इस विराट गायत्री परिवार का पौधा रोपा गया था,गृहस्थी रूपी तपोवन में।

February 1995

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अगर आपस की समझदारी हो तो घर-परिवार का हर दिन खुशियों का त्योहार बन जाता है। माताजी का सारा जीवन इसी समझदारी को अपनाने-सिखाने में बीतता रहा। पूज्य गुरुदेव के साथ दाँपत्य सूत्र में बँधते ही वह एक बड़े परिवार में आ गईं। घर मैं गुरुदेव के तीन बड़े भाई-भाइयों की पत्नियाँ और बच्चों का समूह, कुल मिलाकर बड़ा कुटुँब था। इतने बड़े परिवार का संचालन सूत्र गुरुदेव की माँ के हाथों में था। जिन्हें सब ‘ताई जी’ कहते थे। उनका ऊँचा कद, गौर वर्ण, तेज आवाज, और विशाल-पुष्ट शरीर स्वयं अपनी शान और दबाव रखता। देखते ही सब प्रभावित हो जाते। अंतःकरण से अतीव कोमल होते हुए भी ताई जी स्वभाव से प्रशासक थीं। समूची जमींदारी के क्रिया−कलाप उन्हीं के मार्गदर्शन में चलते थे। लड़कों, बहुओं और परिवार के सदस्यों पर उनका रोब था।

इस घर का पहला दिन, उनके लिए बड़े परिवर्तन का दिन था। मायके की परिस्थितियाँ ससुराल से बिलकुल अलग थीं। माँ का साया बचपन में ही उठ जाने के कारण पिता जसवंत राय ने बड़े लाड़-दुलार से उन्हें पाला था। घर में छोटी होने की वजह से भाई-बहनों की प्रीति-वर्षा कुछ काम न थी। ससुराल में जाकर किसके साथ कैसा व्यवहार करना है? परिवार में कौन समस्या कब उठ खड़ी हो, उसके कब किस तरह से क्या समाधान खोजने हैं? आदि शिक्षाएं उन्हें न मिल पायीं थीं। माँ के अभाव में इन छोटी-छोटी लेकिन बेहद जरूरी बातों को सिखाता भी कौन? ससुराल में सबसे छोटे होने का एक ही मतलब होता है-कर्तव्यों की भरमार किंतु अधिकारों का अभाव।

पारिवारिक जीवन की इस शुरुआत के साथ ही उनके सामने कुछ अन्य कसौटियाँ भी थीं। जिन पर उनके व्यक्तित्व को अनेकों रगड़ खा कर अपना खरापन साबित करना था। इन्हीं में से एक थे गुरुदेव के पहले विवाह की संतानें, भाई ओम्-प्रकाश, और बहिन दया। उन दिनों ये दोनों भोले-भाले अबोध बालक थे। माँ का स्नेह छत्र बचपन से ही हट जाने के कारण इन दोनों के मन प्यार के भूखे थे। ऐसा प्यार जो कभी न चुकने वाला हो। गुरुजी की अपनी सामाजिक व्यस्तताएँ थीं। स्वतंत्रता आँदोलन का जोर-शोर, समाज सुधार की बढ़ती प्रवृत्तियाँ, साधना के नित नए आयामों का विकास। ऐसे में वे अपने बच्चों से प्यार भले ही कितना करते रहे हों पर सान्निध्य-सामीप्य के अवसर तो दुर्लभ ही थे।

बाल मन भला व्यस्तता की बेबसी को कहाँ समझता है। उसे तो आदत होती है बार-बार रूठने की। हर बार रूठ कर वह यही सोचता रहता है, उसे कोई मनाए, प्यार-दुलार करता रहे। उनकी इस चाहत को यद्यपि ताई जी अपने ढंग से पूरा करती रहती थीं। फिर भी उन दोनों के मन में माँ का प्यार पाने की ललक थी-कसक थी। लेकिन इसके साथ ही बाल मन में उठने वाले संदेह भी थे, बचकाना जिदें भी थीं। माँ का ममत्व ही जिसका समाधान था।

