ब्रह्मांड के कण -कण में है अनाहत-नाद

June 1994

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ध्वनि शक्ति के रूप में शब्द शक्ति को तेसर से भी अधिक सामर्थ्यवान एवं शक्तिपुंज माना गया है । इसी आधार पर विज्ञान ने खगोल जगत में ब्रह्मांडीय आदान-प्रदान की संभावना अभिव्यक्त की है, जबकि सूक्ष्म जगत में चलने वाले घटना क्रमों की पूर्व जानकारी को अध्यात्म ने संभव बनाया है ।

अध्यात्मवेत्ताओं ने वाणी के चार रूपों का वर्णन किया है-परा, पश्यंति, मध्यमा और वैखरी । वैखरी वाणी स्थूल है जो मुंह से जिह्वा द्वारा शब्दोच्चारण के रूप में बोली जाती है । जीभ की वाणी को कान सुनते हैं । परिष्कृत मन की वाणी ‘मध्यमा’ कहलाती है । मन मध्यमा वाणी में बोलता है और इसे नेत्र सुनते हैं । हृदय की वाणी ‘पश्यंति’ कहलाती है । हृदय की वाणी हृदय ही सुनता है । आत्मा की वाणी ‘परावाणी’ कहलाती है। आत्मा के अंतरंग क्षेत्र से जो अनहद ध्वनि उत्पन्न होती है, उस संदेश को दूसरी आत्मायें सुनती हैं । यह संतों की, ऋषियों की, सिद्ध महापुरुषों की, देवताओं की वाणी है, जो सीधे मनुष्य के अंतःकरण में प्रविष्ट हो जाती है । यह सब ध्वनियों के ही प्रकार है जो सूक्ष्म से सूक्ष्मतम होती गयी हैं ।

स्थूल वाणी के रूप में प्रयुक्त वैखरी को छोड़ कर यदि हम शेष तीन सूक्ष्म वाणियों पर गंभीरतापूर्वक विचार करें, तो पायेंगे कि इन्द्रियातीत अनाहत, शब्द ब्रह्म-नादब्रह्म के रूप में शब्द शक्ति को महिमा को शास्त्रकारों ने बड़ी गंभीरता से प्रस्तुत किया है । अब जबकि विज्ञान ने पराध्वनि के रूप में अश्रव्य ध्वनियों को ढूँढ़ निकाला है, तो ऋषियों को वह प्रतिपादन सत्य प्रतीत होने लगा है जिसमें कहा गया हे कि इस सृष्टि की उत्पत्ति ही ‘शब्द शक्ति ‘ से हुई है । विज्ञान ने भी अब इस तथ्य को स्वीकार लिया है कि हम ध्वनि तरंगों के लहराते अनंत सागर में रह रहे हैं । हम जो कुछ भी बोलते हैं उसका विनाश नहीं होता, वरन् वह सूक्ष्म ध्वनि तरंग के रूप में हमारे चारों ओर उमड़ते घूमड़ते रहते हैं और अनंत काल तक अस्तित्व में बने रहते हैं । इस संसार में शब्द के रूप में अब तक जितने विचार प्रकट किये गये हैं, वह सभी सूक्ष्म तरंगों के रूप में अब भी अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं । गंभीर चिंतन की स्थिति में यदा-कदा यही सूक्ष्म तरंगें हमारे मस्तिष्क की पकड़ में आकर अकस्मात् नये विचार दे जाती हैं । पर इसके लिए मस्तिष्कीय तरंगों की फ्रीक्वेंसी ब्रह्मांडव्यापी सूक्ष्म तरंगों से ट्यूण्ड होनी चाहिए । मूर्द्धन्य मनीषी लायल वाटसन ने इस संदर्भ में उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अपनी प्रसिद्ध कृति ‘सुपरनेवर’ में कहा है कि गहन चिंतन की स्थिति और कठिन गणितीय प्रश्नों के हल के समय में भी आइन्स्टीन के मस्तिष्क से सदा ‘अल्फा तरंगें’ ही निकला करती थीं और ऐसे समय अचानक ही उनके मस्तिष्क में प्रश्नों के हल कौंध जाया करते थे । सापेक्षवाद का प्रसिद्ध सिद्धान्त भी ऐसे ही एक अवसर की देन बताया जाता है ।

