शिव और शक्ति के समन्वय का अद्भुत वह लीला संदोह

February 1995

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माता जी भगवान के वरदान की तरह हमारे जीवन में आयीं। उनके बगैर मिशन के उदय और विस्तार की कल्पना करना तक कठिन था। गुरुदेव की इन बातों से माताजी के प्रति उनके दृष्टिकोण का सहज अहसास हो जाता है। पर यह वरदान उनके जीवन में न अचानक आया और न अकस्मात उतरा। इसकी उन्हें वर्षों पूर्व जानकारी थी। उनकी मार्गदर्शक सत्ता ने अपने प्रथम दर्शन के दिन ही इसका संकेत करते हुए कहा था-’तुम्हारे विवाहित होने से मैं प्रसन्न हूँ। इसमें बीच में व्यवधान तो आएगा, पर पुनः पूर्व जन्मों में तुम्हारे साथ रही सहयोगिनी पत्नी के रूप में मिलेगी, जो आजीवन तुम्हारे साथ रहकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। पिछले दो जन्मों में तुम्हें सपत्नीक रहना पड़ा है। यह मत सोचना कि इससे कार्य में बाधा पड़ेगी। वस्तुतः इससे आज की परिस्थितियों में सुविधा ही रहेगी एवं युग परिवर्तन के प्रयोजन में भी सहायता मिलेगी।’ (हमारी वसीयत और विरासत से)

भगवान की कृपा और भगवान का विधान एक ही है। इस सत्य को कम लोग अनुभव कर पाते हैं। यह अनुभूति कड़वी-मीठी कैसी भी हो, पर होती औषधि की तरह गुणकारक ही गुरुदेव की प्रथम पत्नी का देहावसान भगवान के अकाट्य विधान की तरह उनके जीवन में घटित हुआ। लगभग इसी समय उनके पुराने सहयोगी मिशन के नैष्ठिक कार्यकर्ता बद्रीप्रसाद पहाड़िया की धर्म पत्नी का भी निधन हुआ था। उन्होंने इसकी सूचना पत्र द्वारा पूज्यवर को दी। जिसका जवाब देते हुए उन्होंने लिखा “पत्र में तुम्हारी पत्नी के निधन के बारे में पढ़कर दुःख हुआ। इसे नियति का खेल समझ कर सहन कर जाओ। मेरी पत्नी की मृत्यु भी इन्हीं दिनों हुई है। वर्तमान में हम दोनों को एक सा दुःख झेलना पड़ रहा है। आगे मैं तो दूसरी शादी करूंगा क्योंकि इसका संबंध मिशन के भविष्य से है। फिर मार्गदर्शक का आदेश भी कुछ ऐसा ही है पर तुम शादी मत करना।

अपनी गुरुसत्ता के आदेश को शिरोधार्य करते हुए वह माताजी के साथ दाँपत्य सूत्र में बँधे। उन दिनों वह व्यस्तताओं और विवशताओं से घिरे थे। स्वतंत्रता आँदोलन में सक्रिय भागीदारी के कारण स्वजनों का भरपूर विरोध था। चौबीस पुरश्चरणों की उग्र तपश्चर्या को कुछ लोगों ने पागलपन की सनक करार दे दिया था। भावनात्मक आघातों का सिलसिला जारी था। जरूरत थी टूटी-कुचली भावनाओं को फिर से पोषण देने की। माताजी ने अपने आगमन के साथ ही इस काम को बखूबी सँभाल लिया। इस तथ्य को गुरुदेव के शब्दों में कहें तो-’उन्होंने अपने आने के पहले दिन से ही स्वयं को तिल-तिल गलाने का व्रत ले लिया। विरोध का तत्व तो उनमें जैसे था ही नहीं यदि वह चाहतीं तो साधारण स्त्रियों की तरह मुझ पर रोज नयी फरमाइशों के दबाव डाल सकती थीं। ऐसे में न तपश्चर्या बनती, न लोक सेवा के अवसर हाथ लगते। फिर जो कुछ आज तक हो सका उसका कहीं नामोनिशान न होता।

माताजी के आने के बाद गुरुदेव के जीवनक्रम में एक नया निखार आया। अखण्ड ज्योति का प्रकाशन पहले से ही चल रहा था। पर अभी तक यह एक पत्रिका का प्रकाशन भर था। सामान्यक्रम में पत्रिका और पाठक के रिश्ते पढ़ने-पढ़ाने तक सीमित रहते हैं। माताजी की उपस्थिति के साथ ही अखण्ड-ज्योति पत्रिका ने ‘अखण्ड-ज्योति परिवार’ का रूप ले लिया। पत्रिका को पढ़ने वाले उनके अपने आत्मीय हो गए। इस क्रम में लोगों का घर आने-जाने, ठहरने, खाने-पीने का सिलसिला चल पड़ा। आने वाले किसी व्यक्ति को उन्होंने स्नेह और ममत्व की कमी न महसूस न होने दी।

