कुछ अनुभूतियाँ, जो अब हमारी अनमोल धरती हैं

February 1995

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अध्यात्म और आध्यात्मिकता की चर्चा शुरू होते ही सिद्धि चमत्कारों, विभूतियों की कल्पनाएँ मन में जगमगाने लगती हैं। गोरखनाथ, दत्तात्रेय, अगस्त्य, विश्वामित्र, लोपामुद्रा, अनुसुइया, मल्लीबाई आदि द्वारा किए गए चमत्कारों की चर्चा से पुराने शास्त्रों-ग्रंथों के हजारों-लाखों पन्ने भरे पड़े हैं। इन्हें पढ़ने पर मन में सहज सवाल उठता है कि वर्तमान युग में भी कोई ऐसा तपस्वी हुआ है क्या? जिसमें अध्यात्म, समर्थ शक्ति बनकर प्रवाहित होता रहा हो। क्योंकि सामान्य क्रम में इन दिनों अध्यात्म की पहचान वेश और संवादों से होती दिखाई देती है। इस नाटकीय प्रचलन को हर कहीं खुले आम देखा जा सकता है। निराशा के इस घने अंधकार में परम पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीय माताजी प्रखर सूर्य बनकर उदित हुए। गुरुदेव की अलौकिक सामर्थ्य परिजनों से छुपी नहीं है। माँ का प्यार बच्चों पर पिता की अपेक्षा कुछ अधिक ही होता है। गुरुदेव के रहते हुए और उनके जाने के बाद भी माताजी का तप-प्राण अपने बच्चों के घर आँगन में आशीर्वाद वरदान बनकर बिखरता रहा है। सिलसिला अभी थमा नहीं है। शरीर न रहने पर भी अपनी मातृसत्ता सूक्ष्म रूप में पूर्ववत सक्रिय है। उनकी अलौकिक विभूतियाँ हम सबके जीवन को धन्य बना रही हैं। ऐसे सभी घटना प्रसंगों को स्थानाभाव के कारण दे पाना तो संभव नहीं। परंतु उनमें से कुछ की चर्चा नीचे की जा रही है। परिजन पढ़ें और अनुभव करें, कि उनका और उनके परिवार का जीवन वंदनीय माताजी के आँचल की छाया में सुरक्षित है।

1991 अगस्त का महीना था। मेरे ऊपर एक झूठा आरोप लगा, जिसके कारण मैं बहुत दुखी थी। मेरे कमरे में शंकर भगवान एवं माता पार्वती की फोटो लगी है। उस फोटो के आगे मैं बहुत रोई। रोते-रोते सो गयी। तब सपने में देखा चारों तरफ हरियाली है, वहाँ एक तख्त पर हरी किनारी की सफेद धोती पहने माता जी बैठी हुई हैं। वह चश्मा लगाए हुए हैं। मैं उनके पास से निकल कर जा रही हूँ। उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया और कहा-बेटी! तू रात मुझे बहुत याद कर रही थी और अब मेरे पास से होकर जा रही है। मैं उनके चरणों में गिरने को हुई। उन्होंने मुझे गले लगाकर बहुत प्यार किया। अरे! पार्वती माता जी कहकर मैं उनसे लिपट गयी, उन्होंने मुझे बहुत प्यार किया।

इस स्वप्न के समय तक मैं शाँतिकुँज के बारे में जानती तक न थी। स्वप्न देखने के कुछ दिनों बाद मेरी ननद व नंदोई कानपुर से मेरे घर आए। वे दोनों गायत्री परिवार के अच्छे कार्यकर्ता हैं। उन्होंने मुझ पर शाँतिकुँज चलने के लिए दबाव डाला। उनके बहुत कहने पर मैंने कहा-अच्छा नवरात्रि में चली जाऊँगी। अक्टूबर नवरात्रि शिविर में शाँतिकुँज आयी। भेंट मुलाकात के लिए 12 से 3 बजे के बीच जब मैं माताजी के पास पहुँची तो अवाक् रह गई। लगा इनको कहीं देखा है, दिमाग पर जोर डालने पर सपने की बात ध्यान में आयी। सोचने लगी-तब क्या माता जी ही माँ पार्वती हैं? मुझे इस तरह सोचते देखकर माताजी मुसकराते हुए-”हाँ बेटी! तू ठीक सोचती है। हम अपने बच्चों की प्यार करने के लिए रात के समय उनके घर पहुँचते हैं।” उनके इस कथन पर मैं भाव विह्वल हो उठी।