पारिवारिक जीवन में प्रवेश के साथ ही माताजी को यह चुनौती स्वीकार करनी पड़ी। इसके साथ कुछ ऐसे अड़ोसी-पड़ोसी भी थे जिनके बारे में गोस्वामी तुलसीदास की भाषा में कहें तो ‘जे बिनुकाज दाहिने बांए’ अर्थात् जो अकारण की टिप्पणियाँ बड़ी मर्माहत करने वाली थीं। इन टिप्पणियों की शुरुआत उसी समय से हो गई जिस क्षण माताजी बहू बनकर डोली से उतरीं। एक पड़ोसन बोली-अरे ये तो ऊँट बकरी की जोड़ी है। दूसरी का स्वर था भाई साँवली तो बहुत है, उस पर चेहरे पर माता के दाग भी हैं। ऐसे न जाने कितने स्वरों को शाँत करते हुए माताजी की जिठानी (शीलावती जीजी की माँ) बोली-”हमारे घर की बहू भगवती है, किसी दिन इसके पैर छुओगी।” इन शब्दों के साथ ही वह उन्हें घर ले गईं।

घर पहुँच कर सबसे एक-एक करके परिचय हुआ। उनका भी, जो माँ के ममत्व के लिए प्यासे थे। माताजी के प्रथम दर्शन को बताते हुए भाई ओम्–प्रकाश की यादें बहुत जीवंत हैं। उन्हीं के शब्दों में-’माता जी उस समय सुनहरे काम की गुलाबी साड़ी पहने थीं। मस्तक पर टीका, नाक में नथ और गले में हार पहने थीं। हाथों में सोने के कंगन पैरों में पाजेब, बिछवे और गहरे लाल रंग की चप्पल पहने थीं। एक बदामी रंग की चद्दर ओढ़े थीं। गाँव की परंपरा के अनुसार घूँघट निकाले हुए थीं।

हम दोनों (ओम्–प्रकाश एवं दया) एक-एक कर चुपके से जाते और इधर-उधर दूर-दूर चक्कर लगाकर लौट आते। मुस्कराकर कहते ये तो बड़ी पतली हैं छोटी हैं, थोड़ी-थोड़ी साँवली हैं। दया कहती इनके हाथ कितने छोटे हैं मुँह तो गोल है। दया जो फ्रॉक पहने थी हिम्मत करके पास खड़ी हो गई। माताजी ने हाथ पकड़ कर अपने पास बिठा लिया। मेरे मन ने भी जोर मारा मैं भी उनके पास खड़ा हो गया। पास में खड़ी ताई जी तेज आवाज में बोली-देख क्या रहा है, पैर छू। मैंने पैर छू लिए। उन्होंने प्रेम से हाथ पकड़ा और पास बिठाते हुए बोली-तुम्हारा नाम क्या है? कौन-सी क्लास में पढ़ते हो। मैंने कहा-मेरा नाम ओम्–प्रकाश है, कक्षा 5 में पढ़ता हूँ।

यही था ममत्व के प्यासे दो बालकों का अपनी दूसरी माँ से प्रथम परिचय। माँ और बच्चों के पारस्परिक संबंध सगे और सौतेलेपन की रेखा से विभाजित नहीं किए जा सकते। सामाजिक मान्यताओं की ऊपरी सतह से हटकर गहराइयों में भावनाओं की वत्सलता में इनका पोषण होता है। यहाँ वही था जिसे माँ ने अनुभव किया, बेटे अनुभव कर रहे हैं।

पहले ही दिन से माताजी ने अपने स्वजनों को जो अपनत्व आत्मीयता दी, उसे पाकर सबके सब उनके प्रशंसक होते चले गए। शीलवती जीजी (माताजी की भतीजी) उन स्नेह स्मृतियों को समेटते-बटोरते कहती हैं, चाची की तत्परता देखते ही बनती थी। घर बड़ा था। बच्चों से लेकर बड़ों तक सब की अलग-अलग रुचियाँ फरमाइशें थीं। सबके स्वभाव के अनुरूप अपने को ढाल लेना कुछ सरल न था, पर चाची को इसमें जैसे महारथ हासिल थी। हर कोई यही समझता कि वह उसी का सबसे ज्यादा ध्यान रखती हैं। ताई जी तो जैसे उन्हीं पर निर्भर हो गयीं। हर काम के पहले यही पूछती छोटी बहू से पूछ ले। सास-बहू के रिश्तों में इतने मधुरता शायद ही कहीं अन्यत्र मिलें।

