मातृसत्ता के संस्मरणों के कुछ पुष्प

February 1995

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परम वंदनीय माता जी विदेश प्रवास पर तीन बार गयीं 1993 में। एक बार इंग्लैण्ड, एक बार कनाडा व एक बार अमेरिका। वहाँ की कुछ स्मृतियाँ संस्मरणों के पुष्प के रूप में समर्पित हैं।

लॉस ऐन्जिल्स अश्वमेध महायज्ञ संपन्न हुआ। परम वंदनीय माताजी को प्रज्ञापीठ की प्राण प्रतिष्ठा हेतु सेडियागो (मेक्सिको के पास) 400 मील दूर जाना था। अश्वमेध संचालन हेतु शाँतिकुँज के 10 परिजन वहाँ थे। तीन अश्वमेधों में बराबर मिलने, साथ रहने का क्रम नहीं बन पा रहा था अतः सभी को लग रहा था तीन माह हो गये माताजी का स्नेह चाहिए।

जब सेनडियागो चलने के लिए तैयार हुए तो निश्चित हुआ तीन गाड़ियाँ जायेंगी-किंतु माता जी बोलीं-प्रणव! कोई ऐसी व्यवस्था नहीं बन सकती क्या जिसमें सभी बच्चे साथ रहें। इन लोगों के साथ रहने का मेरा मन कर रहा है। अतः वहाँ के परिजन डॉ. दिव्यांग के बड़े मोटर होम (एक वाहन जिसमें घर जैसी सुविधा एवं स्थान होता है) की व्यवस्था की गई। शाँतिकुँज के 10 परिजन, स्थानीय दो परिवार मोटर होम में बैठ गये। परमवंदनीय माताजी, शैल बहन एवं डॉ. प्रणव पण्ड्या बीच में बैठे हुए थे। चारों ओर 15 बच्चे। 400 मील की यात्रा 5 घंटे में तय की गई। इस बीच प्रज्ञागीतों की अंताक्षरी, मिशन के अन्य गीत, चुटकुले आदि प्रस्तुत किये गये। परम वंदनीय माताजी ने भी पाँच गीत भावविह्वल हो गाए। कभी-कभी जब भाव विभोर हो जाती थीं तो विषय बदलने के लिए कभी डॉक्टर प्रणव एवं कभी शैल जीजी भी गाने लगते।

सेनडियागो में प्राण प्रतिष्ठा का क्रम संपन्न हुआ। भोजन के बाद तत्काल लौटना था अतः माताजी से निवेदन किया गया कि गाड़ी के पीछे कमरे में (जिसमें बिस्तर बिछा रहता है) चली जायँ और कुछ समय आराम करें। माता जी मना करती रहीं फिर भी बच्चों के बाल हठ को देखकर अंदर चली गईं शैल जीजी भी साथ में थीं।

अभी 10 मिनट ही हुए होंगे सभी आपस में चर्चा कर रहे थे बाहर। इतने में गाड़ी के पिछले कमरे का द्वार खुला। सभी दौड़कर पहुँचे आखिर क्या बात है? किस चीज की आवश्यकता माताजी, जीजी को? तत्काल माताजी भरे हृदय एवं रुँधे कंठ की स्थिति में चलती हुई बाहर आईं। पूछा गया-’माताजी क्या हुआ-आप आराम करिए न!’ माताजी बोलीं-

‘मेरे बच्चे बाहर बैठे हैं, मुझे उनके बीच ही रहना है हँसना है, बोलना है यही आराम है। अंदर तो बच्चों से दूर जेलखाना जैसा लगता है। जब तक शरीर चलता फिरता रहेगा प्यारे-प्यारे बच्चों के पास रहूँगी उनको प्यार दूँगी उनकी पीठ थपथपाऊँगी। यही तो एक मात्र आधार है-शरीर को बनाये रखने का अपने इष्ट से विछोह को कम करने का। यदि बच्चों से मिलना जुलना न होगा तो इस शरीर को टिकाये रखना मुश्किल होगा।’

