ऊंट चले जा रहे थे उस अंधड़ के बीच में । ऊपर से सूर्य आग बरसा रहा था । नीचे की रेत में शायद चने भी भुन जायं ।अंधड़ ने कहर बरसा रहा था । एक-एक आदमी के सिर और कपड़ों पर सेरों रेत जम गयी थी। कहीं पानी का नाम भी नहीं था और न कहीं किसी खजूर का कोई ऊंचा सिर दिखाई पड़ रहा था । जमाल को यह सब नहीं सूझ रहा था । उसके भीतर इससे भी ज्यादा गर्मी थी । इससे कहीं अधिक भयानक अंधड़ चल रहा था उसके हृदय में । वह उसी में झुलसा जा रहा था कि उसका ऊंट कहाँ जा रहा है । वैसे काफिले के दूसरे ऊंटों के साथ उसका ऊंट भी ठीक मार्ग पर चल रहा था । मार्ग की कल्पना ही थी, रेत के साठ से सौ, दो सौ फीट ॐ चें टीलों के मध्य में कोई मार्ग नहीं था ।
ऊँटों की छाया छोटी से लंबी होने लगी । सूर्य पश्चिम में लुढ़कने लगा । अंधड़ घट रहा था । धीरे-धीरे शाम हुई । उस धूल भरे आकाश में डूबते सूर्य ने आग लगा दी । जैसे अपने चारों ओर इस आग को देखकर ही सरदार ने काफिले को एक चौरस ऊंचे स्थान पर रोकने का आदेश दिया ।
‘अरे जमाल, तुम क्या उतरोगे नहीं ? ‘ किसी ने उसके ऊँट की नकेल पकड़ ली । दूसरे ऊँटों के साथ वह भी खड़ा हो गया और सोचता होगा कि उसका सवार क्यों उसे छुटकारा नहीं दे रहा है । वह जैसे जाग पड़ा हो । उतर आया ऊँट से । एक ओर उसी जलती रेत में लुढ़क गया ।
आज पाँच दिन हो गये काफिले को चले । नखलिस्तान में सूखते ही डेरा-डंडा उठ गया था और अभी तक दूसरे नखलिस्तान का पता तक नहीं था । हम रास्ता तो नहीं भूल गये हैं ? इतना भयंकर था यह प्रश्न कि कोई मुख पर इसे लाने तक की हिम्मत नहीं कर सकता था । फिर भी सबके नेत्रों में यही प्रश्न था । “या अल्लाह ऐसा न हो ।” सब के हृदय एक स्वर से चिल्ला रहे थे । एक-एक बूँद पानी के लिए तड़प-तड़प कर मरना और अपने चाकू या दांतों से अपनी ही नसों को काटकर रक्त पीना । क्या अर्थ है इसके अतिरिक्त मार्ग भूल जाने का ।
दिन भर से एक बूँद जल कंठ के नीचे नहीं गया था । केवल शिशुओं को घंटे दो घंटे चिल्लाने पर एक चम्मच पानी मिलता था । कंठ सूख गए थे । सिर घूम रहा था और लगता था कि कलेजा निकल आवेगा । आँखों के आगे अंधकार छा रहा था और जलते हुए नेत्र बाहर निकल पड़ते थे ।
मशकों का पानी परसों खत्म हो गया । किसी के भी चमड़े के थैले में एक बूँद पानी न रहा था । छोटे बच्चों के लिए रखा पानी भी तीसरे प्रहर पूरा हो गया । कल एक ऊंट हलाल हो चुका है । इस प्रकार ये पन्द्रह-बीस ऊँट कितने दिन चलेंगे ।
आज कौन अपना ऊंट देगा काफिले के लिए ? सरदार ने पूछा । वाणी उसकी भी अटक रही थी । जीभ सूख गयी थी ।
“बारी तो हमीद की है ।” कहने वाले ने हमीद की ओर इस तरह देखा जैसे खा जाएगा ।