आँवलखेड़ा में माताजी का निवास अधिक दिनों नहीं रह सका। देश स्वतंत्र होने की ओर अग्रसर था। गुरुदेव की गतिविधियाँ राष्ट्र-मुक्ति की ओर से हटकर समाज मुक्ति की ओर मुड़ने लगीं। कुरीतियों, कुप्रथाओं, मूढ़मान्यताओं से जकड़-बँधे समाज को मुक्त करने के लिए उनका रोम-रोम दीवाना हो रहा था। उन्होंने अपने अभियान की प्रथम केन्द्र स्थली मथुरा को चुना। स्वभावतः इसका असर उनके पारिवारिक जीवन पर भी आया। माताजी भाई ओम्–प्रकाश एवं बहिन दया को लेकर गुरुदेव के साथ मथुरा आ गई।

मथुरा में आरंभ किया गया पारिवारिक जीवन आँवलखेड़ा की तरह सुविधाओं से भरा-पूरा न था। यहाँ जमींदारी की संपन्नता न थी। यद्यपि यह गरीबी स्वतः की ओढ़ी हुई थी। फिर भी गरीबी तो गरीबी ही है। इस स्वतः अपनाई गई गरीबी में भी उन सारे अभावों का अनुभव मौजूद था, जो किसी गरीब के जीवन में होता है। हाँ ऋषि कल्प मनःस्थिति ने विपन्नता को कभी प्यास न फटकने दिया।

मथुरा के जीवन काल में ही स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद माताजी की अपनी कोख से भी दो संतानें आईं, भाई मृत्युंजय (1949) और बहिन शैलबाला (1953) इस तरह कुल मिलाकर छः लोगों का परिवार ही गया। गुरुदेव का अधिकांश जीवन तप-साधना, सामाजिक क्रिया–कलापों एवं अध्ययन लेखन में बीतता रहता। अपने व्यस्त जीवन में शायद ही कुछ क्षण वह परिवार को दे पाते हों। कुल मिलाकर परिवार का संचालन भार माताजी पर ही था। पिता का प्यार और माँ का दुलार दोनों उन्हें ही जुटाने पड़ते थे।

गुरुदेव और माताजी के दाँपत्य जीवन की तुलना यदि कहीं की जा सकती है, तो शिव-पार्वती से। निताँत विरक्त, भगवान शिव तो प्रायः तपोलीन, समाधि निमग्न ही रहते हैं। माँ पार्वती को ही गणेश, कार्तिकेय के साथ अन्य गणों की भी सार-सँभाल करनी पड़ती है। यहाँ भी कुछ वैसा ही था। परेशानियां कम नहीं आयीं, अभाव जन्य मुसीबतें कम नहीं उठानी पड़ीं। पर उन्होंने अपनी कठिनाइयों, मुसीबतों का रोना रोकर कभी गुरुदेव को तप से विरत करने की चेष्टा नहीं की। अभाव के इस दौर में कुछ क्षण ऐसे भी आए जब माँ का ममत्व छटपटा उठा ऐसी ही एक घटना उस दिन हुई जब उनकी छोटी लड़की बहिन शैल ने रास्ते में एक रुपया का सिक्का पड़ा पाया। एक रुपये के इस सिक्के को देखकर उनका बचपन गुब्बारे, खिलौने के लिए मचल उठा। उन्होंने सोचा आखिर पड़े सिक्के को उठा लेना कोई चोरी तो नहीं है। फिर क्या उन्होंने दुकान जाकर गुब्बारे, खिलौने खरीदे और प्रसन्न मन घर पहुंची।

