मातृवाणी - विशिष्ट वसंत पंचमी व्याख्यान (1989)

February 1995

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इस विशेषाँक में हम दे रहे हैं परम वंदनीय माताजी के श्री मुख से दिया गया वसंत पंचमी का विशेष उद्बोधन संदेश। 1986 के उद्बोधन के बाद परम पूज्य गुरुदेव कभी शाँतिकुँज में मुख्य प्रवचन मंच पर नहीं आए। उसके बाद यह उत्तरदायित्व माता जी ने ही सँभाला। यह उद्बोधन विशिष्ट भी है, प्रेरणादायी भी। पढ़ें! मातृवाणी।

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ बोलें-ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

हमारे आत्मीय परिजनों! आज वसंत पर्व, उल्लास का पर्व है। यह गुरुजी का जन्म दिन है, बहुत हँसी खुशी और प्रसन्नता-प्रेरणा का पर्व है। आज से ठीक 63 वर्ष पूर्व उनके जीवन में एक क्राँति आई, और उस क्राँति के नाम पर ही उनका नाम पर ही उनका यह जन्म दिन है, और उसी को समर्पित है। क्राँति आई उनके जीवन में उनके गुरुदेव के रूप में, छाया के रूप में, और प्रेरणा के रूप में एवं वही उनका जन्म दिन हो गया। यों तो वह 80 वर्ष के लगभग हो गये, उस दिन को जब वे जन्मे हम जन्म दिन नहीं मनाते। यही जन्मदिन है, जो उनका आध्यात्मिक जन्मदिन है, इसी को हम मनाते हैं और हर वर्ष एक नया संकल्प लिया जाता है, उसी संकल्प को पूरा करते हैं। इसी को उन्होंने जीवनभर जन्म दिन माना। लाखों ने हम से दीक्षा ली है और संभव है उनसे, गुरुजी से कभी ली होगी। अब तो वे दीक्षा नहीं देते किंतु छाया के रूप में सतत् हमारे साथ रहते हैं। मैं समझती हूँ कि उनसे यानी गुरुजी से जिन्होंने दीक्षा ली है लाखों ने संभव है कलावा बंधवाया होगा। मंत्र दीक्षा ली होगी पर क्रिया के रूप में वे उतार पाये क्या? मैं समझती हूँ, अधिकाँश नहीं उतार पाये। लेकिन उन्होंने जिस दिन से अपना दीक्षा का दिन माना उसके बाद उनने जिया। उन का सारा का सारा जीवन क्रम परिवर्तित होता चला गया। कहते हैं कि च्यवन ऋषि जवान हुए थे। मालूम नहीं कि वे जवान हुए थे या नहीं हुए थे। बुढ़ापा तो आखिर बुढ़ापा ही होता है। अवस्था भी एक अवस्था ही होती है। झुर्रियां भी पड़ेंगी, कमर भी झुकेगी, लेकिन एक माने में वे जरूर जवान हो गये होंगे। जिसका मतलब है उत्साह, जिसका मतलब है शक्ति। शक्ति जिस व्यक्ति के अंदर है वह कभी बूढ़ा नहीं होता, गुरुजी कभी बूढ़े नहीं हो सकते। वे न तो आज बूढ़े हैं और न हजार साल बाद बुड्ढे होंगे। यह शरीर तो रहेगा नहीं, सूक्ष्म रूप में रहेगा कहीं न कहीं। यह तो भगवान मालिक है जिसने तय किया है कि जिसने जन्म लिया है वह नहीं रहने वाला। यों तो हम जायेंगे ही लेकिन यह कलंक का टीका लेकर नहीं जायेंगे कि एक ऐसे महामानव हुए जो बूढ़े होकर के गये। बूढ़े होकर के नहीं जवान, जवान। हर समय उनके नस और नाड़ियाँ बेटो! इस रूप से फड़फड़ाती रहती हैं, हर दिशाओं में। आध्यात्मिक क्षेत्र से लेकर, सामाजिक क्षेत्र तक उनको परिवर्तन ही परिवर्तन दिखाई देता है। वही है उनकी तपश्चर्या। जब से उन्होंने शुरू की अपनी साधना तब से कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा, हमेशा आगे की लाइन में चले। उन्होंने कहा कि क्राँति करेंगे तो जन क्राँति करेंगे। आध्यात्मिक क्षेत्र में क्राँति है तो क्राँति है इसको कोई पीछे नहीं हटा सकता। अवरोध तो आते ही रहते हैं। अवरोधों की परवाह उन्होंने नहीं की। जो आगे-आगे चलता है वह विजेता होता है और जो पीछे चलता है उसका कोर्टमार्शल होता है और वह भगोड़ों में गिना जाता है। वे भगोड़ों में नहीं गये, वे हमेशा आगे की पंक्ति में गिने गये। वे महामानवों में गिने गये। जहाँ कहीं संसार में महामानवों की गिनती होगी उनमें गुरुजी की होगी, बिलकुल होगी। मैं तो यह कहती हूँ कि वे देवताओं के समतुल्य, भगवान के समतुल्य हैं। लोग कहेंगे कि आप भगवान घोषित करती हैं, मैं तो भगवान से भी ऊपर का कहती हूँ और आगे बढ़ा सकती हूँ क्यों। आप इतना बड़ा शब्द बोलती हैं? अरे बेटो तुम साथ में नहीं रहे। जिंदगी का कितना बड़ा अरसा मैंने उनके साथ बिताया है। आप उन गहराइयों में नहीं जा सकते, जिन गहराइयों में मैं गई हूँ और उनसे जुड़ी हूँ। साथ उनके हर क्षण। हम दोनों एक प्राण हैं। एक प्राण की तरह से हम घुले। हमें मालूम है कि कहाँ से कहाँ तक मंजिल पार करके आये। आप उन बातों को सुनेंगे? मैं आपका समय बरबाद नहीं करूंगी, अरे माता जी तो गुरुजी की तारीफ करने ही बैठी हैं और इन्हें कोई काम ही नहीं है, हाँ मुझे तारीफ करने दीजिये और यह तो वास्तविकता है, तारीफ नहीं है।

