अंतःचक्षु (Kahani)

February 1995

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बुद्ध को सुनने श्रावस्ती के सभी नर-नारी पहुँचते, किंतु नगर सेठ मृगार कभी नहीं जाता। उसकी पुत्र वधू नित्य बुद्ध के प्रवचन सुनकर आती। और घर का पूरा काम काज भी समय पर कर लेती। एक दिन उसने अपने ससुर को भोजन परोसते समय कहा पिता जी भोजन स्वादिष्ट है? नगर सेठ बोला बहुत स्वादिष्ट है। किंतु यह प्रश्न तूने क्यों पूछा बहु! पुत्र वधू ने कहा-”यों ही पूछ लिया। भोजन बासा था इसलिए।” नगर सेठ बोला “किंतु भोजन तो गरम व ताजा है। बासा कैसे है?” पुत्र वधू ने कहा-”वह तो ठीक है। किंतु आपके यहाँ जो यह धन धान्य मणि-माणिक भरे पड़े हैं वह तो आपके पूर्वजों की कमायी घटाते हैं। आपको तो मैंने कभी कोई पुण्य, परमार्थ पुरुषार्थ करते देखा नहीं इसलिए मैंने बासा कहा है। हो सकता है कभी आपने पिछले जन्मों में पुण्य किये हों जिसके बलबूते आप को बैठे-बैठे यह सब कुछ सुख मिल रहा हो। किंतु आगे के लिए तो मैं आपको कुछ करते नहीं देख रही।”

पुत्र-वधू की बात से नगर सेठ के अंतःचक्षु खुल गए। दूसरे दिन नगर सेठ बुद्ध के प्रवचन में सबसे आगे बैठे और दानदाताओं की सूची में नगर के सब सेठों से ऊपर की पंक्ति में उनका नाम अंकित था।


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