परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी - युग संधि की वेला व हमारे दायित्व

June 1994

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जून माह की इस पत्रिका में गायत्री जयंती के पुण्य पर्व पर प्रस्तुत है, परम पूज्य गुरुदेव का एक उद्बोधन जो हमें बदलते हुए इस विषम समय में झकझोरता है कुछ सोचने व कर गुजरने के लिए आगे बढ़ने को । क्षुद्रता को छोड़कर महानता के पथ को अपनाने को। 1980 की वसंत की पूर्व वेला में शाँतिकुँज परिसर में यह उद्बोधन यहाँ चल रहे सत्रों के दैनिक उद्बोधनों की शृंखला की एक कड़ी मात्र है। किंतु इसका एक-एक शब्द ऐसा है जो आज चौदह वर्षों बाद भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना कि यह उन दिनों था, विशेषकर इसलिए भी कि हम युग परिवर्तन की उस महा लीला के क्षण के अति निकट आ पहुँचे हैं। पढ़ें, आत्मचिंतन व कुछ गहन मनन करें-अमृतवाणी का।

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ-ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्

मित्रो, हममें से प्रत्येक परिजन को कुछ मान्यतायें अपने मन में गहराई तक उतार लेनी चाहिए। एक यह कि जिस समय में हम और आप जीवित रह रहे हैं, वह एक विशेष समय है। यह युग परिवर्तन की बेला है, इसमें युग बदल रहा है। जिस तरह प्रातःकाल का समय विशेष महत्वपूर्ण समय होता है। इसमें हर आदमी सामान्य काम न करके विशेष काम करता है अध्ययन से लेकर भजन तक के उच्चस्तरीय कार्य इसमें किये जाते हैं, क्योंकि प्रातःकालीन समय अत्यधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। यह समय भी इसी तरह का है। यह संध्याकाल है, इसमें युग बदल रहा है। इस विशेष संध्याकाल को हमें विशेष कर्तव्यों के लिए सुरक्षित रखना चाहिए। हममें से प्रत्येक साधक को यह मानकर चलना चाहिए कि हमारा व्यक्तित्व विशेष है। हमको भगवान ने किसी विशेष काम के लिए भेजा है। कीड़े-मकोड़े और दूसरे सामान्य तरह के प्राणी पेट भरने के लिए और औलाद पैदा करने के लिए पैदा होते हैं। मनुष्यों में से भी बहुत नर-पामर और नर-कीटक हैं जिनके जीवन का कोई लेखा-जोखा नहीं। पेट भरने और औलाद पैदा करने के अलावा दूसरा कोई काम वे न कर सके। लेकिन कुछ विशेष व्यक्तियों के ऊपर भगवान विश्वास करते हैं और यह मानकर भेजते हैं कि हमारे भी कुछ काम आ सकते हैं, केवल अपने ही गोरख धंधे में नहीं फँसे रहेंगे। युग निर्माण परिवार के हर व्यक्ति को अपने बारे में ऐसी ही मान्यता बनानी चाहिए कि हमको भगवान ने विशेष काम के लिए भेजा है। यह कोई विशेष समय है और हममें से हर आदमी को यह अनुभव करना चाहिए कि हम कोई विशेष उत्तरदायित्व लेकर आये हैं। समय को बदलने का उत्तरदायित्व-युग को आवश्यकताओं को पूरा करने का उत्तरदायित्व हमारे कंधों पर है। अगर इन तीनों बातों पर आप विश्वास करे सकें तो आपकी प्रगति का दौर खुल सकता है और आप महामानवों के रास्ते पर, जो कि अपने इस युग निर्माण परिवार का उद्देश्य है, आप सफलता पूर्वक चल सकते हैं।

यह विशेष समय वैसा नहीं है जैसा कि शाँति के समय का होता है। यह आपत्तिकाल जैसा समय है और आपत्तिकाल में आपातकालीन उत्तरदायित्व होते हैं। हमारे ऊपर सामान्य जिम्मेदारियाँ नहीं हैं, वरन् युग की भी जिम्मेदारियाँ हैं-यह मानकर हमको चलना चाहिए और साथ ही यह भी मानकर चलना चाहिए कि रीछ-वानर जिस तरीके से विशेष भूमिका निभाने के लिए आये थे। जैसे पाण्डव विशेष भूमिका निभाने के लिए आये थे और ग्वाल-बाल श्रीकृष्ण भगवान के साथ विशेष भूमिका निभाने के लिए आये थे। गाँधी जी के सत्याग्रही उनके साथ विशेष भूमिका निभाने के लिए आये थे। बुद्ध के साथ चीवरधारी भिक्षु कुछ विशेष उत्तरदायित्व निभाने के लिए आये थे। आप लोग इस तरह का अनुभव और विश्वास कर सकें कि आप लोग हमारे साथ उसी तरीके से जुड़ें हुए हैं और विशेष उत्तरदायित्व महाकाल का सौंपा हुआ पूरा करने के लिए हम लोग आये हैं। अगर यह बात मान सकें तो फिर आपके सामने नये प्रश्न उत्पन्न होंगे और नयी समस्याएँ उत्पन्न होंगी और नये आधार, नये कारण उत्पन्न होंगे।