जिस दिन से उन्होंने पग बढ़ाये आध्यात्मिकता के क्षेत्र में वह कितनी महान क्राँति थी। आज तो दुनिया नहीं समझ सकेगी, गाँधी जी जब तक सामने रहे तब तक लोगों ने उनकी कीमत नहीं समझी, लेकिन जब चले गये तो उन्हें मालूम पड़ा गाँधी जी क्या थे? गुरुजी के भी पीछे यही मालूम पड़ेगा कि एक महामानव आया। आखिर कौन था, क्या था? आपको नहीं मालूम पड़ेगा। वह भगवान की एक शक्ति थी जो आयी थी और वह एक ऐसी जबरदस्त शक्ति थी जो संसार को हिला देने में समर्थ थी, और उसने वही कार्य किया जो करना चाहिये। यों तो भगवान की शक्ति हर मनुष्य में होती है, पर उस शक्ति का उपयोग सब कोई नहीं कर पाता और जिस सत्ता से जुड़े हुए हैं, उसका लाभ नहीं उठा पाते, यह उनका दुर्भाग्य कहिये या नासमझी कहिये या प्रलोभन कहिये, जो भी आप उसको उपमा दें दे सकते हो, वह आप दीजिये, सही बात यह है कि लोग समझ ही नहीं पाते। अपनी शुद्र बुद्धि से केवल क्षणिक लाभ ही उन्हें दिखाई पड़ता है पारलौकिक संपदायें हैं, किसी को नहीं मालूम? विश्व मानव के रूप में जो भगवान हैं, इसकी सेवा हमको दिखाई नहीं पड़ती। नहीं हमें दिखाई नहीं पड़ती। तो कौन-सी दिखाई पड़ती है, वो दिखाई पड़ती है जिनसे हम जुड़े हुए हैं जिनको हम दो पाँच अपने कुटुँबी कहते हैं। उन्हीं में हमारा सारा का सारा जीवन निकलता चला जाता है और एक रोज मरकर हम मौत की भट्टी में चले जाते हैं, कोई अर्थ है? कोई अर्थ नहीं। कोई अस्तित्व नहीं। अस्तित्व तब है, जब मनुष्य अपने जीवन के प्रति जागरूक होता है, सतर्क होता है और उसे भान होता है कि हम किस लिए आए थे? भगवान ने हमको भेजा है आखिर किस उद्देश्य के लिए किस कार्य के लिए भेजा है? यह भूल जाते हैं, उन्होंने उसे गाँठ बाँधकर रखा, कि मुझको जो भेजा रहा है किसी विशेष उद्देश्य के लिए किसी विशेष लक्ष्य के लिए, किसी विशेष कार्य के लिए भेजा गया है, तो वे हर तरीके से गुरु की आज्ञा का पालन करते रहे। उन्होंने उनकी वाणी का महत्व समझ लिया। जो प्रेरणा उनसे मिली, इसके अलावा मुझे कुछ करना ही नहीं है, पीछे मुड़कर देखना ही नहीं। उसे क्या देखना है? आगे की जिंदगी को देखना है, विश्व को देखना है, वर्तमान को क्या देखना है, आगे जो भविष्य है, इसका क्या होगा? जो आज ये समय चल रहा है इसके प्रति कितने चिंतित हैं नहीं मालूम। जितने वो चिंतित हैं, उतने ही आशावादी भी हैं। आशावादी भी हैं कि “21 वीं सदी उज्ज्वल भविष्य” लेकर के आ रही हैं। ये कम नहीं है कि जो भयावह स्थितियाँ हैं परिस्थितियाँ हैं वे दिखाई दे रही हैं देश की, विदेश की, राष्ट्र व अंतर्राष्ट्रीय समस्यायें उनसे आप भी वाकिफ हैं क्योंकि आप लोग भी पढ़े लिखे हैं, और आप बुद्धिजीवी हैं। आप पढ़ते हैं-समझते हैं आपको मालूम है कि कैसा समय गुजर रहा है। तो इस समय में, हम क्या कर सकते हैं, वह सारा का सारा उनके दिमाग में एक नक्शे की तरह से है।