श्रीमती लता दुबे, मुरादाबाद

सन् 1985 में पूज्य गुरुदेव की हीरक जयंती मनायी जा रही थी। इन दिनों गुरुदेव सूक्ष्मीकरण साधना में थे। शिविर में आने वाले सभी लोग माता जी से मिलते-जुलते थे। मैं भी अपनी पत्नी के साथ पाँच दिवसीय शिविर में शाँतिकुँज पहुँचा। पहुँचने के दूसरे दिन से ही पत्नी को खूनी पेचिश शुरू हो गयी। मुँह से भी खून आने लगा। शाँतिकुँज में चिकित्सक इलाज कर रहे थे। एक दिन शाम में हालत ज्यादा बिगड़ गयी। आश्रम के मेटाडोरे से हरिद्वार-जिला अस्पताल ले जाया गया। वहाँ के चिकित्सकों ने वापस भेज दिया। हालत में कोई सुधार न हुआ। डॉक्टर प्रणव माता जी के आदेश पर देखने गए। उनके साँत्वना देने पर मैंने कहा-पत्नी मर जाएगी तो माता जी क्या करेंगी? वह समझाते हुए बोले-”चिंता न करो, यहाँ लोग रोते हुए आते हैं, हँसते हुए जाते हैं।” अगले दिन मैं माताजी से मिलने गया। उन्होंने कहा-बेटा घर जाओ। मैंने रोते हुए कहा-पत्नी मर रही है, घर कैसे जाऊँ। माताजी ने पत्नी को अपने पास बुलाया और शैल दीदी से कहा-कि सेब हमारी बेटी को दो। उस सेब को खाते ही वह कष्ट से मुक्त हो गई। हम लोग हँसते-खिलखिलाते उसी दिन घर के लिए प्रस्थान कर गए।

दिग्विजय सिंह बधुआ

यों तो सारा जीवन वंदनीय माता जी के अलौकिक अनुदानों से लबालब भरा है। उन सब की चर्चा करने के लिए शायद उतने ही पृष्ठ लिखने पड़ें जितने दिनों का जीवन है, फिर भी विवरण पूरा नहीं लिखा जा सकेगा। लेकिन कुछ घटनाएँ ऐसी हैं जिनमें न केवल माताजी के दिव्य संरक्षण का अनुभव हुआ बल्कि उस संरक्षण के प्रभाव से अंतःकरण का कायाकल्प हो गया। जीवन का घना अँधेरा-चमकते-दमकते प्रकाश में बदल गया।

इस घटना के कुछ साल पूर्व मैं चिकित्सा शास्त्र में उच्चस्तरीय अध्ययन के लिए अमेरिका जाने वाला था। लगभग सभी औपचारिकताएँ पूरी हो चुकी थीं। गुरुदेव-माताजी से आशीर्वाद लेने शाँतिकुँज पहुँचा। गुरुदेव तो सदा की भाँति रहस्य में लिपटी बातें करते रहें। परंतु माता जी ने स्पष्ट स्वरों में कहा-तुम्हारा विदेश जाना उचित नहीं है। विदेश चले जाने पर उचित देख देख नहीं हो पाएगी। किस बात की उचित देख रेख? मन में सवाल गूँजा-आखिर मैं कोई बच्चा तो हूँ नहीं। फिर भी आदेश, मन के सवाल को मन में कुचल-मसल कर फेंक दिया। विदेश जाने की कल्पना तिरोहित हो गई।

बात आई हो गयी। इस बीच बी. एच. ई. एल. के अस्पताल में चिकित्सा अधिकारी के अच्छे पद पर नियुक्ति हो गयी। पोस्टिंग हरिद्वार ही हुई। पत्नी-बच्चे के साथ शाँतिकुँज आने-जाने का क्रम लगा रहता। एक दिन बच्चे के लिए खिलौने वाला स्कूटर लाए। छोटा आठ माह का बच्चा माताजी के सामने उससे खेल रहा था। चाभी भरने पर स्कूटर थोड़ी दूर चलता फिर लुढ़क जाता। माताजी इस सबको देख रही थीं। कुछ सोचती हुई मुझसे बोलीं-”तुम हैलमेट क्यों नहीं खरीद लेते?” उस दिन बात समाप्त हो गई। अगले दिन फिर समझाते हुए कहा-”तुम भी कभी स्कूटर से गिर सकते हो, अपना ख्याल रखा करो।” तीन दिन बाद दुर्घटना हो गयी। सिर में भारी चोट लगी, जबड़ा बचने की कोई आशा न रही। उनकी कृपा से नया जीवन मिला। यह कैसे हो सका? इसे न चिकित्सक समझ सकते हैं, न चिकित्सा शास्त्र। स्वयं चिकित्सा विशेषज्ञ होने के कारण मुझे भी आश्चर्य हुआ। बस उसी दिन से उनका प्रदत्त जीवन उन्हीं के लिए अर्पित हो गया।

(निजी अनुभूति संपादक की)

चित्रकूट धाम में अश्वमेध यज्ञ संपन्न कराने का विचार हम सभी क्षेत्रीय कार्यकर्ताओं के मन में उभरा। विचार को संकल्प का रूप देने के लिए हम लोग शाँतिकुँज पहुँचे। वहाँ पहुँच कर हम सभी लोगों ने माता जी के सामने अपना मंतव्य स्पष्ट किया। अपनी समस्याओं-परेशानियों की चर्चा करते हुए कहा, हम लोग तो माता जी आपके हाथ की कठपुतलियाँ हैं। जैसा नचायेगी वैसा नाच लेंगे। आशीर्वाद देते हुए उन्होंने कहा-बेटा! तुम लोग चिंता न करो, यह परमात्मा का काम है और भगवान का काम स्वयं भगवान ही करते हैं। कार्य का माध्यम बनने वाले यश की धरोहर जरूर पाते हैं।