ज्ञातव्य है कि अलग-अलग स्थितियों में मानवी मस्तिष्क से अल्फा, बीटा, थीटा, डेल्टा नामक विभिन्न प्रकार की मस्तिष्कीय तरंगें-(ब्रेन-वेव्स) निकलती हैं । ध्यान की गहनतम अवस्था में प्रायः अल्फा तरंगें ही निस्सृत होती हैं । ऐसी स्थिति में सूक्ष्म संसार से साधक जब अपना संपर्क सूत्र स्थापित कर विभिन्न प्रकार की जानकारियाँ हस्तगत करता है तब भी मस्तिष्कीय तरंगें अल्फा ही होती हैं । ऋषियों ने ध्यान की ऐसी ही गहन स्थिति में वेदों को उपलब्ध किया था, इसलिए उन्हें ‘श्रुति’ भी कहा गया है । ‘श्रुति’ अर्थात् सुना हुआ । शब्द शक्ति की यह अत्यंत सूक्ष्म तरंगें होती हैं जो स्थूल कर्णेन्द्रियों की पकड़ से परे हैं । तंत्र और मंत्र शास्त्र में इसी शक्ति का उपयोग कर अनेकानेक विलक्षण कार्य संपन्न किये जाते हैं । मंत्रों के माध्यम से विषैले जीवों के जहर को निर्विष किया जाता है, जबकि तंत्र-शास्त्र में और भी अद्भुत कार्य संपन्न किये जाते हैं ।प्राचीन काल में जिन दिव्य अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग होता था, उनमें शब्द-शक्ति की ऊर्जा से चालित उपकरणों के प्रयोगों का उल्लेख मिलता है जिससे ज्ञात होता है कि यह कितनी सूक्ष्म और सामर्थ्यवान शक्ति है । इस सूक्ष्म शक्ति से निकटस्थ अथवा दूरस्थ किसी भी व्यक्ति को प्रभावित किया जा सकता है ।

आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधानों ने भी अब इस तथ्य को प्रमाणित कर दिखाया है कि सूक्ष्म ध्वनि तरंगों को पृथ्वी अथवा अंतरिक्ष के किसी भी हिस्से तक अपने मूल रूप में प्रसारित-संचारित किया जा सकता है । रेडियो स्टेशनों से प्रसारणों को जब ‘सुपरइम्पोजिशन आफ साउण्ड वेव’ के सिद्धाँत पर तीव्र बना दिया जाता है, तो क्षण मात्र में वे तरंगें समस्त भू मण्डल में फैल जाती हैं । अंतरिक्ष में गतिमान भू-उपग्रहों की गतिविधियों की जानकारी पृथ्वी स्थित प्रेक्षक इसी आधार पर लेते और चालक दल से बातचीत करते हैं । इसी आधार पर अंतर्ग्रही सभ्यताओं-लोकोत्तर-वासियों की ढूँढ़ खोज चल रही है और उनके संकेतों को ग्रहण करने और उनके लिए संकेत प्रेषित करने के प्रयत्न किये जा रहे हैं । सन् 1380 में कलिकोवो युद्ध के समय रूस के युवराज दमित्री दान्स्काय ने शत्रुओं की टोह ऐसी ही सूक्ष्म तरंगों के माध्यम से ली थी ।

