एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति

February 1995

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ठस अपरिमित आकाश में समस्त दृश्य पदार्थ का अस्तित्व एक छोटे घटक के रूप में है। यहाँ जितना कुछ समग्र है, उसमें व्यापकता भी दृष्टिगोचर होती है। उसकी इकाइयाँ अलग-अलग दीखते हुए भी, वे परस्पर इस तरह घुली-मिली हैं, कि उन्हें पृथक् कर पाना किसी भी तरह शक्य नहीं। सामान्य तौर पर किसी द्रव्य को तोड़ा और बिखेरा जा सकता है।

हम पदार्थ की किसी भी भूमिका में दृष्टिपात करें, सर्वत्र एक ही नियम काम करता दृष्टिगोचर होगा, चाहे वह परमाणुओं की आँतरिक संरचना हो, सौरमंडल हो अथवा, ब्रह्माँड में स्थित ग्रह-नक्षत्र, इनमें पारस्परिक विरोधाभास जैसा कुछ भी प्रतीत नहीं होता। ऐसे ही स्थूल सत्ता से परे की परिधि में जितना गहरा उतरा जायेगा, उतना ही यह तथ्य और स्फुट होता जायेगा कि इस जगत में मात्र एक ही दिव्य सत्ता का संचार है। वही अनेकानेक प्रकार की दृश्यावलियाँ और वस्तुएँ अपनी हलचलों से यहाँ विनिर्मित करती रहती है। उसी में पदार्थ-जगत की तीन मुख्य गतिविधियाँ-निर्माण, विकास और विनाश की स्थितियाँ चलती रहती हैं। संसार के इस संपूर्ण पसारे की गहराई में प्रवेश करने पर वहाँ एक ही तत्व शेष रह जाता है, जिसे प्रकृति पुरुष अथवा दोनों का सम्मिश्रण कहा जा सकता है।

यह दर्शनशास्त्र का निष्कर्ष है। विज्ञान इससे पूर्व तक विश्व को जड़ स्वीकारता रहा था, पर देखा जा रहा है कि ज्यों-ज्यों उसकी गति गहराई की ओर हो रही है, त्यों-त्यों वह वेदाँत के जागतिक निर्णय के काफी सन्निकट पहुँचता जान पड़ रहा है और मतभेद लगभग टलता प्रतीत हो रहा है। इतना ही नहीं, अब वे पुरानी असहमतियों को भुलाकर नवीन समझौते की तैयारी करते दीख पड़ रहे हैं। विज्ञान की अधुनातन खोजें पदार्थ सत्ता की मूल तक पहुँचते-पहुँचते यह अनुभव करने लगी हैं कि उस भूमिका में पहुँच कर सर्वत्र एक ही शक्ति शेष बच जाती है। यह शक्ति पदार्थपरक पड़ न होकर ऐसी है, जिसे बुद्धिमान, विवेकपूर्ण कहा जा सके। इसे “सर्वव्यापी ब्राह्मी चेतना” नाम दिया जाय या कुछ और? कुल निष्कर्ष इतना ही है कि यहाँ सब कुछ उस परम सत्ता की ही परिणति है।

यह संभव है कि कोई कोरा बुद्धिवादी इस बात पर आश्चर्य प्रकट करे कि परमाणु का अधिकांश भाग पोला (स्पेस) है, किंतु दार्शनिक विचारधारा के अनुगामियों के लिए इसमें तनिक भी अचंभा नहीं। वे इस बात को भलीभाँति जानते हैं कि जिनकी जिससे उत्पत्ति हुई है, उनमें उस तत्व का कुछ-न-कुछ अंश अनिवार्य रूप से उपस्थित रहेगा ही। वे इस तथ्य से पूरी तरह परिचित हैं कि परमाणु के थोड़े-से हिस्से में ही इलेक्ट्रॉन, प्रोट्रान एवं न्यूट्रोन जैसे विद्युत प्रवाह हैं, शेष पूरा भाग रिक्त है। दर्शन के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति आकाश तत्व से हुई है, इसलिए इसकी प्रत्येक वस्तु में, कण में आकाश की विद्यमानता अपरिहार्य है। परमाणु का जो हिस्सा खाली जैसा प्रतीत होता है, वह भी सर्वथा खाली और निष्क्रिय नहीं उस खाली में ही सब कुछ बिखरा पड़ा है। वहाँ भी एक प्रकार की सक्रियता अति सूक्ष्म स्तर पर विद्युत प्रवाहों की सूक्ष्म प्रक्रिया के कारण होती है वेदाँती लोग इसे ही प्राण के नाम से पुकारते हैं।