उनके आशीर्वाद और प्रीति वचनों से धन्य होकर हम लोग चलने लगे। यकायक ध्यान आया उस इलाके में तो पानी नहीं बरसा ठंड भी आ पहुँची। पानी के अभाव में फसल नहीं होगी और फसल के अभाव में जन सहयोग कैसे जुटेगा बस अपनी बात उनसे कह दी। कुछ सोचते हुए वह बोली-अच्छा अभी बरस जाए तो कैसा रहेगा। हाँ ठीक रहेगा सभी ने एक स्वर से कहा। अच्छा ठीक है तो फिर अभी बरसाए देते हैं।

हम लोग इस वरदान पर आश्चर्य चकित होते हुए चल दिये। रास्ते में सोचते जा रहे थे-क्या माता जी का प्रकृति की शक्तियों पर नियंत्रण है? गर्मी, सर्दी बरसात को भी वह नियंत्रित कर सकती है? इसी ऊहापोह में पड़े हम लोग चले जा रहे थे। इलाहाबाद तक पहुँचते-पहुँचते बारिश शुरू हो गयी। खूब जोर की बारिश थी। पूरा इलाका माताजी की आशीर्वाद वर्षा से भीग गया। लोगों की फसल भी अच्छी हुई और जन सहयोग मिला। सब कुछ अनुभव करने पर अपनी अंतरात्मा ने समाधान दिया माता जी शक्तियों का मूलस्रोत आदि शक्ति हैं। उन्होंने मानव शरीर धारण कर गुरुदेव की लीला में सहयोग दिया है। उनकी कृपा से सब कुछ संभव है।

निर्मल सिंह, सतना

गुना अश्वमेध के उपराँत ग्वालियर आने पर मेरे छोटे पुत्र चिरंजीव सिद्धार्थ को तेज बुखार आ गया। आठ वर्ष का बालक ज्वर में तड़प उठा। उसे पास के बाल रोग विशेषज्ञ को दिखाया। उसने उसे दो दिन की दवा दी। दवा खाने के बावजूद कोई असर न हुआ। उलटा दो दिन बाद पहले वह चलने में लड़खड़ाया फिर पैरों से एकदम असमर्थ हो गया। उसका चलना-फिरना एक दम बंद हो गया। हमें पोलियो का भय था सो उसे फिर चिकित्सक के पास ले गए। चिकित्सक ने कहा पोलियो तो नहीं है, पर एक और कठिन बीमारी की आशंका है। पूछने पर उन्होंने बीमारी का नाम यामोसाइटिस बताया और खून का सी. के. पी. एन्जाइमटेस्ट कराने का निर्देश दिया। सामान्यतया यह आठ वर्ष की आयु में 25 से 200 तक होता है, किंतु वह 510 निकला। अतः रिपोर्ट पॉजेटिव आ गई। हम सभी परेशान हो गए। मैंने वंदनीय माताजी के चित्र के सामने बैठ कर प्रार्थना की। प्रार्थना के समय कान में उनकी आवाज सुनाई दी-रो मत, तेरा लड़का ठीक हो जाएगा और आश्चर्य उसी क्षण से चि. सिद्धार्थ ठीक होने लगा। रात्रि को 12 बजे हमने उसे अश्वमेध का प्रसाद दिया, जिसे उसने बड़े चाव से खाया। सुबह होते तक वह बिलकुल ठीक हो गया। अगले दिन जब हमने उसे चिकित्सक महोदय को दिखाया, तो वे भी हैरान हुए। आखिर असंभव जो संभव हो गया था।

श्रीमती सुनीता धर्माधिकारी ग्वालियर

हम, इंग्लैण्ड के कार्यकर्ताओं मिलकर लीस्टर में 108 कुँडीय यज्ञ, का आयोजन किया था। शाँतिकुँज से डॉ. प्रणव पण्ड्या अपने सहायकों के साथ पहुँचने वाले थे। हम सभी ने खूब जोर-शोर की तैयारियाँ की थीं। परंतु इंग्लैण्ड के मौसम का क्या करें, जिसका कोई भरोसा नहीं। मौसम की खराबी में किसी भी आयोजन में अधिक वाहनों के आने-जाने से सड़कें खराब होने की संभावना बनी रहती है। इसी कारण वहाँ बतौर इन्श्योरेन्स 5000 पाउन्ड जमा कराने पड़ते हैं। डॉ. प्रणव की टोली समय से पहुँच चुकी थी। लेकिन जिसका डर था वही हुआ, यानि कि रात से ही पानी तेजी से गिरने लगा। अब क्या करें? सुबह कार्यक्रम कैसे संपन्न होगा? हम सभी विवश थे। सभी ने मिलकर माताजी का ध्यान किया-कातर स्वर में प्रार्थना की, कि जिस किसी तरह पानी बंद हो। पानी का वेग कम हुआ। सुबह डॉक्टर प्रणव जी ने माता जी से फोन पर बात की, यथास्थिति बताकर उनसे अनुरोध किया कि पानी एकदम बंद होना चाहिए। फोन पर उन्होंने हँसते हुए कहा-तुम लोग परेशान न हो, अभी आधे घंटे के अंदर बादल छट जायेंगे और सचमुच आधे घंटे में मौसम खुल गया। दो दिन तक यज्ञ चलता रहा, पानी की एक बूँद भी न गिरी। यज्ञ समाप्त होने पर, तम्बू, शामियाना उखड़ जाने के तुरंत बाद घनघोर बारिश शुरू हो गयी। जिसका वेग तीन दिनों तक न थमा। सभी आश्चर्य विभोर थे।

