आत्म देवता की साधना से बनते हैं हम देवमानव

February 1995

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आज संसार में दार्शनिकों की मंडली में से कितने ही ईश्वर प्राप्ति को लक्ष्य मानते और इसके लिए भजन स्तर के कर्मकाण्डों को किसी न किसी रूप में अपनाते रहने की बात कहते हैं। कहने वालों की बातों पर विश्वास करने से पूर्व यह संदेह उठना स्वाभाविक है कि ईश्वर की मनुहार करने और उपचार उपहारों की आवश्यकता आखिर पड़ती क्यों है? और इतने भर से प्रसन्न होकर मनोकामनाओं को पूरा करने लगने की क्षुद्रता पर उतारू हो क्यों जाता है? संदेह काफी वजनदार होते हुए भी कितने ही तथाकथित भक्तजन इसी भ्राँति के इर्द-गिर्द भ्रमण करते रहते हैं। कई आत्म देव की मान्यता वाले व्यक्ति भी इतने भर से अपना समाधान कर लेते हैं और कठोर पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं समझते जिसे तपश्चर्या के नाम से जाना और सच्चाई के अधिक निकट माना जाता है।

आत्मशोधन में अपने आप से संघर्ष करना पड़ता है। कषाय कल्मषों के निवारण में जो कष्ट साध्य होना चाहिए। प्रियजनों का परामर्श भी प्रचलन के अनुरूप ही हो सकता है कि स्वार्थ-सिद्धि के प्रत्यक्ष लाभ से नजर हटा कर और किसी ओर देखना ही नहीं चाहिए। इस दबाव के विरुद्ध भी तनकर खड़ा होना होता है। दुष्प्रवृत्तियों का प्रचलन कितना ही अधिक और आकर्षक क्यों न हो? पर आत्मबल तब साधक को इनके साथ तालमेल बिठाने, अनीति के आगे सिर झुकाने से इनकार ही करता है और ऐसे विरोध में निहित स्वार्थों के आक्रमण आतंक का भी खतरा रहता है। उन सब कष्टों को तल्लीन भाव से सहन करना ही तपस्वी जीवन का स्वरूप हो सकता है। इसकी परिणति तपाये हुए सोने और खरादे हुए हीरे जैसी होती है। महामानवों का इतिहास इसका साक्षी है। इतने पर भी नशेबाजों की तरह अभ्यस्त आदतों से छुटकारा पाना कठिन प्रतीत होता रहता है। आदर्शवाद की दिशा अपनाने के लिए साहस जुट ही नहीं पाता। इस पलायनवादी दृष्टिकोण को जनसाधारण द्वारा अपनाये जाते देखकर यही संदेह होता है कि मनुष्यों को बुद्धिमान प्राणी समझे जाने की मान्यता कहीं किंवदंती या भ्राँत धारणा तो नहीं है।

बुद्धिमत्ता यथार्थता समझने और दूरदर्शी विवेकशीलता से जुड़ी हुई होनी चाहिए। जहाँ वह वस्तुतः होगी वहाँ सद्विचारों को अपनाये जाने, सदाचार पर आरुढ़ होने और सद्व्यवहार के रूप में सेवा साधना के पथ पर अग्रसर होने का प्रमाण मिलना चाहिए। धर्म धारणा में एक ही प्रमाण पाया जाता है कि मनुष्य अपने प्रति कठोर और दूसरों के प्रति उदार बने। अपने को तपाये, गलाये और देवमानवों के अनुरूप दृष्टिकोण और क्रिया−कलाप का उपक्रम बना हुआ दृष्टिगोचर होना चाहिए। यदि वैसा कुछ न बन पड़े तो समझना चाहिए कि लोभ-मोह के भव-बंधनों की हथकड़ी बेड़ी जान-बूझकर पहन ली गई है।

परमेश्वर का वरिष्ठ राजकुमार अपने पिता के आदर्शों अनुशासनों का निर्वाह करते हुए दीख पड़ना चाहिए। उसे सूर्य चंद्र की तरह असंख्य को प्रकाश प्रेरणा देते रहने में सतत् निरत रहना चाहिए उसकी आग और ऊर्जा से सत्प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनने में योगदान मिलना चाहिए। इसी भावना, मान्यता, विचारणा और क्रियापद्धति के अपनाने में उसका आत्मगौरव है। उसकी ओर से मुँह मोड़ने पर तो यही कहा जायगा कि सिंह शावक ने भेड़ों के झुँड का अपने को सदस्य मान लिया है और उन्हीं की तरह मिमियाना सीख लिया है। जब आत्म स्वरूप का बोध हो और दिशाधारा में कायाकल्प जैसा परिवर्तन प्रस्तुत हो, तभी समझना चाहिए कि मनुष्य को बुद्धिमान समझे जाने की बात अपने सही स्वरूप में उभर रही है।

सामान्य जन तो किसी प्रकार पेट भरने और औलाद पैदा करने के में ही जिंदगी गुजार देते हैं, पर चतुर और प्रतिभावानों में से भी अधिकांश लोग दौलत बटोरने और जिस−तिस पर रौब गाँठने में ही अपनी क्षमता गँवा देते हैं। इस सब में उन्हें किसी परमार्थी देवमानव की तुलना में कम पराक्रम नहीं करना पड़ता, फिर भी क्षणिक ललक लिप्सा का कौतुक देखने के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता।

इसके विपरीत प्रतिभाशालियों का दूसरा वर्ग आत्म परिष्कार और लोक मंगल को अपना लक्ष्य चुनता है। इसमें भी परिश्रम उतना ही लगता है जितना कि लालची लाभ उठाते और बदले में आत्म प्रताड़ना, लोक भर्त्सना और ईश्वर की नाराजी ही सहन करते हैं। पर जिनने उत्कृष्ट आदर्शवादिता को अपनाया और पुण्य प्रयोजन में क्षमताओं को नियोजित किये रहने का निश्चय किया, वे अपेक्षाकृत अधिक नफे में रहते हैं। उन्हें श्रेष्ठता के साथ जुड़ी हुई उस महानता का रसास्वादन करने को मिलता रहता है जिसको स्वर्ग प्राप्ति के रूप में बहुधा निरूपित किया जाता है। ऐसे लोग अपनी यशगाथा अनुकरणीय और अभिनंदनीय रूप से सर्वसाधारण के सम्मुख प्रकाश भरी प्रेरणा छोड़ जाते हैं। ऐसों को ही अमृतपायी या अजर-अमर कहा जाता है। उपरोक्त तीनों परिस्थितियों में कौन किसका वरण करे, यह उनकी अपनी अभिरुचि व सुसंस्कारिता पर ही पूर्णतया निर्भर है।


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