चार दिन का ज्वर है, यह सौंदर्य

February 1995

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देवसी पर्णिया के मूर्तिकार चुँक की कन्या थी। मूर्तिकार चुँक अपनी मूर्तिकला के लिए विख्यात था और देवसी अपने सौंदर्य के लिए। कलिंग देश का छोटा-सा ग्राम पर्णिया इन दोनों के ही कारण कलिंग ही नहीं बाहर के देशों में विख्यात था। मूर्तिकार की अपूर्व सुँदरी कन्या की ख्याति चारों ओर इस तरह व्याप्त हो रही थी जिस तरह पूर्णिमा के चन्द्रमा का प्रकाश समस्त भू-मंडल में छा जाता है।

धन-मद, शक्ति की तरह सौंदर्य का अहंकार भी मनुष्य को पागल कर देता है। बेचारी छोटी-सी देवसी भला उससे कैसे बच पाती? पर्णिया ग्राम कुशल कलाकारों की बस्ती थी। भगवान ने भी इस ग्राम में अपनी कला को निखारा था। कई युवक भी सौम्य और सुँदर थे, पर देवसी के मन को एक भी युवक संतुष्ट न कर सका। वह अपने आपको उर्वशी से बढ़कर मानती थी और किसी भी अर्जुन से कम के साथ विवाह करने को राजी न थी।

सौंदर्य के साथ यौवन का चढ़ाव, देवसी की काँति दिनों दिन और द्युतिमान होती गई। नील-ताल की शोभा उसके सम्मुख पानी भरती थी। कलिंग का अंतःपुर और राजकुमारियाँ देवसी का नाम सुनते चौंकती थीं। राज्य भर के श्रेष्ठी सामंतों, सत्ताधारियों और राजकुमारों तक में उसे पाने की प्रतिस्पर्धा थी। किंतु देवसी किसे कब दुत्कार कर भगा दे, इसका कुछ ठिकाना नहीं था। अब तक सैकड़ों लोगों को उसने उँगली पर नचाकर दूर फेंक दिया था। अब तो लोग उसका नाम सुनते भयभीत होते थे।

एक दिन शाम के समय गाँव से एक अनजान युवक निकला। वह किसी कामना से नहीं निकला था। सत्य की शोध उसका लक्ष्य था और गुरु की खोज में वह इधर-उधर भटक रहा था। चलते-चलते शाम हो गई थी। थकावट से चूर युवक मणिभद्र ने पर्णिया में ही विश्राम के लिए डेरा डाल दिया। देवसी के पिता चुँक ने इस युवक को भी अपनी कन्या का हाथ माँगने वाला ही समझा सो उसने अपना परिचय देना प्रारंभ किया। उधर उसकी रूपगर्विता कन्या युवक को जितनी बार देखती हँस देती और अपनी सहेलियों से कुछ तो भी कहने लगती? “बेचारा अपने को न जाने क्या समझता है लगता है इसे भी अपने पर बड़ा घमण्ड है।”

वृद्ध मूर्तिकार युवक मणिभद्र को अपनी एक मूर्ति के पास ले गया और उसे दिखाकर वह मूर्तिकला की बारीकियों को समझाने लगा। सब कुछ सुन लेने पर मणिभद्र बोले-”तात! मूर्तिकारी तो बस उस कलाकार की ही तरह निर्विकार है जिसने इस संसार को बनाया है। उस जैसी विज्ञता और कलाकारिता मनुष्य में कहाँ, जिसने आग-पानी मिट्टी, वायु और प्रकाश को मिलाकर जीवन पैदा कर दिया।”

बूढ़ा कलाकार चौंका-उसने अपने जीवन में पहला युवक देखा था जो शरीर से ही नहीं विचारों से भी लुभावना था, और तो सब रूप के प्यासे पुतले आते थे और देवसी की रूपाग्नि की धधकती ज्वाला में झुलस कर चले जाते थे। पर आज का अभ्यागत रूप से नहीं ज्ञान से प्रभावित होने वाला था। सो कलाकार जान गया कि आज की पराजय प्रतिकूल भी हो सकती है।

कलाकार एक-एक मूर्ति, मूर्तिकला के उपकरण राजाओं द्वारा प्राप्त अलंकार और पदवियाँ दिखाता हुआ मणिभद्र को घर ले गया। अपनी कन्या का परिचय देते हुए वृद्ध ने कहा-”तात! यही है मेरी रूपवती कन्या, जिसके सौंदर्य के सम्मुख राज घराने का सौंदर्य भी प्रतिहत हो चुका है।”

“ओह! देवसी!” मणिभद्र ने उसके मुख मंडल

पर दृष्टि डालते हुए कहा-”मैंने सुना है तुमने कितने ही लोगों का मान भंग किया है। देवी!

किंतु तुम नहीं जानती जिस सौंदर्य को तुम अपनी संपत्ति समझ रही हो, वह चार दिन का ज्वर मात्र है भद्रे!”

“अहंकार किसी वस्तु का हो या गुण का, ज्ञान प्राप्ति में सर्वथा बाधक है। ऐसे स्थान से जितना शीघ्र चल दिया जाय उतना ही अच्छा।” कहकर मणिभद्र ने अपनी लकुट–कामर उठाई और अपने गन्तव्य की ओर चल पड़ा। देवसी का सौंदर्य अभिमान चूर-चूर हो गया। वह युवक को पाने के लिए तड़प उठी। किंतु जब तक वह कुछ कहे, युवक मणिभद्र उसकी आँखों से ओझल हो चुका था।


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