चन्द्रेश जोश लीस्टर-इंग्लैण्ड

उलझनों भरी इस जिंदगी को कैसे जिएँ? इस सवाल का जवाब सोचते-सोचते थक गया था। व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक संघर्षों की जटिलता से लड़ते-लड़ते अत्याधिक मानसिक दबाव महसूस होने लगा और अनिद्रा रोग की शुरुआत हुई। भिलाई, ग्वालियर आदि सब जगह इलाज कराया, किंतु कुछ भी फायदा न निकला। हाँ परेशानी जरूर बढ़ती गयी।

अंततः अपने छोटे भाई की सलाह के अनुसार फरवरी 1981 में शाँतिकुँज आश्रम पहुँचा। भेंट मुलाकात के दौरान वंदनीय माताजी से अपनी समस्या कह सुनायी। उन्होंने आश्वासन भरे स्वरों में कहा-परेशान मत हो बेटा! तू तो ये सोचा कर मेरी एक माताजी हैं, भला माँ के रहते बालक को परेशान होने की क्या जरूरत। उनके शब्दों में कुछ जादू की मिठास थी, मन गदगद हो गया। चलते समय उन्होंने रक्षा कवच और हवन भस्म की एक पुड़िया दी। रक्षा कवच गले में धारण कर लिया। हवन भस्म रोज रात में सोते समय लगाने लगा। दो वर्षों का अनिद्रा रोग दो दिनों में समाप्त हो गया। शाँतिकुँज से प्रसन्न घर वापस लौटा। घर पहुँचने के बाद धीरे-धीरे अन्य पारिवारिक, सामाजिक, समस्याएँ भी सुलझती चली गयीं। उनके कहे गए शब्द हमारा जीवन संबल बन गए। आज भी मन उन्हें गुनगुनाता रहता है-’भला माँ के रहते, बालक, को परेशान होने की क्या जरूरत।’

श्री किशन देवाँगन, बिलासपुर

मैंने आश्विन नवरात्रि से 40 दिन का, सवा लक्ष का गायत्री महामंत्र के अनुष्ठान का संकल्प लिया। अनुष्ठान शुरू करने के पूर्व हमने संरक्षण एवं दोष परिमार्जन हेतु वंदनीय माताजी को पत्र लिख भेजा। उस पत्र में यह भी लिखा कि चालीसवें दिन अनुष्ठान की पूर्णाहुति के समय परम वंदनीय माता जी स्थूल शरीर से न सही सूक्ष्म शरीर से ही पूजा पीठ पर पधारने की कृपा करें। पत्र के जवाब में लिखा था कि वह सूक्ष्म रूप में अवश्य आएँगी। जवाब पढ़कर प्रसन्नता हुई, मनोबल भी बढ़ा। यह बात एक-आध सप्ताह याद रही, फिर अनुष्ठान की दिनचर्या की व्यस्तता में कुछ भी याद न रहा।

चालीसवें दिन पूर्णाहुति का कार्यक्रम था। मैं सपत्नीक गायत्री महामंत्र की आहुति देकर यज्ञ कर रहा था। बीच-बीच में माँ गायत्री का ध्यान करते हुए आँखें बंद कर लेता। उसी समय एकाएक दृश्य परिवर्तित हो गया। ध्यान तो मैं माँ गायत्री का कर रहा था। पर उनके स्थान पर माताजी का स्वरूप उगते सूर्य के रंग के आभा मंडल के बीच दिख रहा था। यह स्वरूप पूजावेदी के ऊपर रखे फोटो के थोड़ा ऊपर दिखने लगा।

उसके बाद अचानक ही हृदय की धड़कन बढ़ने लगी। शरीर शिथिल हो गया। मुझे यह नहीं मालूम पड़ रहा था कि मैं क्या कर रहा हूँ। यद्यपि मैं अपनी जानकारी में मंत्रोच्चारण कर रहा था, पर यह भान नहीं था कि कब मंत्र प्रारंभ हो रहा है, कब स्वाहा बोला जा रहा है। दो-चार आहुतियाँ बिना स्वाहा के ही डाल दीं। पत्नी ने टोका भी पर मेरी स्थिति अजीब थी। कुछ देर में धड़कने कम हुईं। मैं होश में आने लगा। धीरे-धीरे दृश्य दिखाना बंद हो गया। यज्ञ कर्म समाप्त होने पर कन्या भोज के बाद माताजी की सूक्ष्म रूप में आने वाली बात ध्यान में आयी। साथ ही यह भी समझ में आया कि माँ गायत्री एवं वंदनीय माताजी एक ही महाशक्ति के दो रूप हैं।

पीताँबर प्रसाद शर्मा, ग्रा. पो. साँडा जनपद सीधी (म. प्र.)

