बाधाओं से टकराये जो, उसे इंसान कहते हैं

June 1994

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सफलता सर्वप्रिय है । इसकी प्राप्ति सुगमता से नहीं होती है । प्रत्येक कार्य करके उन पर विजय प्राप्त करें । बिना विघ्न के हुआ कार्य जीवन को आनंद से पूर्ण नहीं कर सकता है । हमें आनंद की प्राप्ति कार्य के प्रारंभ करने से ही होने लगती है तथा मार्ग में विघ्न होने पर और आनंद आयेगा । बिना कष्ट उठाये मिली हुई सफलता ऐसी लगती है जैसे हमने कोई वस्तु मुफ्त में प्राप्त की हो । ऐसी वस्तु आनंद-दायक नहीं होती । सोने का महत्व इसलिए अधिक है क्यों कि वह आसानी से प्राप्त नहीं होता । लोहा अधिक उपयोगी होने पर भी पर्याप्त मात्रा में मिलता है । लोहा सोने से सस्ता है ।

कठिनाई से प्राप्त वस्तु हमें अधिक आनंद देती है । उसका हमारे मन पर स्थायी प्रभाव पड़ता है । दुर्लभ वस्तु आनंद और सुख प्रदान करने वाली होती है । वह कठिनाइयों से टकराने का इतिहास लिए रहती है । वह इस बात की कसौटी का परिणाम है कि हममें ऐसा कार्य करने की क्षमता है । कठिनाई मानव के गुणों की परख का साधन है । दुर्लभता से प्राप्त वस्तुएँ ही सफलता की द्योतक हैं । ऐसी वस्तुओं के विषय में ही पुस्तकों में लिखा जा सकता है । प्रवचन दिये जा सकते हैं जो वस्तुएँ सफलता से प्राप्त हो जायें उनके विषय में लिखना अपने समय को व्यर्थ करना है । कोई वस्तु महत्वपूर्ण इसीलिए है कि उसकी प्राप्ति में बाधाएँ आयीं । जिन्हें दूर करना पड़ा था । इन्हीं की प्राप्ति के आनंद से यह संसार रसमय बना है तथा मनुष्य इसे छोड़ने को तैयार नहीं होता ।

कठिनाइयाँ संसार में गतिशीलता बनाये हुए हैं । इन्हीं के कारण मनुष्य को समय-समय पर अपनी कार्य कुशलता का परिचय देने का अवसर प्राप्त होता है । मनुष्य की सजगता और सावधानी के कारण भी कार्य के मार्ग में आने वाली बाधाएँ ही हैं । जीवन में बार-बार ठोकरें खाकर ही मनुष्य अनुभवी होता है । बार-बार संघर्ष करने से त्रुटियों में सुधार होकर योग्यता में वृद्धि हो जाती है । कष्टों से मनुष्य दृढ़ तथा साहसी बनता है। हथियार पत्थर पर रगड़ने से पैने होते हैं । हीरे में चमक आ जाती है । कठिनाइयों की आवृत्ति से मनुष्य में चेतनता आ जाती है । मनुष्य में जो शक्तियाँ छिपी रहती हैं । प्रयोग में न आने के कारण जिन शक्तियों की अभिव्यक्ति नहीं होती । वे प्रत्यक्ष में आकर कार्य में सहायक हो जाती हैं ।

जीवन में कार्य करने की जागरुकता तथा उससे प्राप्त आनंद तभी स्थायी रहता है जबकि कार्य में कष्टों का समावेश हो । इतिहास में प्रसिद्ध व्यक्तियों ने कष्ट सहे तो उनके सामान्य कार्य भी उनको अमर कर गये वरना वे सामान्य रह जाते । जैसे प्रताप, शिवाजी, गाँधी, जवाहर आदि कष्ट सहने के कारण महान बने । वे इनके बिना सामान्य मनुष्य होते । जागरुकता और परिश्रम से किये गये कार्य बिना कष्ट उठाये नहीं पूरे हुए । कष्ट के द्वारा प्रभू मनुष्य की परीक्षा लेते हैं । जो मनुष्य इस परीक्षा में सफल होते हैं उन्हें आनंद मिलेगा । परीक्षा से डरने वाले उन्नति नहीं कर सकते उनकी इच्छायें पूरी नहीं होतीं ।

सफलता की पूर्ति धीरे-धीरे कार्य करने से होती है । इस बीच में उन्हें कष्टों से बार-बार टकराना पड़ता है । ये विघ्न कई प्रकार से मनुष्य के सामने आते हैं । दैवी प्रकोप अकस्मात् कठिनाई के रूप में सामने आते हैं । हम भूलों से भी कठिनाइयाँ अनुभव करते रहते हैं । आकस्मिक कठिनाइयाँ हमारे कार्य पथ को सुगम नहीं रहने देतीं और प्रायः हम कार्य छोड़ने तक को प्रस्तुत हो जाते हैं । कठिनाई वास्तव में वह नहीं होती जो हम समझते हैं बल्कि वह हमारे अविवेक का प्रतीक होती हैं । अविवेकी मनुष्य उसको इस रूप में देखता है । वास्तव में परिस्थितियाँ ही कठिनाई का परिवर्तन रूप होती हैं । हम अपनी बुराई के अनुसार कुछ का कुछ समझ जाते हैं । छोटी सी बात हमें वृहद रूप में दिखलाई देने लगती है । हमारा पुराना अभ्यास हमें बार-बार ऐसा सोचने पर विवश कर देता है ।

