परोपकार के समान पुण्यदाता कोई भी दूसरा धर्म नहीं है। यदि ऐसा न होता तो तपस्या में निरत महर्षि दधिचि देवों की भलाई के लिए अपना शरीर नहीं दे पाते। वे शरीर की रक्षा करते और तपस्या से बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ प्राप्त और मुक्ति के लिए प्रयत्न करते रहते। किंतु अवसर पाते ही उन्होंने तुरंत ही परोपकार में अपना शरीर दान कर दिया। वे जानते थे कि हजार वर्ष तप करने, पर भी जो मुक्ति कठिनता से मिलती है वह परोपकार में शरीर त्याग देने से तत्काल सरलतापूर्वक मिल जाती है।
-माता भगवती देवी शर्मा विदेश प्रवास-