घर पहुँचने पर माताजी की पहली नजर उनके हाथों में थमे गुब्बारों और खिलौनों पर पड़ी। घटना का विवरण पूछने पर उन्होंने सत्य बता दिया। सब कुछ सुनकर एक बार तो उनका मातृ हृदय तड़प उठा। यदि हम खिलौने दे सकते तो बच्चे के मन में लालच क्यों आता। परंतु दूसरे ही क्षण उन्होंने स्वयं को संयत करते हुए कहा-देखो बेटी-इन सब चीजों को दुकान वापस कर आओ और पैसे को किसी मंदिर में डाल दो। आखिर क्यों? 6-7 साल की बालिका ने आश्चर्य से पूछा-”मैंने तो कोई चोरी नहीं की पैसे तो पड़े मिले थे। पड़े मिले तो क्या हुआ बिना मेहनत का पैसा चोरी का ही है।” बात समझ में आ गई-गुब्बारे-खिलौने वापस किए गये। पैसा पास के मंदिर में चढ़ा दिया गया।

ऐसे एक नहीं अनेकों घटना प्रसंग, उनके पारिवारिक जीवन में आते रहे। पर सभी विपरीतताएँ उनके मन को कमजोर करने की जगह प्रकाशन के साथ ही छः लोगों का छोटा-सा परिवार बड़े गायत्री परिवार का रूप ले रहा था। इसी के अनुरूप लोगों का आना-जाना बढ़ रहा था। इसी बीच गुरुदेव के साधनात्मक प्रयास भी तीव्र होते जा रहे थे। दो हिमालय यात्राएँ भी मथुरा के जीवनकाल में ही हुईं।

गुरुदेव की हिमालय यात्राओं के दौरान-उन्होंने पत्रिकाओं के प्रकाशन, गायत्री तपोभूमि की देख-रेख का काम भी खूबसूरती के साथ सँभाला। पत्र-लेखन और कार्यालय के काम-काज के साथ उन्होंने बच्चों को किसी बात की कमी खटकने नहीं दी और न ही गुरुदेव को अनुभव होने दिया कि उनका कार्य विस्तार उनके एकाँत वास के कारण मंद पड़ जाएगा और न ही गायत्री परिवार के सदस्यों को इस बात का एहसास होने दिया कि उनके संरक्षण दाता उनके बीच नहीं हैं।

माताजी के पास इन दिनों की लड़कियों, महिलाओं की तरह भारी भरकम डिग्रियाँ तो नहीं थी। पर वह सूझ-समझ अवश्य थी जिससे उन्होंने अपने परिवार को नंदन कानन की तरह नित प्रफुल्लित बनाए रखा। शाँतिकुँज के निवास काल में उन्होंने बाहर से आए हुए एक कार्यकर्ता को समझाते हुए कहा था-’बेटा! घर-परिवार झंझट बोझ नहीं है। बोझ मानकर इसे छोड़ देने से कोई साधक नहीं बना करता। हमने भी साधना की है, पर अपने घर को तपोवन बनाकर। गृहस्थ जीवन में आने वाली तकलीफें, परेशानियां साधनात्मक जीवन की कठोर तप तितिक्षा ही हैं। जिसे प्रसन्नतापूर्वक स्वीकारने पर व्यक्तित्व कुँदन की तरह चमक उठता है।’ फिर हमने तो परिवार को छोड़कर भागने, उसे घटाने की जगह बढ़ाया है। पहले ओम्–प्रकाश, दया, सतीश (मृत्युँजय) और शैल, मैं और गुरुजी। फिर हुआ अखण्ड ज्योति परिवार इसमें 10-20 हजार लोग रहे होंगे। अब तो हो गया है गायत्री परिवार जिसकी संख्या लाखों को पार कर करोड़ों में पहुँच रही है।

इस सबके पीछे उदारता और सहिष्णुता की भावना रही है। भावना हृदय की आँतरिक वस्तु है। यदि हम झूठे भाव से अपने पारिवारिक सदस्यों के बीच अपनत्व, उदारता और त्याग का भाव प्रदर्शन करना चाहेंगे तो कभी न कभी कलई खुल ही जाएगी। कलई खुलने पर परिवार के सदस्यों का दृष्टिकोण हमारे प्रति गलत हो जाएगा। यदि भावना सच्ची है, तो जिनका दृष्टिकोण अपने प्रति गलत भी है तो उसमें भी देर-सबेर सुधार आ ही जाएगा। हमने यही किया है। हम चाहते हैं अपने मिशन का हर परिवार हमारी ही तरह अपने परिवार को नंदन कानन बना ले। जिसमें रोज खुशियों के फूल खिल सकें।


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