स्वभाव परिवर्तन से हम कठिनाई पर विजय प्राप्त कर सकते हैं । स्वभाव शीघ्र बदलना सरल नहीं होता । स्वभाव बनने में भी पर्याप्त समय लगता है इसी प्रकार स्वभाव को बदलने में भी समय लगेगा । अतः हमें धैर्य, साहस और दृढ़ता का प्रयोग करना चाहिए । भूल होने पर सावधानी से कार्य करना चाहिए । पत्थर और रस्सी जाते जाते वहाँ पर निशान बना देती हैं । धैर्य के साथ परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढालने का प्रयत्न करें तो आसानी हो जायगी हम सफल हो जायेंगे । आकस्मिक परिस्थितियों को आने से रोकना हमारे वश की बात नहीं है परंतु उसे सहन करने के लिए अनुभव और अभ्यास की आवश्यकता है ।

आकस्मिक कठिनाई उपस्थित होने पर हम उसे नहीं रोक सकते परंतु उसके रूप को समझ सकते हैं । तेज धूप घास को जला डालती है । परंतु हमेशा के लिए घास समाप्त नहीं होती, वर्षा होने पर वह फिर हरी भरी हो जायगी । ईश्वर ने जिसे जीवन दिया है वह जियेगा,उसे कोई मार नहीं सकता है । प्रकृति का रहस्य बड़ा विचित्र है । वह विपत्ति की विरोधी सुविधा भी अपने आप प्रदान करती है । बीमारी के बाद आरोग्य प्रदान करने के लिए भूख दी है जो जल्दी ही क्षति पूर्ति कर देती है । ग्रीष्म के बाद वर्षा, ठंड के बाद गर्म, रात्रि के बाद दिन तथा अंधकार के बाद प्रकाश का दर्शन होता है । रोग, शोक आदि स्थायी नहीं हैं उन्हें तो आने की गति से ही जाना है और फिर क्षति पूर्ति भी होती है ।

आपत्ति का आना दुखदायी है परंतु मन पर उसकी प्रतिक्रिया का विशेष महत्व है । विपत्ति के बाद घबराहट होना विशेष रूप से भयावह है जो हमारी जीवन शक्ति को खींच लेती है । इससे भविष्य में शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक संतुलन बिगड़ जाता है । आकस्मिक विपत्तियाँ बड़े-बड़े महान पुरुषों पर भी छाई रहीं सामान्य मनुष्य की तो बात ही क्या है । इस संसार में विरोधी भावों का आवागमन तो चलता ही रहता है । ये तो मनुष्य के कर्मों का फल देने, मनुष्य को जाग्रत करने, उसके कार्यों में साहस और बल भरने के लिए आती हैं । समय पर इनके कारण कार्य का क्रम बदलना पड़ जाय तो कोई हानि नहीं । हमें अपने को स्थिति के अनुकूल बदल लेना चाहिए ।

पहले संपन्न थे अब अभाव ग्रस्त हैं तो हमें समाज द्वारा किये गये उपहास से दुखी नहीं होना चाहिए क्योंकि उपहास कर्ता विवेकशील प्राणी नहीं होते । उन्हें इस कार्य को करने की फुरसत नहीं है । मूर्ख आदमी के उपहास को हम रोक नहीं सकते तथा उसके उपहास का कोई मूल्य भी नहीं है । इन विपत्तियों द्वारा होने वाली क्षति से हम चाहें तो बच सकते हैं । वास्तविक क्षति विपत्तियों से नहीं उसके पश्चात् होने वाली विपत्ति से होती है । कठिनाई से वीरता-पूर्वक लड़ना इसका एक उपाय है । वीर ही विपत्ति को हँसते-हँसते झेलते हैं । वीर अपने भविष्य को उज्ज्वल देखता है । इसलिए वह धड़ काटने वाली तलवार का मुकाबला करता है । मरूंगा तथा स्वर्ग को प्राप्त करूंगा अथवा पृथ्वी को भोग करूंगा,इस भावना से उसके सामने हमेशा उत्साह तथा आशा का संचार होता है । धैर्य, साहस और प्रयत्न उसके बुरे समय के साथी होते हैं । उसका इनके रहते कुछ नहीं बिगड़ सकता ।

बुरे समय में मानसिक संतुलन बनाये रखने वाले व्यक्ति दृढ़ रहते हैं और कठिनाइयों को हँसते-हँसते झेलते रहते हैं । मानसिक संतुलन से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य ठीक रहता है । मित्र और शत्रु सीमा में रहते हैं । उसकी अपनी भूलों रूपी दुर्घटनायें नहीं सता सकतीं । विवेकशील व्यक्ति दुर्भाग्य का दुखड़ा नहीं रोता । हमें लज्जा बुरे काम से करनी चाहिए, सद्गुण प्रेरित

कर्मों पर गर्व करना चाहिए । संसार में महापुरुषों ने संकटों को हँसते-हँसते झेला । मुसीबतों के थपेड़े उन्हें अपने स्थान से डिगा न सके और अंत में वे सफल हुए । निर्भय, निःसंकोच तथा ग्लानि रहित होकर कार्य में लगे रहना चाहिए । घबराना नहीं चाहिए, तभी हम कठिनाइयों पर विजय पायेंगे । विघ्नों का आना तो आवश्यक है । उनका साहस से मुकाबला करते हुए अपने मनोबल को ऊंचा रखना चाहिए जिससे एक वीर का जीवन जी सकें ।


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