मनुष्य की कर्णेन्द्रियाँ 20 से लेकर 20000 हर्टज् आवृत्ति वाली ध्वनि तरंगों को सुन सकती हैं । इससे ऊपर अथवा कम आवृत्ति वाली अश्रव्य ध्वनियों को “पराध्वनि” कहते हैं । सुप्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी बी. कुद्रयावत्सेव का कहना है कि अब जब कि पराध्वनियों के रिसीवर बना लिये गये और उनसे श्रव्य ध्वनियों को सुना तो यह ज्ञात हुआ कि श्रव्य ध्वनियों के साथ-साथ आवाज में अश्रव्य ध्वनियाँ भी मिली होती हैं । मंत्रों में अश्रव्य ध्वनियों के समावेश से उनमें विभिन्न प्रकार के प्रभाव परिणाम उत्पन्न करने की सामर्थ्य होती है । पराध्वनियाँ दो प्रकार की होती हैं-(1) निम्न आवृत्ति वाली-’इन्फ्रासोनिक’ एवं (2) उच्च आवृत्तियों वाली-’अल्ट्रासोनिक’ । कम आवृत्ति की होने के कारण इन्फ्रासोनिक ध्वनियाँ सभी दिशाओं में गति कर सकती हैं, साथ ही कम शक्ति की होने के कारण वे मनुष्य एवं अन्य प्राणियों तथा वनस्पतियों के लिए लाभदायक भी हो सकती हैं । इस संबंध में फ्राँस के मूर्द्धन्य वैज्ञानिक वाल्दीमीर गैब्रियू ने अपने लंबे अध्ययन-अनुसंधान के पश्चात् बताया है कि 7 हर्ट्ज आवृत्ति वाली इन्फ्रासोनिक ध्वनि के संपर्क क्षेत्र में जब व्यक्तियों को नियमित रूप से कई दिनों तक कुछ समय के लिए बिठाया गया, तो पाया गया कि उनकी मानसिक क्षमता में असाधारण रूप से परिवर्तन दृष्टिगोचर हुआ । सभी के मस्तिष्क ‘अल्फा’ एवं ‘बीटा’ स्टेट में पाये गये जो ध्यान की उच्च अवस्थाओं में ही संभव हो पाया है ।

वस्तुतः हमसे कितनी ही ध्वनि तरंगें हर समय टकराती रहती हैं, पर इनमें से उन्हें ही हम सुन पाते हैं जो श्रवण सीमा के अंतर्गत आती हैं । श्रवणातीत अत्यंत सूक्ष्म अल्ट्रासोनिक ध्वनियाँ 10 लाख से एक हजार करोड़ तक की कंपन उत्पन्न करती हैं । परंतु इस विश्व ब्रह्मांड में संव्याप्त अनाहत नाद से इससे भी सूक्ष्म स्तर का होता है । अल्ट्रासोनिक ध्वनियों का संप्रेषण और ग्रहण तो ‘राडार’ जैसे यंत्र-उपकरणों के माध्यम से संभव है, पर सूक्ष्म नाद को जानने-समझने के लिए स्थूल इन्द्रियों का योग और तप द्वारा सूक्ष्मीकरण करना ही एक मात्र साधन है । अब विज्ञान ने पराध्वनियों को समझने के लिए कुछ विशेष प्रकार की ध्वनियाँ भी विकसित कर ली हैं । इन युक्तियों के प्रयोग से अब यह ज्ञात कर पाना संभव है कि पराध्वनि किस मार्ग से गुजर रही हैं । इस युक्ति से उनका फोटो लिया जाना भी रुक्त हुआ है ।

गर्मी के दिनों में जमीन के संपर्क में रहने वाली हवा प्रायः ऊपर उठती दिखाई पड़ती है । इन ऊर्ध्वारोहण करती धाराओं के दीखने का कारण यह है कि वायु गर्म होने के पर फैलती है, उसका घनत्व कम हो जाता है और उसके प्रकाशीय गुण जैसे अपवर्तन गुणाँक बदल जाते हैं । ऐसे ही संपीड़ित वायु की उन धाराओं को भी देखा जा सकता है जिनका घनत्व आस-पास की वायु के घनत्व से अधिक हो । इसी तरह जब पराध्वनि तरंगों का संचरण होता है, तब वायु में संपीड़न विरलन एकान्तर क्रम से पैदा हो जाते हैं । वायु के ये परिवर्तन गर्मी के कारण होने वाली परिवर्तन के सदृश्य ही होते हैं । इस प्रकार ध्वनि तरंगों की छायाकृति भी उसी प्रकार प्राप्त की जा सकती है जिस प्रकार विभिन्न तापमान वाली जलधाराओं का प्रतिबिंब । पर्दे की जगह फोटोप्लेट रखकर पराध्वनि तरंगों का चित्र लिया जा सकता है । परंतु नाद योग की सूक्ष्मातिसूक्ष्म तरंगों को देखने-सुनने की सामर्थ्य अभी विज्ञान को नहीं मिल पायी है । इसे तो योग साधना द्वारा ही जाना समझा जा सकता है ।