“वह तो है ही ।” सरदार ने विपश्चित् उत्तर दिया-पर एक से क्या होता है ? सब बहुत प्यासे हैं और कल दिन के लिए बच्चों को भी पानी रखना होगा ।
“मेरा ऊंट ले लो ।” बड़े आश्चर्य आदर एवं चौंककर लोगों ने जमाल को देखा । भला अपना जीवन इतनी उदारता से कौन दूसरों को दे सकता है । इस भयंकर रेगिस्तान में ऊंट ही तो जीवन है ।
“खुदा ने चाहा तो कल हम नखलिस्तान पहुँच जायेंगे ।” कृतज्ञता पूर्वक सरदार ने कहा-” तुम मेरे ऊंट पर मेरे साथ चलो और वहाँ पहुँचते ही हम तुम्हारे लिए ऊंट का वह बच्चा देंगे जो काफिले में पहले उन्नत होगा। सरदार की ऊंटनी ही दो-चार दिन में बच्चे देने वाली है ।” काफिले वालों को यह पता था ही और इस समय तो पानी का सवाल था । सस्ते महँगे सौदे का समय नहीं रहा था ।
“मुझे कोई बदला नहीं चाहिए ।” जमाल ज्यों का त्यों पड़ा था-”अगर यकीन न हो कि अगले नखलिस्तान में हजरत इमाम से मिल सकूँगा और वह मुझे खुदा से माफी दिला देंगे तो में इस रेत से उठना भी पसंद नहीं करूंगा ।”
कृतज्ञता प्रकाश के लिए समय नहीं था । हमीद का ऊंट भी ले लिया गया और इसमें उससे पूछने की कोई बात नहीं थी । वह तो नखलिस्तान से चलते वक्त तय हुए क्रम में आता था । हमीद मन मसोस कर रह गया । रस्सी से जकड़ कर दोनों ऊंट गिरा दिये गये । निरीह पशु बलबला कर ही रह गये । तेज छुरा उनके पेट में घुसा दिया गया । जरूर ही ऐसा करते समय मौलवी ने कलमा पढ़ने की तकलीफ की ।
ऊपर की खाल उतार कर दाहिनी कोख में से पानी की अंतड़ी सावधानी पूर्वक बाहर निकाली गयी । यह आँत भारतीय ऊंटों में नहीं होती । रेगिस्तानी ऊंट को जब पानी नहीं मिलता तो इस आँत से पानी निकाल लेता है और इस प्रकार सात दिन तक वह अपनी पानी की आवश्यकता पूरी कर सकता है । दोनों ऊंटों की आँतो में छोटे छिद्र करके सब पानी मशकों में भर लिया गया ।
“पहिले जमाल को ।” सरदार ने डांटा । लोग अपने-अपने चमड़े के थैले लेकर टूट पड़े थे और कोई किसी से पीछे लेने के लिए नहीं तैयार था । वैसे सबको बराबर पानी बटेगा, यह सब जानते थे । जमाल रेत पर पड़ा था और पानी में भाग बँटाने की उसने कोई चेष्टा नहीं की थी । अंततः एक अरब युवक उसके पास गया और उसका थैला पानी से भर कर उसके पास रख गया ।
“कल तक” बस कल शाम तक ही जमाल बड़बड़ा रहा था- ”मेरे परवरदिगार ! अगर कल शाम तक कोई रास्ता न मिला मुझे तुझसे माफी पाने का तो मैं तेरे दिये पानी और कबाब को नहीं कबूल करूंगा । कल न सही परसों का आफताब मुझे जरूर जला देगा और तब मैं खुद तेरे कदमों में अपने कसूर की माफी माँगने हाजिर हो सकूँगा ।” कुल तीन-चार घूँट पानी उसने गले से नीचे उतारा ।
