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बहिरंग में दृश्यमान समुद्र की तरह हमारा जीवन भी एक समुद्र के समान है, जिसका मंथन करने पर हमारे हाथ तीन बहुमूल्य रत्न लगते हैं । पहला है -प्रेम की पुलकन -आँतरिक उल्लास की अनुभूति, दूसरा है - सत्य रूपी ज्ञान की गहन शोध प्राप्ति हेतु सहज जिज्ञासा, तीसरा है -पीड़ित मानव समुदाय के प्रति असीम- असहनीय स्तर की करुणा का उभार व उस निमित्त अपना सब कुछ लगा देना । इन्हीं को भक्ति , ज्ञान व कर्म त्रिवेणी, उपासना व साधना-आराधना के रूप में जाना जा सकता है ।
प्रेम की पुलकन होना अर्थात् भौतिकवाद से भरी- स्वार्थों के शिकंजे से जकड़ी, इस दुनिया रूपी तपते रेगिस्तान में सरसता से भरी कुछ बूंदें बरस जाना । एकाकीपन की ऊब, नीरसता-संवेदन हीनता की मनः स्थिति में तथा कठोर परिश्रम की थकान व उतार-चढ़ाव के मनोगत विक्षोभों से भरे इस जीवन में, सरसता केवल प्रेम में है । प्रेमी बनकर हमें अपना ‘अहं’ खोना पड़ता है व आदर्शों के समुच्चय-श्रेष्ठता की प्रतिमूर्ति अपने इष्ट परम पिता परमेश्वर को सब कुछ सौंपना पड़ता है । खोने के बाद प्रेमी-भक्त जो पाता है, वह लाख करोड़ गुना अधिक होता है । यही सच्ची भक्ति का स्वरूप होता है ।
ज्ञान, सत्य के रूप में इस जगत में विद्यमान है । उसे पाने के लिए निरंतर गहन शोध में मनुष्य लगा होता है । जो अब तक जाना जा सका, वह अद्भुत है । अभी जो जानने को शेष है , वह असीम-अनंत व अत्यंत लाभदायक है । खुले दिमाग से इसे पाने का प्रयास करना तथा उसके लिए साधनारत रह निरंतर अधिकाधिक सीखने की वृत्ति बनाए रखना एक उच्चस्तरीय योग है । यही ज्ञानयोग कहलाता है ।
इस संसार में पीड़ा-पतन-पराभव की अति कष्टकर परिस्थितियाँ संव्याप्त हैं । मात्र सुख ही सुख नहीं, कष्ट भी अत्यधिक है । औरों की पीड़ा में हिस्सा बँटाने के लिए उन्हें पतन से बचाने के लिए निज की प्रतिभा-वैभव सब कुछ लगा देना, यह परम पुरुषार्थ है, कर्मयोग की पराकाष्ठा है तथा सच्ची भगवत् आराधना है ।
इन तीन दिव्य रत्नों के रूप में हमें जीवन-साधना से जो अमृत-कण हाथ लगते हैं, उनसे सारी वसुधा को हम धन्य बना सकते हैं ।