यों तो विज्ञान रेडियेशन को अति सूक्ष्म स्तर की वेगवान ऊर्जा मानता है, फिर भी वह पदार्थ की ही श्रेणी में आता है। दार्शनिकों के मतानुसार प्रकाश की भी अपनी सीमा है। उसका प्रसार-विस्तार मात्र सामान्य दिक्काल तक ही सीमित है और उसकी क्रियाशीलता की भी वही परिधि है। परम सत्ता विकिरण क्षेत्र से परे है। कठोपनिषद् में उसका वर्णन करते हुए कहा गया है-”वहाँ न तो सूर्य प्रकाशित होता है, न चंद्रमा न नक्षत्रगण ही।” विकिरण के ये प्रवाह वहाँ पहुँचने में समर्थ नहीं, फिर अग्नि की तो बात ही क्या।

भौतिक विज्ञानी भी अब पदार्थ की मूल में क्रियारत चेतन सत्ता को स्वीकारने लगे हैं। डॉल्टन ने जब पहली बार यह बताया कि पदार्थ छोटे-छोटे परमाणुओं के बने हैं, तो उसके बाद से परमाणु को पदार्थ का मूल कारण माना जाने लगा, किंतु तब और अब के इस मध्यवर्ती अंतराल में विज्ञान की अप्रत्याशित प्रगति हुई है और सम्प्रति उसकी पदार्थ सत्ता से परे चेतना सत्ता में भी गति दिखाई पड़ने लगी है। इस दृष्टि से यदि वैज्ञानिक मान्यताओं में परिवर्तन होता है, तो कुछ गलत भी नहीं है। यह ठीक है कि परमाणु पदार्थ की इकाई है, पर परम इकाई तो वह अव्यक्त चेतना ही है, जो सबके मूल में है। विज्ञान अब इस तथ्य को भली-भाँति समझने लगा है, अतः पूर्व की परमाणु संबंधी अवधारणा अब पुरानी पड़ गई है।

इस पदार्थ जगत संबंधी हर एक का यही अनुभव है कि वह रूप, रंग और ठोसपन से विनिर्मित है, किंतु इसमें उतनी सच्चाई नहीं, जितनी भासती है-इसे अब विज्ञान अच्छी तरह समझने लगा है। इसी कारण से पदार्थ विज्ञानी एडिंगटन ने अपनी रचना “दि नेचर ऑफ दि फिजिकल वर्ल्ड” में लिखा है-”पदार्थ की कुल तीन अवस्था हैं, किंतु इसके अतिरिक्त भी एक चौथी सूक्ष्म अवस्था है। इसे “प्लाज्मा” के नाम से पुकारा गया है। सामान्य पदार्थ जब अति उच्च तापमान पर पहुँचता है, तो वह आयनीकृत हो जाता है। यही चौथी अवस्था है। इस अवस्था में तापमान को जब और अधिक बढ़ाया जाता है, वह एक अव्यक्त शक्ति में रूपांतरित हो जाता है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि पदार्थ की मूल सत्ता अगोचर है। जो गोचर है, वह उसकी छाया मात्र है।”

आरंभ में ऐसी धारणा थी कि पदार्थ के यह सूक्ष्मतम कण अविभाज्य हैं, किंतु वर्तमान में उसका विभाजन और विस्फोट अनंत शक्ति और ज्ञान का स्रोत बन गया है यह पाया गया है कि परमाणु में दो प्रकार की विद्युतधाराएं हैं। केन्द्रीय नाभिक तथा परमाणु के मुख्य भाग में धनात्मक विद्युत होती है। केन्द्र से बाहर चारों ओर ऋणात्मक विद्युतयुक्त इलेक्ट्रॉन होते हैं। केन्द्रीय नाभिक में भी भिन्न-भिन्न कण होते हैं, जिन्हें न्यूट्रोन और प्रोट्रान कहते हैं। अपने मूल रूप में परमाणु विद्युत्तावेषी नहीं होता, क्योंकि उसके भीतर की धनात्मक और ऋणात्मक धाराएँ सदा समान होती हैं। ऋणावेशी इलेक्ट्रॉन और धनावेशी प्रोट्रान परस्पर संतुलन बनाये रखते हैं। इस दृष्टि से देखा जाय, तो परमाणु संरचना और मंडल के बिलकुल समतुल्य है।

विज्ञान जगत में कण-विज्ञान के क्षेत्र में सबसे क्राँतिकारी खोज तब हुई, जब वैज्ञानिकों ने अवयवों को गैस की पर्त से होकर गुजारा। अवयव आर-पार हो गये। फिर तो परमाणु के ठोस होने की मान्यता खंडित हो गई, क्योंकि ये अवयव न तो कहीं टकराये और न किसी अवरोध द्वारा रोके जा सके। परीक्षणों से यह स्पष्ट हो गया कि परमाणु का नाभिक सूर्य की तरह और उसके इर्द-गिर्द परिक्रमारत इलेक्ट्रॉन ग्रह-नक्षत्रों जैसे हैं। यह भी विदित हुआ कि एक इलेक्ट्रॉन का व्यास संपूर्ण परमाणु का 1/50 हजारवाँ भाग है और नाभिक का व्यास भी लगभग उतना ही है। इस तरह पूरे परमाणु का करीब शत-प्रतिशत भाग “स्पेस” है। यदि मानव देह के अंदर के समस्त परमाणु को इस प्रकार दबाया जाय कि वे परस्पर अधिकतम सघन हो जायँ, तो फिर मनुष्य का शरीर एक छोटे-से धब्बे के सदृश्य हो जायेगा, जिसे नंगी आँखों से तो क्या, किसी शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी से भी देख पाना मुश्किलप्राय होगा।