लंबा छरहरा बदन, बड़ी-बड़ी आँखें, कश्मीरी सेब जैसा रंग । वह जितना सुन्दर था, उतना ही चंचल भी । सफेद तर्रेदार पगड़ी में अपने घुँघराले बाल छिपाए ढीला पजामा और चोगा पहने दोपहरी में भी कैम्प में इधर से उधर उछलता रहता था । उसके उन्मुक्त हास्य से तंबू गूँजता ही रहता था ।
उसका बाप पिछले साल मरा है और माँ उसे बचपन में ही छोड़ गयी थी । अरब का लड़का रोता नहीं । नटखट जमाल कभी मनहूस सूरत में नहीं देखा गया । वह जैसे बचपन में किसी सोते हुए की नाक या खुले मुख में रेत की मुट्ठी डाल दिया करता था, वैसे ही अब भी बुड्ढों की लंबी दाढ़ियों में अवसर पाकर खजूर के बीज फँसाने से नहीं चूकता ।
बहुधा डाँटा जाता था । बूढ़े बिगड़ पड़ते थे उस पर, जब वह उनकी कोई वस्तु छिपा देता था । बड़े साफ दिल का था । सभी मन में उसकी इज्जत करते थे ।बड़ा भावुक मन था उसका । रोजा उसने कभी नहीं छोड़ा और सुबह , शाम तथा दोपहर की तीन नमाज तो बराबर पढ़ ही लेता है । अपने तंबू में वही अकेला है जो नमाज पढ़ते वक्त अक्सर रो पड़ता है पता नहीं उस हँसी के पुतले में उस वक्त कहाँ से दुख उमड़ पड़ता था । यों वह मजाक करने में खुदा को भी नहीं छोड़ता । अक्सर कहता है-”मुझे अगर खुदा मिल जाय तो उसकी खूब घनी, उजली, लंबी दाढ़ी में ढेर से खजूर के बीज उलझा दूँ । इतने बीज कि फरिश्ते दिन भर में भी न निकाल सकें ।”
जमाल को अधिक आकर्षित किया है बूढ़े अहमद ने । वह हाथ में छोटी सी खजूर के पत्ते की लकड़ी बनाकर कमर झुकाकर काँपता, मुँह चलाता और जल्दी से दोपहरी में तंबू में अहमद की नकल करता है तो कहकहों की बाढ़ आ जाती है । बुड्ढा गालियों की बौछार करके अभिनय को और भी रसमय बना देता है ।
“आज पानी से चलो कुछ मोटे-मोटे मेंढक पकड़ लायें ।” उसने प्रस्ताव किया गुलनार से । यह उससे भी नटखट लड़की है । जमाल की शरारतों, स्वाँगों और उछल-कूद में वह अक्सर शामिल हो जाया करती है । खूब मोटे-मोटे-पीले-पीले ।
“तू मेढ़क खाने लगा है, ऐं”! मुँह बिचकाया उस शैतान लड़की ने । मैं अभी जाकर अब्बा से कहती हूँ । सब कह दूँगी अरब होकर तू मेढ़क खाने लगा है । छिः ताली बजाकर वह हँसते-हँसते दुहरी हो गयी । लोट-पोट हो गयी । उसी प्रकार हँसते-हँसते भागने का उपक्रम किया उसने ।
“सुन भी तो ।” जमाल ने इधर-उधर देखा । कोई पास नहीं था । उसके षड्यंत्र का पता किसी को न चले, इसलिए धीरे-धीरे कान में कुछ फुस-फुसा गया उस लड़की के ।
“बहुत खूब खिलखिला उठी, वह कूद पड़ी । बुड्ढा भी क्या समझेगा “।
“चुप भी रह ।” शायद वह उत्साहातिरेक में भंडा-फोड़ कर देती । सावधान किया जमाल ने और दोनों नखलिस्तान की ओर चले गये ।
बुड्ढ़े को क्या पता था कि उसके साथ क्या शरारत की गयी है । वह अपनी पांचवीं नमाज पढ़ने आया । नमाज पर जा खड़ा हुआ । उसका मुसल्ला दिन भर बिछा रहता है और वही एक है जो पाँचों नमाज बदस्तूर पढ़ता है ।