पत्नी के पेट में पथरी हो गयी। डॉक्टरों ने एक्सरे के बाद बताया कि आप्रेशन कराना पड़ेगा। हमने शाँतिकुँज पहुँच कर गुरुदेव से बताया, तो गुरुदेव ने कहा वह सब ठीक हो जाएगा। माताजी से रक्षा कवच ले लेना।

गुरुदेव से मिलने के बाद परिजन माताजी से मिल रहे थे। वह शिविर समाप्ति के बाद विदाई का दिन था। माताजी सबको यज्ञ भस्म की पुड़िया दे रही थीं। उसी लाइन में खड़े होकर जब हमने प्रणाम किया, तो उन्होंने हमें भी भस्म दिया। जब हमने बताया कि गुरुदेव ने रक्षा कवच के लिए कहा है तो वह बोलीं भस्म के साथ ही दे दिया है, बेटा। मैंने देखने पर पाया कि भस्म की पुड़िया के साथ ही रक्षा कवच भी था। मैं सोचने लगा कि माताजी तो सबको सिर्फ भस्म दे रही हैं, फिर मेरे बिना बताये उन्हें यह कैसे मालूम हो गया कि लाइन में खड़े इसी आदमी को गुरुदेव ने रक्षा कवच के लिए कहा है। बहुत सोचने पर यही लगा कि वास्तव में गुरुदेव, माताजी दोनों एक ही हैं। ताबीज को धारण करने के बाद डॉक्टर ने कहा पेट में कोई रोग नहीं है।

सत्यमसिंह सरग्रुजा (म. प्र.)

कनाडा के टोरेन्टो शहर में आवमेध यज्ञ की तैयारियाँ चल रही थीं। सभी उल्लास में थे। एकाएक बादलों के घिर आने से सभी के चेहरों पर उदासी छा गयी। प्रायः रोज पानी बरस जाता। टेण्ट हाउस के मालिक ने सलाह दी कि आयोजन का विचार छोड़ दो। भला ऐसे में किस तरह इतना बड़ा यज्ञ संपन्न हो सकेगा। शाँतिकुँज से अग्रिम तैयारी हेतु आए जयंती भाई ने उससे कहा-”आप चिंता न कीजिए। हमारी माताजी आयेंगी, उनके आते ही बरसात बंद हो जाएगी।”

उसने जयंती भाई की ओर अविश्वास भरी नजरों से देखते हुए कहा भला किसी के आने से बरसात बंद होने का क्या संबंध? लेकिन भक्त का मान तो भगवान ही रखता है। वंदनीय माताजी को डॉ. प्रणव और शैल बहन के साथ कनाडा पहुँचना था। वह जैसे ही हवाई जहाज से उतरीं कि पानी बरसना बंद हो गया। यज्ञ समारोह पूरे उल्लास और धूमधाम से संपन्न होता रहा। समारोह के अंतिम दिन मौसम विभाग ने सूचना दी कि आज दो बजे से ओलों के साथ वर्षा होगी। कार्यकर्ताओं ने इसकी सूचना माताजी को दी। उन्होंने कहा तुम लोग चिंता न करो यज्ञ को तीन बजे तक चलने दो। यज्ञ तीन बजे समाप्त हुआ। उसके बाद वह अपने सहायकों के साथ हवाई अड्डे आयीं। वहाँ से वह भारत के आने के लिए हवाई जहाज पर बैठीं। हवाई जहाज उड़ने के बाद ओलों के साथ जोरों से बारिश शुरू हो गई। पायलट ने आकाश में पहुँचने पर यात्रियों को बताया कि आज हमारा आखिरी विमान है जो टोरेन्टो हवाई अड्डे से उड़ सका।

जयंत एवं प्रुल्ल देसाई, टोरेन्टो कनाडा

अक्टूबर सन् 1991 में हमारी दुकान में चोरी हो गयी। दुकान हम दोनों भाई सँभालते थे। पिता जी के डर से हम दोनों भाई घर से भाग निकले। घर में पिता जी के लिए एक पत्र छोड़ दिया, जिसमें लिखा कि दुकान की चोरी के कारण घर से जा रहा हूँ। पर जहाँ भी रहूँगा आपके

सम्मान में आँच न आने दूँगा। घर से जिस किसी प्रकार हम लोग दिल्ली पहुँचे। वहाँ डाक टिकट समारोह में हमने माता जी के प्रणाम दर्शन का सौभाग्य पाया। दिल्ली से शाँतिकुँज आना हुआ। यहाँ स्वागत कक्ष पर हम दोनों को सिर्फ दो दिन रुकने की आज्ञा मिली। परेशानी बढ़ती रही-रोना आता रहा। कैसे करें? क्या होगा? इसी सोच-विचार में मन उद्विग्न था।

जैसे ही हम लोग माता जी के पास चरण स्पर्श के लिए पहुँचे। उन्होंने हम दोनों का तिलक कर दिया। बात कुछ समझ में नहीं आयी। बाद में माता जी ने कहा हमारी दो बेटियाँ गौरी और इन्दू हैं। इन्हें तुम दोनों को दे रहे हैं। यदि ये न चाहो तो हम आशीर्वाद देते हैं, तुम दोनों घर जाओ, दुकान चलेगी, लखपति बन जाओगे। पर लक्ष्मी नहीं माया मिलेगी। हम भाइयों ने कहा-माता जी हमारे पास कुछ नहीं है, शादी करके क्या करेंगे। उन्होंने कहा शादी कर रहे हैं तो सारे जीवन का खर्च उठाने की हैसियत भी हम रखते हैं।

