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February 1995

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संसार को सभी ईश्वर भक्तों, धर्म परायणों, महामानवों और सत्पुरुषों को अपनी मनोभूमि को वास्तविकता की अग्नि परीक्षा देनी पड़ी है। जो ईंट भट्टी में पकने से पहले इंकार कर दे वह पानी की बूँद पड़ते ही गल जाने वाली निकम्मी चीज बनी रहेगी।

मजबूती प्राप्त करने के लिए तो आग को अपनाना ही होगा। कच्चा लोहा भट्टियों में ही तो फौलाद बनता है। ऊबड़-खाबड़ ओछे और घिनौने स्वार्थी और तृष्णा वासना ग्रसित मनुष्य को आत्मकल्याण के पथ पर अग्रसर होने के लिए त्याग और बलिदान का मार्ग सदा ही अपनाना पड़ा है। इसका और कोई विकल्प न तो था और न आगे हो सकता है।

पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

मैंने इतना दिया पर इसका बदला मुझे क्या मिलेगा? ऐसे विचार करने में उतावली न कीजिए। बादलों को देखिये वे सारे संसार पर जल बरसाते फिरते हैं। किसने उसके अहसान का बदला चुका दिया? हम पृथ्वी की छाती पर जन्म भर लदे रहते हैं और उसे मल मूत्र से गंदी करते रहते हैं, किसने उसका मुआवजा अदा किया है? परोपकार स्वयं ही बदला है। त्याग करना आज आपको भले ही घाटे का सौदा प्रतीत होता हो पर जब आप उपकार करने का अनुभव स्वयं करेंगे तो देखेंगे कि ईश्वरीय वरदान की तरह यह दिव्य गुण स्वयं ही कितना शाँतिदायक है।

माता भगवती देवी शर्मा

प्रज्ञा परिजनों से हमारा व्यक्तिगत लगाव है। घनिष्ठता इतनी है कि उसका समापन किसी भी प्रकार से हो सकना संभव नहीं है। इसके कई कारण हैं। प्रथम यह कि हमें अनेक जन्मों का स्मरण है-लोगों को नहीं। जिनके साथ पूर्व जन्मों में सघन संबंध रहे हैं उन्हें संयोगवश या प्रयत्नपूर्वक हमने परिजनों के रूप में एकत्रित कर लिया है। इन सबने हमने एक ही आकाँक्षा सँजोयी है कि वे सब हमारे कदमों की यथार्थता खोजें। सफलता जाँचे और जिससे जितना बन पड़े अनुकरण का, अनुगमन का, प्रयास करें। यह नफे का सौदा है घाटे का नहीं।

पं. श्रीराम शर्मा आचार्य


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