लाँस ऐन्जिल्स में बोले गये यह वाक्य सत्य प्रतीत हो रहे हैं और अनुभव हो रहा है कि चित्रकूट अश्वमेधों के बाद माताजी ने कैसे बच्चों से विछोह सहन किया होगा? उन्हें कितना कष्ट हुआ होगा अपने बच्चों से न मिलने पर। कितनी व्याकुल रही होंगी वे, स्नेह रस पिलाने को, पलायन कराने को।

लाँएंजल्स (अमेरिका) में अश्वमेध महायज्ञ संपन्न हो रहा था। परम वंदनीय माताजी का प्रवचन हिंदी में जैसे ही प्रारंभ हुआ, पाँच सौ अमेरिकन ध्यान की मुद्रा में बैठ गए। सभी आश्चर्य चकित थे आखिर इन्हें क्या समझ में आ रहा होगा? किंतु जैसे ही प्रवचन समाप्त हुआ कुछ पत्रकार, अमेरिकन के पास गये ओर पूछने लगे-प्रवचन तो माता जी हिंदी में दे रही थीं उस समय आप ध्यान क्यों कर रहे थे तो अमेरिकन बोल पड़े-

“माता जी सामान्य मदर नहीं हैं स्प्रिचुअल मदर हैं-हमें भावनाओं की भाषा से समझाती हैं माँ और बेटे में भावनाओं का ही तो संबंध स्थापित रहता है माताजी जो बोलीं वह हमारे समझ में आ गया।”

जब और स्पष्ट पूछा गया कि प्रवचन में वे क्या बोली विषय वस्तु क्या था? तो आँखों में आँसू भरकर शब्दशः प्रवचन को सबने दुहराया। माताजी के प्रेमपूर्ण उद्गारों ने बैखरी ही नहीं परा पश्यंति वाणी ने ही उन्हें प्रेरित किया।

सच है परम वंदनीय माता जी बैखरी से अधिक परा-पश्यंति वाणी के माध्यम से प्रेरणा देतीं थीं-मार्गदर्शन प्रदान करती थीं-स्नेह भरा संरक्षण सतत् देती रहती थीं।

लीस्टर अश्वमेध के बाद परम वंदनीय माताजी को भारत आना था। गेटविक एयरपोर्ट पर विदाई का क्रम रखा गया। सभी 500 परिजन इकट्ठे थे। सबके हाथों में पुण्य-माला आदि थे। प्रणाम का क्रम चल पड़ा। प्रणाम समाप्त होने पर एयरपोर्ट के वेटिंग एरिया में पुष्प बिखर गये। माताजी को यह अच्छा नहीं लगा। तत्काल बोल पड़ीं-”बेटा! हमारे कारण अव्यवस्था फैले। गंदगी फैले यह अच्छी बात नहीं है। परिजनों ने फूल बिखराये हैं, उसकी सफाई करें। जैसा स्थान था वैसा ही छोड़े तो मुझे जाते हुए और अधिक प्रसन्नता होगी।

सभी परिजनों ने बिखरे फूलादि इकट्ठे किए। कुछ ही समय में एयरपोर्ट का वह क्षेत्र पूर्ववत हो गया। कुछ ब्रिटिश बैठे यह दृश्य देख रहे थे। इतने अनुशासन प्रिय लोगों को देखकर जानने की जिज्ञासा हुई। परिचय होने पर पच्चीस ब्रिटिश नागरिक प्रणाम करने आये जिन्हें परम वंदनीय माता जी ने आशीर्वाद दिया।

निश्चित रूप से परम वंदनीय माता जी हर वक्त हमेशा अनुशासन एवं व्यवस्था प्रिय थीं। उसी की अपेक्षा औरों से भी रखती थीं।


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