जाते। ऐसा ही एक कार्यक्रम लखनऊ में संपन्न हुआ। इस कार्यक्रम में उस समय के उत्तर प्रदेश तत्कालीन राज्यपाल एम. चन्ना रेड्डी भी उपस्थित हुए। कार्यक्रम की समाप्ति पर वह इन कन्याओं से मिले, पूर्ण जानकारी प्राप्त की। जानकारी मिलने पर उन्होंने कहा-आप लोगों के कार्यक्रम ने मुझे बहुत प्रभावित किया है। मैं माताजी एवं गुरुजी से मिलने शाँतिकुँज जरूर आऊँगा और कुछ समय बाद आए भी। माताजी से मिलने पर बड़े भाव विह्वल स्वर में बोले-धन्य हैं आप, जिसने ऐसी कन्याएँ प्रशिक्षित कीं। वैदिक साहित्य में घोषा अपाला के बार में पढ़ा था आज देख भी लिया।

देवकन्या प्रशिक्षण के साथ वंदनीय माताजी ने पूज्य गुरुदेव के सहचरत्व एवं संरक्षण में विधिवत नारी जागरण अभियान शुरू किया। इसे शुरू करते हुए उन्होंने कहा-हमारे नारी जागरण का मतलब है संवेदनाओं का जागरण और भावनाओं का विकास। इसे पश्चिम का ‘नारी मुक्ति आँदोलन’ समझने की भूल न करनी चाहिए। जिसके अंतर्गत नारी पुरुष बनने के लिए उतारू है। पुरुषों ने पहले ही क्या कम उलझने पैदा कर रखी हैं? इन्हें पुरुष बनकर नहीं सुलझाया जा सकता। इन्हें सुलझाने के लिए तो महिलाओं को अपने अंदर मातृत्व का विकास करना होगा। इस अभियान के क्रिया−कलाप उन्होंने चार भागों में बाँटें-

(1) साहित्य प्रकाशन (2) नारी शिक्षण सत्र (3) संगठन द्वारा संघ शक्ति का उदय (4) रचनात्मक कार्यक्रमों का व्यापक विस्तार।

उनके द्वारा चलाया गया यह सिलसिला अभी तक चल रहा है। वह भले ही आज स्थूल रूप से हम सबके बीच नहीं हैं, परंतु उनका शक्ति प्रवाह यथावत है। जिससे ऊर्जा पाकर नारी जागरण अभियान की गति और अधिक तेज हुई है। इसका प्रमाण आँवलखेड़ा अर्ध पूर्णाहुति समारोह में हमें उस समय देखने को मिलेगा जब शाँतिकुँज में प्रकाशित ब्रह्मवादिनी महिलाएँ एक विराट अश्वमेध यज्ञ के समारोह का संचालन करेंगी।

वंदनीय माताजी के श्रद्धाँजलि पर्व पर उठाया जाने वाला यह कदम, उनके द्वारा शुरू किए गये कार्य का ही विराट-विस्तार है। जिसे देखकर हर कोई अनुभव कर सकेगा-’नारी ब्रह्मविद्या है, श्रद्धा है, शक्ति है, पवित्रता है, कला है और वह सब कुछ है जो इस संसार में सर्वश्रेष्ठ के रूप में दृष्टिगोचर होता है। नारी कामधेनु है, अन्नपूर्णा है, सिद्धि है, ऋद्धि है और वह सब कुछ जो मानव प्राणी के समस्त अभावों, कष्टों एवं संकटों को निवारण करने में समर्थ है। यदि उसे श्रद्धा सद्भावना के साथ सींचा जाय तो यह सोमलता विश्व के कण−कण को स्वर्गीय परिस्थितियों से ओत-प्रोत कर सकती है।


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