अनुसंधानों से इस बात की पुष्टि अब हो चली है कि पदार्थ का आदि रूप कण की तरह नहीं, तरंग की तरह है। इसी का समर्थन करते हुए “दि लिमिटेशन ऑफ साइंस” में प्रख्यात वैज्ञानिक डी. सुलीवान लिखते हैं-”इस प्रकार यह प्रथम संकेत था, जो कि आधुनिक विज्ञान की ओर से आया कि पदार्थमय जगत का मूलभूत स्वरूप वस्तुतः पदार्थ कण के रूप में नहीं, वरन् तरंगों के रूप में है। विश्लेषण की अंतिम अवस्था में पदार्थ बिलकुल क्षीण हो गया और उसकी सत्ता अज्ञात तरंगों में समाहित होती दीखने लगी।”

इसी प्रकार का मत प्रकट करते हुए “दि फिलॉसफी ऑफ फिजिकल साइंस” में एडिंगटन लिखते हैं-”पदार्थ की वास्तविक सत्ता कण और तरंग दोनों रूपों में है। कण इसलिए कि वह पदार्थ का हिस्सा है। तरंग इसलिए कि वह अत्यंत सूक्ष्म है। “दि मिस्टीरियस यूनीवर्स” में जेम्स जीन्स भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। वे कहते हैं कि वस्तुतः हम जिस पदार्थ की दुनिया में रहते हैं, उसका आदि रूप तरंग है। वस्तुएँ विखंडित होने के उपराँत अंततः इसी तरंग में परिवर्तित हो जाती है।

जिस प्रकार पदार्थ के हर कण “इलेक्ट्रॉन” द्रव्य कण भी हैं और तरंग भी, उसी प्रकार विकिरण के कण “फोटान” तरंग भी हैं और द्रव्य भी। इस प्रकार मैटर और रेडियेशन की पृथक् सत्ताएँ खतरे में पड़ गई हैं और वे दोनों एक ही मूल सत्ता, एक ही यथार्थ के अंग प्रतीत होते हैं। इसीलिए वाल्टर फ्रैंकलीन अपनी रचना “क्वाण्टम गाँड” में लिखते हैं-” पदार्थ और प्रकाश भले ही बाह्य दृष्टि को दो पृथक् अस्तित्व जान पड़ते हों, पर मूलतः वे एक ही सत्ता की दो भिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। इसे अब विज्ञान भली-भाँति स्वीकारने लगा है और यह भी पुष्ट हो चला है कि विशेष परिस्थितियों में एक का दूसरे में रूपांतरण संभव है।”

उक्त रूपांतरण प्रक्रिया से संबंधित विज्ञान का एक सिद्धाँत है, जिसे संरक्षण का सिद्धाँत कहते हैं। इस सिद्धाँत के अनुसार पदार्थ जगत में जब भी किसी एक का किसी दूसरे रूप में परिवर्तन होता है, तो इस मध्य संपूर्ण ऊर्जा बिलकुल स्थिर रहती है, इसमें किसी प्रकार की न्यूनाधिकता नहीं आती। यही वेदाँत अवधारणा भी है। “पूर्णमदः पूर्णमिदं......पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावषिष्यते।” इसमें उसी तथ्य को प्रकट किया गया है।

विज्ञान की प्रगति से अब दर्शन के रहस्य धीरे-धीरे कर प्रकट और प्रत्यक्ष होने लगे हैं-ऐसा स्पष्ट दीखने लगा है। कुछ समय बाद यदि शेष मतभेद भी समाप्त हो जायँ और दोनों ही अपनी द्वैत अवस्था मिटा कर अद्वैतभाव में प्रतिष्ठित हो जायँ, तो कोई आश्चर्य नहीं। अभी-अभी विज्ञान का एक बड़ा असमंजस यह दूर हुआ है कि पदार्थ सत्ता में चेतना की उपस्थिति किस भाँति हो सकती है, किंतु इस ऊहापोह से उबरने के बाद ऐसी उम्मीद है कि वह अब जल्द ही अध्यात्म की उस सर्वमान्य अवधारणा को स्वीकारने की स्थिति में आ जायेगा, जिसमें कहा गया है-”एकोब्रह्म द्वितीयोनास्ति।” यदि ऐसा हुआ, तो सत्य और तथ्य को प्रकट करने वाली दो धाराएँ मिलकर एक हो जायेंगी और उनके बीच का मतभेद सदा-सदा के लिए समाप्त हो जायेगा।


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