तुम लोग हमारे बच्चे हो। मैं इतने बच्चों को इस शरीर से नहीं पैदा कर सकती थी। इस कारण विभिन्न स्थानों पर पैदा किया, पर हो तुम सब हमारे ही अंश जो बिखर गये हो। तुम्हारी दुकान पर चोरी, भागना, आना, यह सब हमें मालूम है। तुम लोग निश्चिंत रहो। जब शादी संपन्न हो रही थी, उसी समय स्वागत कक्ष पर पिता जी आ पहुँचे। वह हम दोनों को ढूँढ़ते हुए आए थे। उन्हें शीघ्र विवाह स्थल पर भेजा गया।

आशीर्वाद लेते समय मेरे पिता जी ने वंदनीय माताजी से कहा कि शादी तो आपने इन बच्चों की करा दी। अच्छा ही हुआ, आपके ही बच्चे हैं। लेकिन पर इसकी माँ, बहन, भाई हैं, वे सब क्या कहेंगे। सोचेंगे किसकी कहाँ शादी हो गयी, हम लोग देख भी नहीं पाए। माता जी बोलीं-देखने की बात है तो बच्चों की शादी सबको दिखा देंगे और सभी परिवार वालों ने उसी दिन एक ही रात में अपने स्वप्नों में शाँतिकुँज में संपन्न हुई शादी का सारा विधि-विधान देखा। सुबह उठने पर सभी संतुष्ट थे। इस घटना के साथ मैंने अपना जीवन मिशन में समर्पित कर दिया।

ईश्वरी यादव भिलाई नगर

मुझे सन् 1961 से ही परम पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीय माताजी की स्नेह छाया में रहने का सौभाग्य मिला है। शुरू से ही मेरा झुकाव गुरुदेव की अपेक्षा माताजी की ओर अधिक रहा है। शायद इसलिए माँ का ममत्व बच्चों को अधिक आकर्षित करता है। कुछ भी हो लेकिन माता जी का प्यार मेरी हर साँस में बसा है। जब कभी कोई परेशानी आयी, मन दुखी हुआ, माताजी यादों में, भावों में, जगमगाने लगतीं।

उस समय भी कुछ ऐसा हुआ। यों यह घटना आज से 29 वर्ष पुरानी है। पर सब कुछ मेरी यादों के खजाने में ज्यों का त्यों सुरक्षित है। भला ऐसी निधि को कौन खोना चाहेगा। बात सन् 1966 की है। इन दिनों मैं कानपुर के जी. एस. पी. एम. मेडिकल कॉलेज में एम. एस. कर रहा था। निवास भी मेडिकल कॉलेज के पोस्ट ग्रेजुएट होस्टल में था। इस होस्टल के कमरा नंबर 16 में मैं अकेला रहता था।

एक दिन अपने कमरे में दुखी मन बैठा था। मेरे मोजे फट गए थे। टूटी-फूटी साइकिल से तीन चार मील दूर उर्सला अस्पताल जाना पड़ता था। पढ़ाई में अलग से कठिनाई थी। क्योंकि उस समय डॉ. सिन्हा के आधीन एम. एस. करना बड़ा कठिन माना जाता था। हम लोग कुल पाँच विद्यार्थी थे। जिसमें एक मद्रास विश्व विद्यालय का गोल्डमेडलिस्ट, एक कलकत्ता यूनिवर्सिटी का टॉपर, एक लखनऊ मेडिकल कॉलेज से आया मेधावी छात्र था, एक विद्यार्थी और था जो चार सालों से फेल हो रहा था। पांचवां मैं था, जिसके लिए एम. एस. की पढ़ाई अति कठिन लग रही थी।

इसी सोच विचार में डूबा माताजी को याद कर रहा था। पुकार रहा था, माता जी को मदद करो! दुखी मन से खूब उनकी याद किए जा रहा था। तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया। दरवाजा खोलने पर देखा एक लड़का खड़ा था। वह बोला मैं यहीं एम. बी. बी. एस. के पहले साल में पढ़ रहा हूँ। कानपुर के सूटरगंज मुहल्ले में मेरे माता-पिता हैं। वहीं पास में आपके छोटे भाई के श्वसुर रहते हैं। उन्होंने आपसे मिलने को कहा था। फिर कहने लगा-कि आप पुरानी साइकिल पर उर्सला अस्पताल जाते हैं। आप मेरी नयी साइकिल ले लें। ऐसे भी मैं फर्स्टइयर में हूँ, सीनियर लोग साइकिल ले जाते हैं। कई बार मना करने पर भी जबरदस्ती अपनी नयी साइकिल दे गया।

जब जूते पहनने गया, तो देखा एक नया नायलोन का मोजा जूतों के पास रखा था। अभी तक उसका रैपर तक न खोला गया था। कमरे में मैं अकेला था। समझ में नहीं आया कि मोजा वहाँ तक पहुँचाया किसने? पर सच्चाई सामने थी। शाम को एक और लड़के से मुलाकात हुई। उसने स्वयं अपना परिचय दिया, मेरा नाम डॉ. आर. सी. रेलन है। अपना एम. एस. पूरा करने के बाद मैं यहीं इसी कॉलेज में डिमाँस्ट्रेटर हूँ मुझे बाँस ने तुम्हारे एम. एस. की तैयारी के लिए भेजा है। उन्होंने मेरी बहुत मदद की। परीक्षा में केवल दो ही पास हुए उनमें से एक मैं था। मथुरा पहुँचने पर मैंने पूरी घटना माताजी को सुनाई और पूछा आपको क्या सबके कष्ट मालूम होते हैं? उनका जवाब था-अपने बच्चों का ख्याल तो रखना ही पड़ता है। सचमुच माँ के सिवा बच्चों का ख्याल और कौन रखेगा?