उन दिनों अखंड-ज्योति पत्रिका से जुड़े एक परिजन ने अपनी यादों की पुलकन उड़ेलते हुए बताया-अहा! वे भी क्या दिन थे। मैंने अखण्ड-ज्योति नयी-नयी पढ़ी थी। एक दो महीने पत्रिका पढ़ने के बाद मन में विचार आया कि लिखने वाला तो बड़े कमाल का आदमी है, उससे मिलना चाहिए। बस फिर क्या मथुरा के लिए रवाना हो गया। मथुरा पहुँचते-पहुँचते ग्यारह बज गए। जैसे-तैसे घर ढूँढ़ा। दरवाजा खटकाते हुए मन बहुत हिचका, इतनी रात गए अजनबी आदमी का दरवाजा कैसे खुलवाए। लेकिन कोई दूसरा उपाय भी नहीं था। मथुरा में किसी और को जानता भी नहीं था। हिम्मत करके कुण्डी खटखटाई। माताजी ने दरवाजा खोला। पूछने पर पता चला-गुरुदेव कहीं बाहर गए हुए हैं। उन्होंने बहुत मना करने पर भी रात बारह साढ़े बारह बजे के लगभग पराठा-सब्जी बनाकर खिलाई। खाने के बाद एक गिलास दूध पीने को मिला। सारी रात उनके ममत्व की छाँव में कटी। सुबह उठकर जब जाने लगा तब अनुभव हुआ कि शरीर से तो जा रहा हूँ, पर मन माँ के पास ही छूट रहा है।

यह अनुभूति किसी एक की नहीं, वरन् उन सैकड़ों-हजारों की है, जो उनके स्नेह ममत्व से पोषित हुए। इन्हीं ममता के धागों से मिशन का विस्तार बुना गया। तभी तो गुरुजी ने एक स्थान पर लिखा है-’मिशन को बढ़ाने में माताजी ने हमारे बांए या दांए हाथ की तरह नहीं, हृदय की भूमिका निभाई है। उन्हीं की भावनाओं के संचार से मिशन पलता और बढ़ता रहा है। औरों की तरह हम भी उनका प्यार-दुलार पाकर धन्य हुए हैं। अन्यथा इतने आघातों के चलते कौन जाने हम कब टूट-बिखर कर चकनाचूर हो गये होते।’ एक अन्य स्थान पर वह कहते हैं-’वह भावमयी हैं, प्यार तो जैसे उनके रोम-रोम में बसता है। उन्हें हमारी तरह बातें-बनाना तो नहीं आता, पर ममत्व लुटाने में वह हमसे बहुत आगे हैं। भले हमारी तरह वह बौद्धिक चातुर्य की धनी न हों, किंतु ममता की पूँजी उनके पास हमसे कई गुना अधिक है। इसी कारण हम उन्हें सजलश्रद्धा कहते हैं। मिशन के प्रत्येक परिजन ने उन्हें इसी रूप में अनुभव किया है।’

इसी विश्वास के सहारे गुरुदेव ने सन् 1950 एवं 1961 में लंबे समय तक हिमालय में अज्ञातवास किया। उन्हें यह भरोसा था कि उनके चले जाने पर माताजी मिशन की साज-सँभाल कर लेंगी। किसी को उनका अभाव न खटकेगा। हुआ भी यही। परिजनों से मिलना, पत्रों के जवाब लिखना, लिखवाना, पत्रिकाओं को संपादित, प्रकाशित करना, इन सारे कामों को वह अकेले सँभालती रही। गुरुदेव के वापस लौटने पर सब कुछ पहले से अधिक अच्छा मिला। परिजन माताजी का गुणगान करते थकते न थे। कुछ ने तो यहाँ तक कह डाला-’गुरुदेव तो मध्याह्न के प्रचंड सूर्य हैं, उनकी ओर तो आँखें उठाकर देख पाना भी संभव नहीं है। माता जी चंद्रमा की तरह शीतल हैं। भले वह सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करती हों, पर उसकी सारी गर्मी अपने अंदर पचाकर हम बच्चों को शीतल प्रकाश देती रहती हैं।’