जो दिन भर वे कमाते हैं शाम को पल्ला झाड़ देते हैं। सब का सब दे डालते हैं और बेटे जिनको यह रहता है कि उनको देना नहीं है हमको तो अपना जोड़कर ही रखना है ऐसा संभाल कर रखना है कि चोर न ले जायें, डकैत न ले जावें उनका क्या कहना और बच्चों सही पूछो तो ले ही जाते हैं। एक लड़की आई थी बोली माताजी मेरा इतना नुकसान हो गया, तो मैंने कहा कि क्या किया था तूने? मेरा यह था कि भगवान के चरणों में रखूँगी और अपनी लड़की की शादी में लगाऊँगी इसको। जो तेरी नियत थी, सो हो गया, वह मुड़कर गई और चोर उठा ले गये उसको। तू लगाती अपनी लड़की की शादी में, वह और किसी की लड़की की शादी में लग गया, क्या फरक पड़ता है, कभी यह भी सोचा क्या, कि सारा का सारा समाज यह भी अपना अंग है यह भी तो हमारा ही है। इसके प्रति कुछ जिम्मेदारियाँ हैं, देख। गुरुजी ने जिम्मेदारियाँ समझीं, कि जो दौलत के रूप में मिला उसे सारे समाज का समझना है बेटा कौन-सी दौलत के रूप में मिला? आध्यात्मिक दौलत के रूप में मिला, पैसे के रूप में नहीं, पैसे की कभी अपेक्षा नहीं की, पर आता ही गया, कोई काम रुका भी नहीं, कोई काम रुका है, नहीं। इतने बड़े-बड़े संकल्प उन्होंने जिंदगी में किये हैं, वह सारे के सारे पूरे हुए हैं, अपने लिए किये होते तो एक आध कोठी होती, बंगला होता, राजनीति में बने होते तो न जाने क्या बन गये होते। मंत्री-वंत्री इतने ही बने होते। उन्होंने आध्यात्मिक जिंदगी में प्रवेश किया तब, इसमें आगे बढ़े अपनी संकीर्णता को छोड़ा, तब क्या कमी है इतनी बड़ी दौलत है कि यदि आपको गिनाने बैठें बेटे, तो पसीना आ जायेगा, इतनी दौलत है कि बस आप से क्या कहें, करोड़पति नहीं, अरबपति नहीं जो भी आप कहें इतने बड़े हिन्दुस्तान में इतनी दौलत नहीं, सारी दुनिया की दौलत हमारे पास है। हम इतने जबरदस्त दौलतमंद हैं वह दौलत कहाँ है माता जी, आप तो कहती हैं कि हमारे दोनों का कहीं अकाउन्ट नहीं है, मगर राज को हम जानते हैं आप नहीं जानते। ये जानते हैं कि आप ही तो ट्रस्टी हैं, लाओ साइन करा ले जायें, करा ले जा बेटे, क्या सब मिल जायेगा तुमको खाली हाथ ही लौटना पड़ेगा तुझे क्या पता हमारी दौलत का। हमारे पास वह दौलत है जो सामने बैठी है जो सामने बैठी है यह है, इतनी दौलत, पैसे के रूप में मिली और हमें परिजनों के रूप में मिली उनके प्यार के रूप में मिली। आखिर यह कहाँ से आई? कहाँ से माताजी, यह गुरुमंत्र हमें बता दो तो हम भी दौलत खोदकर ले जावें, नहीं बेटे वह नहीं ला पाओगे, अपने को जब इतना विशाल बना लोगे तब ला पाओगे। इतना विशाल जितना तुम्हारे गुरुजी। अपने को गुरुजी की तरह बनाइये, ऐसा विशाल।

एक आपको छोटी-सी घटना बताती हूँ मैं ज्यादा तो नहीं बताऊँगी क्योंकि अपने जीवन की पर्तें, खोलनी चाहिए, जरूरी है क्या? कोई जरूरी नहीं। लेकिन प्रेरणा के रूप में यदि आप ग्रहण करना चाहें तो आप कर भी सकते हैं कि गुरुजी अज्ञातवास गये और मेरे लिए मनाही थी, कि तुम न आना, मुझे मालूम नहीं था कि कहाँ हैं वहाँ तक की बात अलग है जब मालूम पड़ा अमुक स्थान पर हैं, पर मेरे लिये जाना वर्जित कर दिया था और यह कहा था, कि तुम आना मत, क्योंकि तुम्हारी तबियत खराब हो जाती है, जाने कहाँ से कहाँ पैदल चलना पड़ेगा। जबकि उन्होंने जितना पूजा उपासना का महत्व दिया, समाज सेवा को दिया उससे कम मुझे नहीं दिया मैं ऐसा समझती हूँ अपने मन में, मेरा मान और सम्मान किया, इतना कि मैं योग्य नहीं हूँ जितना कि उनके हृदय में मेरा सम्मान है। हाँ अपार सम्मान है दुःख का दर्द का इतना ध्यान रखते हैं कि शायद ही कोई खुशनसीब उन महिलाओं को भी जिनका पति ख्याल रखता होगा। मेरा तो पति नहीं, परमेश्वर ही है, परमेश्वर ही है, यही कहूँगी। हाँ तो मैं नहीं मानी, मैं चली गई, जाकर के ठहर गई जब कि मुझे मालूम नहीं था कि कहाँ हैं पर ढूँढ़ा व पहुँच गयी। मैं जाकर के जब ठहरी तो देखा कि कुछ पत्तियाँ उबली हुई रक्खी हैं। कुछ खा गये कुछ रक्खी थीं, उनमें नमक भी ज्यादा था, सामने बैठ गये। स्वयं बोलें क्या लाऊँ, मैं तुम्हारे लिये? मैंने कहा कि जो मैं चाहती थी वह मिल गया। मुझे शेष क्या चाहिये। खाने को चाहिये। इतना मेरा कहना था कि मेरे आँसू निकल पड़े उसमें से एक पत्ती अपने मुँह में डाली, वह इतनी कड़वी थी जिसका मैं वर्णन नहीं कर सकती और मैंने उस पत्ते को उतार लिया मैंने कहा, मैं तो घर में बैठी रही, और बच्चों का पालन पोषण करती रही, जो उनका आदेश था, कि हमने इतना विशाल परिवार बनाया