डॉ. अमल कुमाल दत्ता, शाँतिकुँज

मेरे एक घनिष्ठ परिचित सज्जन हैं। उनके लड़के की तबियत काफी अरसे से खराब रहती थी। काफी इलाज करवाया, परंतु सुधार के कई लक्षण नहीं दिखाई दिए। काफी छान-बीन के बाद डॉक्टरों ने पाया कि लड़का ब्लड कैंसर का रोगी है। उसे टाटा कैंसर हास्पिटल ले जाया गया। वहाँ चिकित्सा विशेषज्ञों ने पाया कि लड़के का ब्लड कैंसर थर्ड स्टेज में है। ऐसी स्थिति में चिकित्सा का कोई उपयोग नहीं। उन्होंने कह दिया कि बच्चा कुछ ही दिनों जीवित रहेगा। सब निराश हो गए।

निराशा के इस घने अंधेरे में मेरे लिए आशा का एक ही सूर्य थीं वंदनीय माताजी। मैंने उन लोगों को शाँतिकुँज चलने की सलाह दी। शाँतिकुँज पहुँच कर उन सभी ने लड़के की हालत से माताजी को अवगत कराया। लड़के, माँ-बाप विकल थे, उनकी रोनी सूरतें देखकर माता जी करुण हो उठीं, उनकी आँखें भर आयीं। रुँधे कंठ से कहने लगी बेटा! तू चिंता क्यों करता है, तेरा लड़का ठीक हो जाएगा। परेशान होने की जरूरत नहीं। सभी वापस घर लौटे। सभी ने आश्चर्य से देखा लड़के की हालत दिन पर दिन सुधरने लगी थी। उसे फिर से टाटा कैंसर हास्पिटल ले जाया गया। अब तो डॉक्टरों के चौंकने की बारी थी। सारे परीक्षणों के बाद उन्होंने घोषित किया अब तो लड़के में कोई रोग का निशान नहीं बचा। माँ की करुणा से भला क्या असंभव है?

सुश्री आशा ज्ञानी, बम्बई

नागपुर अश्वमेध महायज्ञ के सिलसिले में हम पाँच स्थानीय कार्यकर्ताओं की टोली लखनादौन तहसील में कार्यक्रम कर रही थी। टोली का नेतृत्व मैं कर रहा था। कार्यक्रम संपन्न करते हुए हम लोग नागनदेवरी के पास टोला नाम के गाँव में पहुँचे। इस गाँव में बीस पच्चीस घर हैं। यहाँ कोई युग निर्माण से परिचित न था। हाँ गाँव वालों ने हमारे दादा स्व. पं. कन्हैया लाल तिवारी का नाम जरूर सुन रखा था। यह जानकर कि मैं उनका नाती हूँ, गाँव के लोग बड़े प्रसन्न हुए।

एक जगह दीपयज्ञ का आयोजन रखा गया। गाँव के प्रायः सभी लोग आ जुटे। दीपयज्ञ की समाप्ति पर वोरा नाम के दस वर्षीय बालक को लेकर उसका पिता आया और कहने लगा कि आप लोग हरिद्वार से आए हैं, महात्मा हैं, मेरे ऊपर कृपा कीजिए। विवरण पूछने पर उसने कहा-यह मेरा लड़का जन्म से गूँगा है इसे ठीक कर दीजिए। डॉक्टरों की राय में तो यह अब जीवन में कभी नहीं बोल सकेगा, अब आप ही कृपा करें। मैं बहुत घबड़ाया-सोचा आज सारी महात्मागिरी धूल में मिल जायेगी। लोग हंसेंगे सो अलग। फिर दिमाग में आया इसमें मेरी प्रतिष्ठा का क्या सवाल है? प्रतिष्ठा तो माताजी की है। हम लोग तो उन्हीं के कहने से भटक रहे हैं और उनकी कृपा से सब संभव है।

यही सोचकर हमने वंदनीय माताजी के चित्र के सामने प्रणाम करके सभी से चौबीस बार गायत्री मंत्र जप करने के लिए कहा। सब लोग गायत्री मंत्र का सस्वर पाठ कर रहे थे और मैं मन ही मन माता जी से कातर भाव से प्रार्थना कर रहा था हे माता जी। इस बालक को बोलने, सुनने की शक्ति दो। गायत्री जप समाप्ति पर माता जी का स्मरण करते हुए उस पर शाँति पाठ के साथ जल छिड़का जल छिड़कते ही बच्चा माँ माँ कहते हुए अपनी माँ से लिपट गया। इस अविश्वसनीय सत्य को सभी ग्रामवासी अपनी आँखों से देख रहे थे। हर कोई माता जी का जयघोष करते हुए प्रसन्नता से नाच रहा था। जिनका नाम स्मरण करने पर असंभव संभव हो सकता है। उनके व्यक्तित्व का गुणगान भला हम निपट अज्ञान कैसे कर सकते हैं। बस हर साँस के साथ यही कहते रहते हैं माँ अपने बालकों पर अपनी कृपा बनाए रखना।

