बच्चों! यह न समझना तुमसे, चली गयी मैं कोसों दूर। आँखें बंद करो-पाओगे, अपने को मुझ से भरपूर॥
जाना पड़ा-कि तन में रह कर, अर्जन थोड़ा होता था। यह आत्मा दुखती थी जब, कोई भी बच्चा रोता था॥
अब हम-सूक्ष्म लोक के वासी, खूब कमाकर भेजेंगे। तुम लाखों बच्चों का सुख, संसार सँवार सहेजेंगे॥
बस, तुम काम मिशन का करते रहो, तथा कहलाओ शूर॥ आपस में सब मिलकर रहना, कहीं दरार न आ पाये। प्यार बाँटने की परंपरा, इस माँ की ना मिट जाये॥
सब अपने हैं, घर अपना है, सब कुछ वत्स! तुम्हारा है। योग्य बन गयी संतति ऐसा, दृढ़ विश्वास हमारा है॥
है संतोष यही कि गलत कमलों में, नहीं भरा है नूर॥ हाँ मजबूरी थी, जाना था, हमको जन मंगल के हेतु। बनवाना रावण दलन को, था फिर से इस युग में सेतु॥
हमको भी कम नहीं वेदना है, बालको! बिछुड़ने की। पर न ठीक था बात व्यर्थ ही, महाकाल से लड़ने की॥
कर लो तुम भी यह संतोष कि, ले भागा कोई “अक्रूर”॥ किंतु कहाँ रह सकते हम, माधुर्य भाव का वृज तजकर। शाँतिकुँज में तथा तुम्हारे, हृदयों में हम रहे बिखर॥
कृष्ण कहाँ थे दूर गोपियों से, या मातृ यशोदा से। उनका प्राण वहीं था-पूछो, उस कदम्ब की छाया से॥ उसी प्राण को अमर कर गये, अग्रगण्य कवियों में-”सूर”॥
-माया वर्मा