जमाल थोड़ी दूर पर बैठा गम्भीर बना था और उसके पास ही गुलनार पीछे को मुख किये, मुख में कपड़ा डाले, इस प्रकार हिल रही मानों भूकंप आ गया है उसके पेट में । बुड्ढ़े का ध्यान इन शैतान दोनों की ओर नहीं था । दूसरे अपने-अपने बिस्तरों पर लेटे थे और कुछ लोग एकत्र होकर गप्पें लड़ा रहे थे ।
बुड्ढा घुटनों के बल बैठा । गुलनार और जोर से हिलने लगी-”तुझे जुड़ी तो नहीं आ गयी ?” जमाल ने चुटकी ली । वह तनिक हटकर बिना बोले हिती रही ।
बुड्ढ़े ने मत्था टेका और कूद पड़ा वहाँ से इस तरफ जैसे किसी साँप पर सिर पड़ गया हो । उसने गौर किया था पहले कि सिर रखने की जगह जाय-नमाज कुछ ऊंची उठी है -”या अल्लाह !” वह चीख पड़ा और हाँफ रहा था । कोई जानवर नीचे से जाये-नमाज को हिलाने लगा था ।
सब चौंक कर दौड़ आये । लड़के पेट पकड़कर लोट-पोट हो रहे थे । मुसल्ले का कपड़ा हटाते ही सब के सब हँसने लगे ।पाँच मेढ़क खूब मोटे, पीले, रेत में गढ्ढा करके एक लाइन से विराज रहे थे । उनके पैर आपस में बँधे थे और इसलिए कूदने की कोशिश-करके भी वह कूद नहीं पा रहे थे ।
“नमाज के वक्त ही मजाक !” बुड्ढा गुस्से से चीख रहा था और काँप भी रहा था -”खुदा का भी कसूर करने से नहीं डरते तुम ?”
“खुदा का कसूर !” जैसे कलेजे में लगे ये शब्द । हँसी काफूर हो गयी । चेहरा स्याह पड़ गया । धक से हो गया जमाल उसने फिर नहीं देखा कि लोग हँस रहे हैं । गुलनार लोट-पोट हो रही है और बुड्ढा अहमद एक स्वर में गालियाँ बके जा रहा है, दोनों हाथ से सिर पकड़ लिया उसने ।
चहचहाता कैम्प मनहूसी का डेरा हो गया था । नखलिस्तान तो क्या सूखा, सबको एक आफत से छुटकारा मिला । दूसरी जगह जमाल की तबियत में फर्क आने की उम्मीद ने किसी को रास्ते की दिक्कते सोचने नहीं दी। जो दिन भर सबको हँसाता रहता था, उसका अचानक अपने आप में घुलते रहना और उसी से लेना सबको तकलीफ देह था । उसकी उदासी ने तो शैतान की खाला गुलनार जैसी लड़की को भी गुमसुम बना दिया था ।
किसी का समझाना मनाना काम नहीं आया । बुड्ढ़े अहमद ने आँखों में आँसू भर कर उसे पुचकारा । उसका एक उत्तर है-”खुदा के कसूर को तो खुदा ही माफ कर सकता है ।” गुलनार के स्नेह भरे हाथ को उदासी से उसने हटा दिया और उसका खेलने, घूमने, टहलने का भाव भरा आग्रह भी उपेक्षित हो गया ।
मार्ग की तकलीफें भूल गयीं सबको जब उन्हें एक खूब बड़ा, ऊंचे-ऊँचे खजूर के फलों से लदे पेड़ों से घिरा दूर तक घास के मैदान से हरा-भरा नखलिस्तान मिला । सबसे बड़ी बात तो यह थी कि वहाँ उन्हें किसी फिरके से लड़ना नहीं पड़ा था । वैसे अपने भालों को उठाए, मरने मारने को तैयार होकर ही उन्होंने नखलिस्तान की भूमि में प्रवेश किया था । लड़ाई का न होना ही एक आश्चर्य का विषय था ।कुल एक छोटा तंबू था नखलिस्तान में । पागल सा फकीर उसमें रहता था । बुड्ढ़े ने कोई ऐतराज नहीं किया और उस बुड्ढ़े को जिसे सारा अरब श्रद्धा से सिर झुकाता है जिसे और कोई नहीं मात्र जमाल ही जानता था । खदेड़ने की आवश्यकता नहीं जान पड़ी । साहस भी नहीं था किसी में क्योंकि वे हजरत इमाम थे, पहुँचे हुए पैगम्बर-फकीर ।