अध्यात्म में नादयोग के रूप में पराध्वनियों का उपयोग आत्मिक विकास के लिए प्रयुक्त करने की व्यवस्था है, पर विज्ञान ने इनका उपयोग विभिन्न प्रकार के रोगोपचार और सुरक्षा उपाय जैसे अन्यान्य क्षेत्रों में कर लोगों की साधना सुविधाओं में अभिवृद्धि की है । इन तरंगों का वैज्ञानिकों ने उपयोग कर अब एक ऐसी सुरक्षा घंटी विकसित की है कि यदि इन तरंगों को रात के वक्त घर में फैला दिया जाय तो चोर अथवा अन्य किसी भी प्रकार की हलचल इनकी तीक्ष्ण आँखों की पकड़ से बच नहीं सकती और तुरंत घंटी बजा कर इस की सूचना मालिक को दे देती हैं । इसी तरह शल्यचिकित्सा, कीटाणु-नाश, ऋतु परिवर्तन, मोटे धातु खंडों का विलगन आदि क्षेत्रों में इसे विद्युत एवं अणु शक्ति के रूप में प्रयुक्त किया जा रहा है । इन कार्यों को देखते हुए इसकी विलक्षण सामर्थ्य का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है ।

दक्षिण गर्मी साधनाओं में शब्द शक्ति का उपयोग जहाँ आत्मोत्थान एवं जनकल्याण के लिए किया जाता है, वहीं वाममार्गी साधनाओं में इस पराशक्ति का दुरुपयोग प्रायः दूसरों को क्षति पहुँचाने में भी होता रहा है । विज्ञान-वेत्तओं ने भी ध्वनि तरंगों में सन्निहित इन क्षमताओं को अब ढूँढ़ निकाला है और पाया है कि मनुष्यों सहित प्राणियों एवं जड़ इमारतों पर इनका प्रभाव बुरा होता है । पिछले दिनों चैकोस्लोवाकिया के एक इंजीनियर प्रो. गावराड ने पराध्वनि उत्पादक एक ऐसा यंत्र विकसित किया जो प्रयोग के दौरान अपनी शक्ति शाली तरंगों के कारण प्राणघातक सिद्ध हुआ । जब उसकी तरंगें एक बैल पर डाली गयीं तो वह तड़प कर तुरंत वहीं मर गया । मृत्यु का करण जानने के लिए जब उसकी चीर-फाड़ की गयी तो देखा गया कि आँतरिक अवयव बिलकुल विकृत हो गये थे । डाक्टरों का कहना था कि ध्वनि तरंगों की मार इतनी तीव्र थी कि अंग अवयव अर्धतरल की स्थिति में आ गये और यही उसकी मृत्यु का करण बना । इसी तरह के प्रयोग-परीक्षण, मछलियों, मेढ़कों एवं कीड़े-मकोड़ों पर किये और पाया गया कि इन सभी पर पराध्वनियाँ प्राण घातक प्रभाव छोड़ती हैं । यह भी देखा गया है कि इन तरंगों का प्रभाव सदा बुरा ही नहीं होता । फूल मटर के बीजों पर जब पराध्वनियाँ डाली जाती हैं तो उनमें तेजी से अंकुर फूटने लगते हैं ।

आर्ष वाङ्मय में ओंकार शब्द का महत्वपूर्ण स्थान है । सृष्टि की उत्पत्ति इसी से हुई बतायी गयी है । इसके तीन अक्षर अ, उ, म समस्त ब्रह्मांड का बोध कराते हैं । यह सत्, रज, तम रूपी तीन गुणों,वर्तमान, भूत और भविष्य रूपी तीनों कालों तथा ब्रह्मा, विष्णु, महेश की तीन सर्वोपरि शक्तियों के परिचायक हैं । समूचे विश्व-ब्रह्मांड के कण-कण का मूल यही अनाहत स्वर है । नाद-ब्रह्म के साधक इसी पराध्वनि की साधना करते और समाधि स्थिति तक जा पहुँचते हैं।


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