है, इस परिवार की तुम माँ हो, तुम माँ हो, यदि तुम मेरे साथ चलती हो तो यह बच्चे छूट जायेंगे, तुम्हें यह देखना है, तो मैंने कहा जो आपकी आज्ञा है वही मेरे लिए शिरोधार्य है और मैंने आप सबको छाती से लगाये रखा। मैंने कहा कि जो कहा है उसी का पालन होगा मैं बस पानी पीकर उठ गई। इतने गहन चिंतन में चली गई कि मैंने सब कुछ खाया एक साल में और खिलाया भी, और इन्होंने कि तरीके से एक साल निकाला यहाँ। तो बेटी। जब से उन्होंने होश संभाला होगा, उनका जिह्वा पर इतना कन्ट्रोल है, तभी उनकी सरस्वती है आज सरस्वती का जन्म भी है, कला के भी पुजारी हैं तो उनकी जबान पर सरस्वती है जो कह देते हैं, पूरी हो जाती है? आखिर कैसे हो जाती है और क्यों हो जाती है? मैं आपको सुना रही हूँ कि इसलिए हो जाती है कि अपनी जीभ को ऐसे कस रखा है जैसे जम्बू से कस लेते हैं, उतना उनको पर नियंत्रण है, तपस्या पर उनको विश्वास है, गुरु के प्रति आस्था है और श्रद्धा है, जो उनको मिला है उपहार में। कितना मिला है, मिलता हुआ, चला जा रहा है और मिलता हुआ चला जायेगा। आप देखना कि कितना मिला हुआ चला जाता है। कभी अपने लिए उन्होंने चार पैसे भी खर्च नहीं किये। कभी भी उन्होंने अपने आप लाकर कपड़ा नहीं पहना कभी अपने आप लाकर खाया नहीं मैं ही कपड़ा लाती रही हूँ। है तो सब उन्हीं का, मैं तो निमित्त मात्र हूँ लेकिन मैं बताती हूँ उन्होंने कभी भी भौतिक चीजों को महत्व नहीं दिया और एक से एक बड़ा व्यक्ति उनके संपर्क में आता हुआ चला गया। जो लोग ये देखते नहीं, जो ये सोचते हैं कि जो कुछ है हमारा शरीर ही है, जो है वह भौतिक सुविधा है, जो हमको आज मिल रही है वही हमारे जीवन की श्रेष्ठतम है उनके लिए क्या कहूँ बस! मैंने तो आपको गुरुजी का उदाहरण दिया, शिक्षा नहीं यह वह पर्व है कि आप गुरुजी के जन्म दिवस पर शामिल हुए। शामिल हुए हैं तो आप संकल्प लीजिये कुछ करके दिखाइये। उन्होंने अपने जीवन में करके दिखाया है आप भी करके दिखाइये नहीं दिखायेंगे तो आप पछताते रहेंगे कि एक व्यक्ति आया उसने कहा कि मुझे कुछ दीजिये, मेरी झोली में डालिये। मन ने कहा-नहीं। अरे अतिथि ने कहा कि आपकी झोली भरी हुई है अरे उस में से कुछ तो डालिये, लेकिन संकीर्ण, मन कुछ न दे सका, एक दाना उठाया और हाथ में रख दिया उस भिखारी के, भिखारी लेकर चला गया, चला गया जो झोली अनाज से भरी थी, अब आकर के उसने देखा, तो उसमें एक दाना सोने का था, उसने सर पटका अरे मैं कितना मूर्ख था? जो घर आये भगवान को दे न सका क्योंकि यदि सारी झोली उड़ेल दी होती उसके तो सारे के सारे दाने सोने के हो जाते। यदि मेरा संकीर्ण मन न होता, पर अब क्या करूं,य मैंने एक दाना जो दिया था वही एक दाना आ गया सोने के रूप में।

ये भगवान की खेती है इस खेती में जैसा बोया जायेगा वैसा ही वह काटेगा। मक्का बोयेंगे एक दाना, तो हजार दाने के रूप में आ जायेगा। बाजरा बोयेंगे बाजरा आ जायेगा, जो बोयेंगे वही आयेगा। शुभ और अशुभ कर्म जो किये हैं उनके अनुसार ही मिलेगा, करते तो हैं अशुभ कर्म, चाहते हैं शुभ। ऐसे नहीं, जो करेंगे वही पायेंगे। बुरा करेंगे तो अनेक बुरे कामों का फल मिलता हुआ चला जायेगा। अच्छे करिये तो अच्छाइयाँ मिलती हुई चली जायेंगी। जन श्रद्धा वापस अपनी ओर उमड़ेगी। क्यों? सारी की सारी जिंदगी उन्होंने दाँव पर लगा दी उसी के लिये। लौट के आयेगी कैसे नहीं? गुँबज की आवाज, आवाज दीजिये, लौटकर जायेगी, पीछे आयेगी आपके पास ही आयेगी, आजा। जैसा आप बोयेंगे वैसा ही काटेंगे, बोया और काटा यह सिद्धाँत सही है, और जिसने बोया ही नहीं है बोना जानता ही नहीं है। पानी ही नहीं है भूमि बंजर है, भूमि उसकी उपजाऊ नहीं है, निराई गुड़ाई उसने की नहीं है, खाद लगाया नहीं है, अरे तो बीज कोई कहाँ तक डालेगा? बीज डालेगा भी तो सड़ जायेगा, क्योंकि उनके कुसंस्कार हैं, संस्कार नहीं हैं। संस्कार हैं तो ही वह शक्ति के रूप में जुड़ेगा। ऐसे भी व्यक्ति हुए हैं जो महामानव के साथ जुड़ करके महान होते हुए चले गये और ऐसे भी हुए हैं जो महामानव के पास रहे, पर जैसे के तैसे ही रहे ओर गये गुजरे ही रहे। ऐसा कैसे हो गया इनको मिली, उनको नहीं मिली, भगवान के यहाँ कभी पक्षपात नहीं होता, गुरु भी पक्षपात किसी के साथ नहीं करता। जितनी उसकी श्रद्धा होती है, और भावनायें होती हैं उतना ही उसे मिल जाता है। अर्जुन को भी भावनाएँ थीं जो द्रोणाचार्य से सीखा, एकलव्य की आस्था थी तो वह धनुर्विद्या में, उससे भी ज्यादा पारंगत हो गये, अर्जुन से भी ज्यादा पारंगत हो गए, क्योंकि उसकी श्रद्धा थी, उनने का कि मैंने शिक्षा गुरु बनाकर ली है, मेरे गुरु द्रोणाचार्य हैं। यही मुझे सिखायेंगे ओर उसने पा लिया, वरदान उसको मिल गया। मिलता उसी को है जो उनकी शक्ति के प्रति जागरूक होता है, जागरूक नहीं होता तो, वैसा का वैसा ही रह जाता। एक कहानी सुनाऊँ आप को। भगवान बुद्ध से एक शिष्य यह पूछने लगे कि ये बताइये कि महामानव कैसे बन जाते हैं, और छोटे से छोटा व्यक्ति महान कार्य कैसे कर लेता है बड़ा से बड़ा व्यक्ति क्यों नहीं कर पाता, इसमें लखपति, करोड़पति, राजा, महाराजा और बड़े-बड़े अधिकारी ही ये काम नहीं कर सकते और एक छोटे से घर में पैदा हुआ व्यक्ति किस तरीके से छलांग लगा सकता है और बलवान हो सकता है, उसे आत्मबल कैसे मिल सकता है, ये बात आप मुझे बताइये? थोड़ी देर सोचने लगे कि क्या जवाब दिया जाये इसको कैसे समझ में आये कि किस तरीके से शक्ति मिलती है, उस शक्ति का उपयोग करते भी हैं कि नहीं करते यदि आपने उसका सदुपयोग किया है तो शक्ति की कभी कमी नहीं पड़ेगी। बिलकुल कमी नहीं पड़ सकती, उसके अन्दर यदि विश्वास है कि जिससे हम जुड़े हैं उसकी शक्ति हमारे अन्दर आ रही है और वह काम कर रही है फिर देखें काम होता है कि नहीं होता है। हमारे तो जरा-जरा से लड़के हैं आपके इतने बड़े हैं जरा-जरा सी लड़कियाँ गई थीं हमने सन् 1975 में टोली निकाली थी वह तहलका मचा कर आईं। “जरा-जरा सी लड़कियाँ”। यह क्या सिखाकर के भेजा है। मालूम नहीं बेटे। वे देव कन्यायें थीं हमारी, जहाँ जाती थीं लोग दाँतों तले उँगली दबाकर रह जाते थे। जरा-जरा सी बच्चियाँ, क्या से क्या बना दिया है, अभी देखते जाओ क्या से क्या बनाते हैं। जो हमसे जुड़ा है, उसे हम क्या से क्या बनाते हैं। तो उनसे पूछा गया, बताइये? बुद्ध ने कहा अभी सुनाता हूँ। उन्होंने कहानी सुनाई एक राजा था। उसके यहाँ एक हाथी, हाथी था, लड़ाई के मैदान में जाता था। जब जवान था तब लड़ाई के मैदान में काम करता था। खूब काम किया, अब वह हो गया बुड्ढा जब बुड्ढा हो गया, बुड्ढा माने “नाउम्मीद” माने जिसके अंदर कोई हलचल, नहीं, उत्साह नहीं, तमन्ना नहीं कि हमें कुछ करना है, उसे बुड्ढा कहते हैं, हाथी ऐसा हो गया। उसे चारा मिले ना उसे पानी मिले, बेचारा तालाब के किनारे गया और तालाब में उसे पानी नहीं मिला, वह आगे बढ़ता हुआ चला गया और कीचड़ में धँसता हुआ चला गया, अब उससे निकलते ही न बने, निकलते नहीं बना तो उस समय एक सैनिक था बहुत होशियार उसने कहा निकलेगा, इसकी शक्ति का इजहार करना है तो उन्होंने वहीं फौजी पोशाक पहनकर के बिगुल बजाया, तो वह जो हाथी था, उसने सूँड चारों तरफ फेंकी। उनने और तेज आवाज की तो हाथी अपने आप निकल आया। लोगों ने कहा कि यह क्या हुआ। ये हुआ कि उसकी जो शक्ति सोई हुई थी, उसे जगा दिया, इसको जगा दिया उसे भान हो गया कि मुझ में क्या कमी है कि मैं बुड्ढा हो गया, मेरी अंतर आत्मा तो बूढ़ी नहीं हुई। जब मेरी अंतरात्मा बूढ़ी नहीं हुई है तो शरीर कैसे बुड्ढा हो सकता है। बेटे! शरीर बुड्ढा नहीं हो सकता, वह हाथी फिर लड़ाई के मैदान में चला गया, देखते ही रह गये लोग कि जिस बुड्ढे हाथी में जान नहीं थी जो पानी भी पीने में समर्थ नहीं था वही हाथी अब फिर लड़ाई के मैदान में चला गया, देखते ही रह गये लोग कि जिस बुड्ढे हाथी में जान नहीं थी जो पानी भी पीने में समर्थ नहीं था वही हाथी क्या अब लड़ाई के मैदान में लड़ सकता है?