तंबू खड़े हो गये एक गोलाई में । बीच में दोपहरी में आराम करने के लिए एक बड़ा तंबू लगा । सब दोपहरी में इसी में रहते । ऊंट चरने छोड़ दिये गये । भर पेट पानी पिया सबने और खूब खजूर खाये । मशकें और घड़े भरकर रख दिये गये ।
“जमाल ने अब तक न तो पानी पिया और न कुछ खाया ही है ।” सबसे पहले गुलनार को उसकी याद आयी। अभी तक सभी अपने खाने-पीने और तंबू लगाने में तथा सामान रखने में लगे थे-”वह चुपचाप रेत पर पड़ा है ।” सरदार की प्यारी लड़की ने अपने अब्बा का ध्यान आकर्षित किया और कुछ खजूर और चमड़े के थैले में पानी लेकर दौड़ गयी ।
थोड़े खजूर खा लो और पानी पी लो !” प्रायः सारा काफिला उसे घेर कर खड़ा हो गया था । सभी का एक ही हठ था । अँधेरा बढ़ता जा रहा है । हम लोग तुम्हारा तंबू खड़ा कर देते हैं और सामान भी ठीक कर देते हैं। इस तरह तो तुम दो दिन भी नहीं जी सकते ।
“मैं मर जाऊँ तो मुझे यहीं दफना देना ।”वह न तो रो रहा था और न गुस्से में ही जान पड़ता था । बड़ी नम्र वाणी थी उसकी “मेरे लिए पाक परवरदिगार से दुआ करना कि वह मुझे माफ कर दे ।” किसी की समझ में नहीं आता था कि इस जिद्दी लड़के को कैसे समझाया जाये ।
“कोई बुला लाओ हजरत इमाम को ।” रोते-रोते गुलनार ने अपनी आंखें सुर्ख कर लीं, मैं खुद जाती हूँ । ये उनकी बात जरूर मान लेंगे ।”
“वह तो पागल है ।” सरदार ने स्नेह से अपनी लड़की का हाथ पकड़ा, तुझे मार न बैठे । वह किसी की बात न तो सुनता है और न समझता है । सबने आते ही उस बुड्ढ़े को रंग-ढंग से खतरनाक पागल समझ लिया था। उनकी समझ में नहीं आता था कि क्यों सारे अरब में वह पहुँचा हुआ फकीर माना जाता है ।
“माफ किया मैंने तुझे !” पता नहीं कहाँ से वह पागल खुद ही दौड़ता हुआ भीड़ में घुस आया । जमाल के सिर पर हाथ रखकर उसने प्यार से कहा-”मेरे भोले बच्चे ! मैंने तुझे माफ कर दिया ।”
“माफ कर दिया ?” जमाल जैसे जी उठा । हृदय से एक भार उतर गया । फकीर के पैर चूमे, इससे पहले ही वह फकीर जैसे आया था, वैसे ही भीड़ हटाता भाग गया ।
“तू तो सीधे खुदा से माफी माँग रहा था न ?” गुलनार ने जब जमाल को हँसाकर पानी पिला लिया, खजूर खिला चुकी तब छेड़ा, हँस रही थी वह ।
“मुझे खुदा ने ही माफ किया है ।” जमाल गम्भीर बन गया-”हजरत इमाम पहुँचे हुए फकीर हैं और खुदा में और उसके बन्दों में फर्क दूर हो चुका होता है ।”