इन सब बातों को सुनकर वह और प्रसन्न हुए। समय बीतता गया। इतने में हिमालय की ऋषि सत्ता ने अपना तीसरा बुलावा भेज दिया। इस बार तो वापस लौटने के आसार नजर न आ रहे थे माताजी को मथुरा स्थाई रूप से छोड़कर शाँतिकुँज में रहना था। उस समय शाँतिकुँज का इलाका निरा जंगल था। चलो शहर छोड़कर जंगल में बसने की बात सोची जा सकती थी पर बच्चों का मोह छोड़ पाना किसी माँ के लिए कितना कठिन होता है, इसे तो माँ का मातृत्व ही समझ सकता है।

इस विकट स्थिति को गुरुदेव के शब्दों में कहें तो-’यह माताजी की अग्नि परीक्षा थी। बेटी शैल की शादी हुए अभी कुछ ही दिन हुए थे। मृत्युँजय के विवाह को भी अधिक समय न गुजरा था। उनके सभी सगे संबंधी भी मथुरा के आस-पास ही रहते हैं। वह इन सभी का, बेटे, बेटी, बहू का मोह इतनी आसानी से छोड़कर हरिद्वार के जंगल में बसने के लिए तैयार हो जायेंगी, इसका मुझे भी विश्वास न था। मैंने अपने मन के असमंजस को छुपाते हुए उनसे जब शाँतिकुँज में तप साधना की बात कही, तो वह बिना एक पल की देर लगाए तुरंत तैयार हो गईं। हमें भी उनके इस साहस भरे समर्पण को देखकर आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता हुई।’

बात शाँतिकुँज में रहने तक सीमित न थी। इसके साथ अनेकों जिम्मेदारियाँ थीं। इसमें कठोर साधनात्मक प्रक्रियाएँ भी शामिल थीं। जिसे निभालेना सरल न था। पर वह तो जैसे कठिन कार्य के लिए ही जन्मी थीं। गुरुदेव इसे बड़ी मार्मिक भाषा में अभिव्यक्त करते हुए कहते हैं-’कार्य विभाजन में दूसरी जिम्मेदारी माताजी के ऊपर डाली गई है। यों वे रिश्ते में हमारी धर्म पत्नी लगती हैं, पर वस्तुतः वे अन्य सभी की तरह हमें भी माता की भाँति दुलारती रही हैं। उनमें मातृत्व की इतनी उदात्त गरिमा भरी पड़ी है कि अपने वर्तमान परिवार को भरपूर स्नेह दे सकें। हमारा अभाव किसी आत्मीय जन को खटकने न पाए, स्नेह के अभाव में कोई पौधा कुम्हलाने न पाए, यह भार उन्हीं के कंधों पर डाल दिया गया है।’

‘हमारे जाने के बाद वे हरिद्वार और ऋषिकेश के बीच सात ऋषियों की तपस्थली जहाँ गंगा की सात धाराएँ प्रवाहित हुई हैं, अपने छोटे से ‘शांतिकुंज’ नामक आश्रम में निवास करेंगी। जिस प्रकार हमने 24 लक्ष के 24 महापुरश्चरण संपन्न किए थे उसी प्रकार वे भी करेंगी। अखण्ड घृत दीप मथुरा से उन्हीं के पास चला जाएगा। अपनी तपश्चर्या की उपलब्धियों से वे लोगों के उस दुःख कष्ट निवारण के क्रम को जारी रखेंगी, जिसे हम जीवन भर निबाहते रहे हैं। हमारे चले जाने पर कोई अपने को असहाय न समझे। अपने बाल-परिवार की साज-सँभाल करने के लिए हम माताजी को छोड़े जाते हैं। वे अपनी तपश्चर्या इसी प्रयोजन में लगाती, खर्च करती हमारी परंपरा को जीवित रखेंगी। (1) नव निर्माण अभियान का प्रत्यक्षतः मार्गदर्शन (2) हमारी बौद्धिक एवं सर्वसाधारण को अवगत कराते रहने का माध्यम (3) अखण्ड दीपक एवं गायत्री पुरश्चरणश्रृंखला को गतिशील रखकर कष्ट पीड़ितों की सहायता-यह तीन काम माताजी के जिम्मे हैं।’

माताजी ने यह जिम्मेदारी किस तरह निभाई, यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है। इस दायित्व को स्वीकारने निभाने का क्रम गुरुदेव के हिमालय से वापस लौट आने के बाद भी चला व 1990 तक चलता चला गया। यह सारा लीला संदोह शिव-शक्ति के समन्वय का हर अवतारी सत्ता के साथ भी यही सब हुआ, यही सब सोच समझकर हम सतत् पुलकन अनुभव करें, अपने को उनके बताये मार्ग पर चलाकर स्वयं श्रेय-सौभाग्य पर संतोष रखें, यही हमारी सच्ची श्रद्धाँजलि है।


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