और कुछ नहीं चाहिये (Kavita)

February 1995

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वे हमें मुसकराते हुये मिल गये, उनसे अब और कुछ चाहिये भी नहीं। मन को मन से मिलाते हुये मिल गये, उनसे अब और कुछ चाहिये भी नहीं॥

क्या करें वे भी उनको बहुत काम हैं, पास उनके है इतना समय ही कहाँ। कब-कहाँ और कैसे हमें मिल सकें वे कभी हैं यहाँ तो कभी हैं वहाँ॥

अब कभी आते-जाते हुये मिल गये, उनसे अब और कुछ चाहिये भी नहीं। मन को मन से मिलाते हुये मिल गये, उनसे अब और कुछ चाहिये भी नहीं॥

वे अकेले भला किसकी-किसकी सुनें, क्योंकि उनके लिए हैं बराबर सभी। कुछ न कम हैं हमारे लिये यह कृपा, हमको मिल जाते गाहे-बगाहे कभी॥

चित को चित में चुराते हुये मिल गये, उनसे अब और कुछ चाहिये भी नहीं। मन को मन से मिलाते हुये मिल गये, उनसे अब और कुछ चाहिये भी नहीं॥

मेरी रचना उन्हीं की रचाई हुयी, वे ही रचना-रचयिता सभी कुछ तो हैं। उनको क्या-क्या कहें वे कथन से परे, वे ही कवि और कविता सभी कुछ तो हैं॥

कोई ध्वनि गुन–गुनाते हुये मिल गये, उनसे अब और कुछ चाहिये भी नहीं। मन को मन से मिलाते हुये मिल गये, उनसे अब और कुछ चाहिये भी नहीं॥

मोह, माया से हमको छुड़ायेंगे वे, वे हमारी दशा जानते ही तो हैं। अब न कोई मेरा एक वे ही तो हैं, इसको वे भी स्वयं मानते ही तो हैं॥

बीन बौद्धिक बजाते हुये मिल गये, उनसे अब और कुछ चाहिये भी नहीं। मन को मन से मिलाते हुये मिल गये, उनसे अब और कुछ चाहिये भी नहीं॥

वे कहीं भी रहें पास मेरे ही हैं, वे तो विश्वास-आकाश मेरे ही हैं। वे दयावान हैं मेरे भगवान हैं, मेरी हर साँस मधुमास वे ही तो हैं॥

गीत मेरा ही गाते हुये मिल गये, उनसे अब और कुछ चाहिये भी नहीं। मन को मन से मिलाते हुये मिल गये, उनसे अब और कुछ चाहिये भी नहीं॥

श्री रामचरण सिंह “अज्ञात”


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