वही शक्ति बेटो अब आपको भी दी जा रही है। आपमें यदि सामर्थ्य होगी और वास्तव में हाथी की तरह आप दल-दल-से-प्रलोभनों-से-लोभ-मोह की जंजीरों से निकल सकते हैं तो आप बराबर आगे बढ़ते चले जायेंगे। जो शक्ति हाथी के लिए नियत थी वह शक्ति आपके लिए भी है। आपमें तो और भी ज्यादा काम लेना है मैंने दो कहानी आपको सुनाई एक तो सुनाई सोने के दाने की, एक यह सुनाई शक्ति की। ये दो कहानियाँ आपको सुनाई हैं। आप इसको पल्ले से बाँधकर ले जाना। अरे ये क्या हुआ, हम तो वरदान लेने आये थे कहीं धन दौलत होगा, कारोबार में फायदा होगा, हम तो आज के दिन आशीर्वाद लेने आये थे यह क्या दे रही हैं हम तो आपको वही दे रहे हैं कि इसी के सहारे आपकी नाव चलती है, वो जो आप माँगने आये हैं क्षणिक हैं। ला वह दिलवा दूँगी, गायत्री माता से कहेंगे गुरुजी से कहेंगे आपकी झोली भर जायेगी, देखना न मानो तो जाकर देखना कि तेरे को मिला कि नहीं मिला। यहाँ जो काम कर रहे हैं सब के सब को फायदा होगा। फिर क्या होगा जहाँ के तहाँ रह जाओगे। आप वह चीज माँगिये जिससे, यह लोक और परलोक दोनों ही सुधर जायेंगे। जो शक्ति आपको मिले, उस शक्ति को विश्वमानस में बिखरते हुए चले जाओ, नहीं तो आप संकीर्ण हो जाओगे, हम अपने बच्चों को संकीर्ण देखना नहीं चाहते। ना हममें संकीर्णता है ना हम संकीर्ण देखना चाहते हैं, और जो संकीर्ण बनकर रहेगा, वो बेटा बौना हो जायेगा, शरीर की दृष्टि से छोटा हो जायेगा। क्योंकि आज की जो आवश्यकता है जो भविष्य की तरफ चेतावनी है उसकी तरफ नहीं देख रहे, अपना ही अपना राग अलाप रहे हैं, अपना-अपना राग अलापेंगे, आप उस संत से जुड़े हुए हैं जिसने कि सारी जिंदगी अपनी दाँव पर लगा दी अब आप उसके साथ हैं। जानते हो कि नहीं कि जो समूह में बैठे रहते हैं, जुआरी वहाँ जुआरी दाँव पर सब लगाता जाता है, उसी प्रकार हमने भी अपना जीवन दाँव पर लगा दिया है। जिस किसी में भी हिम्मत हो वह हमारे साथ चले और यह वायदा दे कि हम आपके जीवन के अंतिम छोर तक आपके साथ चलेंगे, आपको चलाते हुए चले जायेंगे। लेकिन अर्जुन की तरह? तो बेटे आपको उठना ही पड़ेगा, अर्जुन ने मनाकर दिया था यह कहा था कि सब मेरे भाई-भतीजे, कुटुँबी हैं, इनको मैं मारूंगा, मुझ से नहीं मारे जायेंगे। कृष्ण ने कहा अर्जुन तुमसे नहीं मारे जायेंगे, मार तो मैं एक क्षण में दूँगा, लेकिन श्रेय तुझे नहीं मिलेगा, मुझे ही मिलेगा। तू श्रेय ले, मारूंगा मैं। सारथी हूँ तेरे पीछे ये तो अंतःकरण है, विराजमान है अपने रूपों में। जब तक आप उनसे लड़ेंगे नहीं, नहीं मारेंगे इनका ही तो दमन करना है तो आप अर्जुन के तरीके से ज्ञान गांडीव उठायेंगे, अपने अंतर में जो कौरव विराजमान हैं। उनसे लड़ने के लिए, तब तक वह नहीं हो सकेगा जो हम चाहते हैं। जो हमारे अंतर में, समाज में, राष्ट्र में फैले हुए हैं उन कौरवों का कोई भी नाम ले सकते हैं, हम कौरव ही कहेंगे। इस महाभारत को, जीतने के लिये, अर्जुन को गाण्डीव उठाना ही पड़ेगा, अर्जुन जब गाण्डीव उठायेगा तब कृष्ण भी पीछे नहीं रहेगा, पीछे से वह धक्का लगायेगा, कि आनंद आ जायेगा, क्योंकि दायें बायें एक कृष्ण ही अकेले थे। यहाँ तो हम दो हैं, एक और एक दो नहीं एक पर एक ग्यारह। तुम्हारे साथ जब हम दो हैं तो फिर यह अजूबा काम नहीं कर सकता क्या? आप आगे की पंक्ति में नहीं आ सकते? आगे नहीं चल सकते? आपमें क्या कमी है? मेरी निगाह से पूछिये आप प्रत्येक में इतनी शक्ति भरी पड़ी है कि मैं आपसे क्या कहूँ? मैं आपसे कुछ कह नहीं सकती, इतनी अपार शक्ति आपको मिल रही है, यदि आपने इसका उपयोग नहीं किया तो उस सेठ के बच्चे के तरीके से आप पछताते रहेंगे जो सेठ मरते समय अपने बच्चे के गले में कंठा पहना गया था हीरों का और उसने यह कहा था कि अब तो चला चली का ही