आनन्द तिवारी लखनादौन

मैं नर्स की नौकरी करती हूँ। दौड़-भाग की सैकड़ों परेशानियाँ लगी रहती हैं। छोटे अस्पतालों में नर्स की नौकरी करना कितना कठिन है, इसे तो कोई भुक्तभोगी ही बता सकता है। हम लोग सभी भाई-बहिन बचपन से अपने माँ-पिता जी के साथ शाँतिकुँज आते रहे हैं। हमारे लिए हर समस्या का एक ही समाधान रहा है-गुरुजी माता जी से कह देंगे। जून 90 में जब गुरुदेव ने महाप्रयाण किया तब भावनाएँ कसमसा उठीं, मन तड़प उठा। भागी-भागी शाँतिकुँज आयी। माता जी से लिपट कर रो पड़ी। उन्होंने दिलासा देते हुए कहा, अरे, चिंता क्यों करती है, मैं तो हूँ। मेरे रहते तुझे परेशान होने की क्या जरूरत है।

बात आई गयी हो गयी। मन माताजी में लग गया। सितम्बर 94 में जब माता जी के महाप्रयाण का हृदय विदारक समाचार सुनने को मिला। मैं जार-जार रो पड़ी। अस्पताल जाना छूट गया। बस रोए जा रही थी। अब मेरा क्या होगा? किसकी शरण में जाकर अपना दुखड़ा सुनाऊँ। उस दिन जिस किसी तरह रोते-रोते झपकी आ गयी। देखती क्या हूँ मेरे सिराहने माता जी खड़ी हैं। उनका पूरा शरीर सूरज की तरह चमक रहा है। मेरे सिर पर हाथ फिराते हुए बोली-पागल कहीं की रोती क्यों है। मैं मरी कहाँ हूँ, देख तेरे पास खड़ी हूँ। मैंने तो सिर्फ शरीर छोड़ा है। शरीर का बंधन हटते ही अब तो और अधिक सक्रियता बढ़ गई है। मैं तेरी पहले से ज्यादा सहायता कर सकूँगी। कभी मेरी याद करके तो देखना, तुरंत मेरी मदद तुम तक पहुँचेगी। सुबह उठने पर मन बहुत प्रसन्न था। शरीर भी काफी हलका लग रहा था। उनकी कृपा से समस्याएँ भी एक-एक करके निबटती जा रही हैं। मेरे मन में पूरा विश्वास है, कि मेरी माँ दूर नहीं गयीं। वह और अधिक हम लोगों के पास हो गयी हैं।

श्रीमती ऊषा उपाध्याय, बाँदा

अपनी लड़की की शादी के लिए मैं इधर काफी दिनों से परेशान था। इधर वंदनीय माता जी के देहावसान की खबर मिली। खबर सुनते ही ऐसा लगा कि अपना सब कुछ लुट गया। एक माता जी ही तो थीं जिनकी गोद में सिर रखकर थके जीवन को नयी ऊर्जा मिलती थी। अब क्या होगा? एक जगह जहाँ बच्ची की शादी के लिए बात चला रहे थे वे सब कुछ तय होने के बाद मुकर गए। परेशानी बढ़ती जा रही थी। समाधान कुछ था नहीं।

एक रात को यही सब सोचते-सोचते सो गया। सोते समय मन बड़ा विकल था। यही विचार कर रहा था कि माता जी अगर आप होतीं, तो आज ये दिन क्यों देखने पड़ते। आपसे कह देते समस्या सुलझ जाती। पर अब किससे कहें, कहाँ जाएँ? नींद आने पर स्वप्न में दिखाई दिया- बेटा। तू परेशान क्यों होता है? शरीर तो मैंने अपनी मर्जी से छोड़ा है। शरीर छोड़ने को तूने मरना मान लिया। मैं कभी नहीं मरूंगी। अपने बच्चों को प्यार-ममत्व हम पहले से भी अधिक देंगे। तुम सभी की समस्याएँ सुलझाने संरक्षण देने का दायित्व हम पर है इसे हम पहले की अपेक्षा अधिक समर्थता के साथ पूरा करेंगे। तेरी लड़की की शादी उसी लड़के के साथ शाँतिकुँज में संपन्न होगी। परेशान होने की कोई जरूरत नहीं। अगले दिन लड़के के घर वाले मेरे यहाँ आए। उन्होंने सारी बातें मिल बैठ कर सुलझायीं। यही नहीं शाँतिकुँज जाकर शादी संपन्न करने के लिए तैयार हो गए। विवाह शाँतिकुँज में गुरुदेव माता जी के सूक्ष्म संरक्षण में संपन्न हुआ। डॉ. प्रणव भाई साहब, शैल दीदी की ओर से सूक्ष्म सत्ता का आशीर्वाद मिला निःसंदेह माता का प्यार भरा सहारा उनके शरीर छोड़ने के बाद घटा नहीं बढ़ा है।

एक परिजन, कानपुर

एक परिजन, कानपुर


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