मेला है तो सेठ ने कंठा बाँध दिया, कि जब हम नहीं रहेंगे ये बच्चा इसमें से निकालता रहेगा और खाता रहेगा और इसके जीवन की नाव किनारे पर लग जायेगी। मैं भी सब के गले में कंठा बाँध दूँगी और बाँध भी दिया है, उसे आप खायेंगे या फेंक देंगे हमें नहीं मालूम क्या कोई और लाभ उठायेगा या आप उठायेंगे। हमें कुछ नहीं मालूम लेकिन आप कंठा बाँधकर जरूर जा रहे हैं। जब दोनों माता पिता नहीं रहे वह छोटा-सा बच्चा रह गया। बच्चा जब थोड़ा बड़ा हुआ तो भूखों मरने लगा, जब भूखों मरने लगा तो एक जौहरी जा रहा था उसने कहा इधर आना बेटे तुम गर्दन में यह क्या पहने हो? पता नहीं क्या है? मेरे माँ बाप पहना कर गये थे, उसमें से एक दाना निकाला और एक दाना बेच करके आ गये। वह तो लाखों का बिका, अरे बेवकूफ! तू तो क्या तेरी पीढ़ी दर पीढ़ी खाती हुई चली जायेगी यह तो इतनी दौलत है बेटे। आज वही दौलत देते हुए जा रहे हैं कि अब जो दौलत आपको दी है आप को ब्याज दर ब्याज होता हुआ चला जायेगा। सारे समाज को लाभ मिलना चाहिये अब उसको हम ही खा लेंगे। नहीं उसे तुम अकेले नहीं खा पाओगे आप लाभ लीजिये और दूसरों को लाभ दीजिये। यह कहानी मैंने आपको बताई जो अनुदान और वरदान मिलते हैं जाने और अनजाने में, झोली भरती हुई चली जाती है और हम उसको नहीं समझ पाते। देने वाला तो हमें इतना देता है पर हम क्या करें। गाने की एक कड़ी याद आ रही है-”बहुत दिया देने वाले ने मुझे, आँचल ही में न समाये तो क्या॥” देने वाले ने तो इतना दिया है, शरीर के रूपों में, हम करोड़ों की संपत्ति से ज्यादा लेकर बैठे हैं हमारे अंग का एक भी हिस्सा खराब हो जाता है तो कितना कष्ट होता है, इतना अनुदान और वरदान से हमारी झोली को भर दिया है, आँचल में ही न जाने कहाँ-कहाँ फेंकते फिरते हैं। हमारा चिंतन न जाने किधर को बखेरते फिरते हैं, कहाँ से मारे कहाँ चलते रहते हैं, हम सोचते ही नहीं, अपने जीवन के बारे में कि हमारा जीवन हम काहे के लिए पैदा हुए थे और किस तरीके से इसका श्रेष्ठतम उपयोग हो सकता है। यदि गहराई से विचारें तो एक-एक क्षण इतना मूल्यवान है कि करोड़ों की संपत्ति एक क्षण के ऊपर फेंकी जा सकती है। यदि इजहार करें तो इतना मूल्यवान यह समय है, समय यदि निकल गया तो पछताते रह जायेंगे अभी लड़कियाँ गाना गा रहीं थीं-”साधना सिर पटकती रहे जिंदगी भर, सिद्धि ऐसी कभी भी नहीं पाएगी।”

हाँ बेटे जिंदगी भर पछताना ही रह जायेगा कि हम इस जिंदगी का सही उपयोग न कर सके क्योंकि जो हमको करना चाहिये या वह हमने किया नहीं। पतन और पीड़ा के रूप में सारा समाज चिल्लाता रहा। सारा राज्य सारा विश्व हमारी तरफ देखता रहा, कहता रहा कि एक संत दुनिया में पैदा हुआ था, जिसने यह बीड़ा उठाया था कि हम सारे संसार में क्राँति लाकर रहेंगे और वह करेंगे बौद्धिक क्राँति। बौद्धिकता से व्यक्ति पंगु हो गया है, बच्चे को लकवा हो गया है, पोलियो हो गया है, इसका उपचार होना चाहिए हम इसको देकर के रहेंगे। लेकिन हाय रे कैसे दुर्भाग्यशाली निकले कि हम उसका जरा भी उपयोग न कर पाये और जो उनसे जुड़े थे ये आशा थी कि इस संत के साथ जो जुड़े हैं इनके द्वारा मार्गदर्शन मिलेगा, इनके द्वारा प्रेरणा मिलेगी क्योंकि इन्हें इस योग्य बना दिया गया है। प्राण फूँक दिये गये हैं। हम कुछ न कर सके यह पछताना न रह जाये, उस समय से पहले आप चेत जाये तो ज्यादा अच्छा है। आप आज के दिन यह संकल्प लेकर जाइये कि जो गुरुजी की आकाँक्षाएँ हैं, कामनाएँ हैं, कामनाएँ तो हम लेकर आये हैं माताजी, यह तो आप सही कह रही हैं, हमारे आप बच्चे हैं, कुटुँबी हैं भाई, भतीजे कुटुँबी सब हमारे हैं आपका जरूर, अधिकार है जब आप माँगे और हर समर्थ हों बेटे देंगे। जो समर्थ नहीं हैं उसकी तो हम कह नहीं सकते भगवान तो हम हैं नहीं, जो सारी की सारी मनोकामनाएँ पूर्ण कर दें, लेकिन आप विश्वास रखिये कि हम यदि देने में समर्थ होंगे तो आपकी जरूर झोली भरी जायेगी, हम उसमें से नहीं हैं जो बचाकर रखेंगे। हम सारे के सारे दाने आपकी झोली में उड़ेलकर ही जायेंगे, निश्चित ही जायेंगे लेकिन हमारी भी तो कुछ कामना है? आप समर्थ हो गये हैं। दाढ़ी मूँछ वाले हैं, माँ बाप की भी कुछ कामनाएँ होती हैं बच्चों से, कि वह पुरुषार्थ करेगा, कमायेगा, खिलायेगा, हमारे पाँव दबायेगा, कपड़े धोयेगा, पर हमारा तो नहीं है यह उद्देश्य आपका निजी कार्य? बेटे ऐसा कभी न सोचना न सोचेंगे, है ही नहीं काम तो करेंगे क्या। कोई कपड़ा लाता है तो सोचते हैं क्यों इसका तिरस्कार करें। भावनावश लाता है, मना करें तो कहेंगे हमारी भावनाओं का सम्मान नहीं किया, हो सकता है, पहन लें, लेकिन अंतःकरण हमारा ऐसा नहीं है। हमारे स्वार्थ के लिए आवश्यकता है बिलकुल नहीं है। खूब कमा लेते हैं, हमें तो हमारे नाव का खिवइया है लाखों का पेट भर सकता है आप क्या करेंगे हम तो अपने आप भर लेते हैं, गुरुजी के लंबे-लंबे हाथ और माताजी के मोटे-मोटे हाथ। एक भी पड़ जाये तो नानी याद आ जायेगी, कोई कमी नहीं है। काहे की कमी है वह आपकी श्रद्धा की कमी है। आपकी आस्था की कमी है आपके विश्वास की कमी है, आपकी श्रद्धा की कमी है, इतने भर की कमी है और किसी चीज की कमी नहीं है। हमारे पास धन दौलत की कमी है बिलकुल नहीं और किसी चीज की कमी है माताजी बिलकुल नहीं है, कोई चीज की आवश्यकता है? बूढ़े हो गये हैं, कुछ खाने को चाहिये। नहीं बेटे। हमें नहीं चाहिये, रहने को चाहिये, बिलकुल नहीं चाहिये, पहनने को मँगा लेते हैं मथुरा से अभी हमारा दे गया बेटा 6 साड़ी, अभी तो फटी नहीं। मैं क्या करूंगी बता, चल तेरा मान होता है तो रख लेती हूँ वितरित कर देती हूँ लेकिन हमको बहुत आवश्यकता है, किस की? एक-एक लड़के की आवश्यकता है जिस समय लड़ाई छिड़ती है उस समय क्या होता है फौज की आवश्यकता होती है एक जमाना था जब सिक्खों के घर से एक सिक्ख होता था, कभी कोई जमाना था लड़ाई के समय हर घर से एक जाता था और हम भी यही चाहते हैं कि हमारा प्रत्येक परिजन मोर्चे के लिए सतर्क, साहस, जिम्मेदारी भरी सक्रियता लाये, वह सारा का सारा कार्यकर्ता बताते रहते हैं कि किस चीज की आवश्यकता है, आवश्यकता एक ही चीज की है वो कि अंधकार को मिटाना चाहिए, उजाला होना चाहिये। सद्विचार आने चाहिये, कुविचार जाने चाहिये। अब कैसे जायेंगे, करना क्या पड़ेगा? ये तो सब बताते रहेंगे, क्या करना पड़ेगा, यह मेरा विषय नहीं है।

मेरा विषय है तो केवल आस्था, वह है निष्ठा, वह है श्रद्धा। मैं देखती हूँ आप में सब में विद्यमान है, ऐसा कोई नहीं जिसमें श्रद्धा नहीं हो। श्रद्धा है आपके पास, पर बुरा मत मानिये, मैं मार भी लेती हूँ और पुचकार भी लेती हूँ। बाद में कोई बात नहीं जब रूठ जाओगे तो मना लूँगी। माँ में विशेषता होती है, वह यह है वह सतत् देती रहती है। किंतु आपका मन डाल–डाल और पात–पात घूमता रहता है, कि किया क्या जाये न मालूम कौन साथ दे जाये इनमें। शायद शंकर जी दे जायें, हनुमान जी दे जायें, चंडी देवी दे जाये कि संतोषी माता दे जायें, गुरुजी दे जायें, कि माताजी दे जायें जाने कौन हमारे सामने आ जाये, उसे ही हम पकड़ लें। क्या करें? कोई नहीं करे, जैसे बहरूपिया करता है बगुला बैठा रहता है, जहाँ देखी मछली कुडाक निगल जाता है। ये नहीं होना चाहिये एक लक्ष्य होना चाहिये जो हमने फैसला कर लिया, वही होगा। आजीवन निर्वाह करना? यदि आजीवन निर्वाह करेंगे तो हम आपके साथ हैं। आपके जीवन के रूप में चलाने की जिम्मेदारी हमारी है और गाण्डीव उठाना आपका काम है चलिये। जैसे सूरदास की


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