इसके लिए जो आपको पहला कदम बढ़ाना पड़ेगा वह यह कि आप को अपनी परिस्थितियों में हेरफेर करना पड़ेगा। जिस तरीके से सामान्य मनुष्य जीते हैं, उस तरीके से आप जीने से इनकार कर दें और यह कहें कि हम तो विशेष व्यक्तियों और महामानवों की तरीके से जियेंगे। जब मात्र पेट ही भरना है तो गंदे तरीके से क्यों, श्रेष्ठ तरीके से क्यों न भरें। पेट भरने के अलावा जो कार्य कर सकते हैं, उसे क्यों न करें। जब यह प्रश्न आपके सामने ज्वलंत रूप से आ खड़ा होगा तब यह आवश्यकता आपको अनुभव होगी की हम अपनी मनः स्थिति में हेरफेर कर डालें-अपनी मनः स्थिति को बदल डालें ओर हम लौकिक आकर्षणों की अपेक्षा यह देखें कि इनमें भटकते रहने की अपेक्षा मृगतृष्णा में भटकते रहने की अपेक्षा भगवान का पल्ला पकड़ लेना ज्यादा लाभदायक है। भगवान का सहयोगी बन जाना ज्यादा लाभदायक है। संसार का इतिहास बताता है कि भगवान का पल्ला पकड़ने वाले, भगवान को अपना सहयोगी बनाने वाले, कभी घाटे में नहीं रहे। अगर इस बात पर विश्वास कर सकें तो जानना चाहिए की हमने एक बहुत बड़ा प्रकाश पा लिया। ऊंचा उठने के लिए मनः स्थिति बदलना और साँसारिकता का पल्ला पकड़ने की अपेक्षा भगवान की शरण में जाना आवश्यक है। यही हमारा दूसरा कदम होना चाहिए।

तीसरा कदम आत्मिक उत्थान के लिए हमारा यह होना चाहिए कि हमारी महत्वकाँक्षाएँ, कामनाएँ, इच्छाएँ बड़प्पन के केन्द्र से हटें ओर महानता के साथ जुड़ जायें। हमारी महत्वकाँक्षाएँ यह नहीं होनी चाहिए की हम जिंदगी भर वासना को पूरा करते रहेंगे और तृष्णा के लिए अपने समय और बुद्धि को खर्च करते रहेंगे और अपने बड़प्पन को, अपनी अहंता को, ठाट-बाट को लोगों के ऊपर रौब गालिब करने के लिए हम तरह-तरह के ताने बाने बुनते रहेंगे। अगर हमारा मन इस बात को मान जाए और अंतः करण स्वीकार कर ले कि यह बचकानी बातें हैं, छिछोरी बातें हैं छोटी बातें हैं। अगर हम क्षुद्रता का त्याग कर सकें तो फिर हमारे सामने एक ही बात खड़ी होगी कि अब हमको महानता ग्रहण करनी है। महापुरुषों ने जिस तरीके से आचरण किये थे, उनके चिंतन करने का जो तरीका था, जिस तरीके से उनने आचरण किये थे, वही तरीका हमारा होना चाहिए और हमारी गतिविधियाँ उसी तरीके की होनी चाहिए। जैसा कि श्रेष्ठ मनुष्यों की रही हैं और रहेंगी। यह विश्वास करने के बाद हमको अपनी क्रिया पद्धति में, दृष्टिकोण में, मान्यताओं में, इच्छा-आकाँक्षाओं में परिवर्तन करने, बदल देने के बाद

व्यावहारिक जीवन में भी थोड़े से कदम उठाने चाहिए। साधकों के लिए यही मार्ग है कि मन और इंद्रियों की गुलामी को छोड़ दें। इंद्रियों की गुलामी को हम छोड़ दें और इनके स्वामी बनें। अब तक हम असहाय के रूप में, दीन-दुर्बल के रूप में इंद्रियों के कोड़े सहते रहे हैं और इनके दबाव और इनकी वजह से चाहें जहाँ घूमते हैं। मन हमको चाहें जहाँ घसीट ले जाता है। कभी गड्ढे में धकेल देता है, कभी कहीं कर देता है। इन्द्रियाँ हमसे जाने क्या-क्या करा लेती हैं मन ज जाने क्या-क्या करने के लिए कहता रहता है। हम असहाय एवं गुलामों के तरीके से इन्हीं का कहना मानते हैं। अब हमको इन परिस्थितियों को बदल देना चाहिए। हमारी आपसे प्रार्थना है कि आप इनके स्वामी बनें। स्वामी अपनी ललक लिप्सा को छोड़ दें। इंद्रियों को नौकरानी के तरीके से इस्तेमाल करें बल्कि मन को नौकर के तरीके से इस्तेमाल करें। मन को हुकुम दें कि आपको हमारा कहना मानना ही पड़ेगा। इंद्रियों से कहें कि आप हमारी मर्जी के बिना जो चाहे नहीं कर सकतीं। हमारी आज्ञा के बिना कैसे करेंगी ? इस तरीके से इंद्रियों के ऊपर हुकूमत अगर हम कर पायें तो हम गुलामी बंधन से मुक्त हो जायें। जिस के लिए हम मुक्ति चाहतें हैं असल में यह कोई भवबंधनों से मुक्ति नहीं है। हमारे मन और इंद्रियों की गुलामी का नाम ही भव बंधन है। इनसे यदि हम अपने को छुड़ा लेते हैं तो हम स्वभावतः जीवन मुक्त हो जाते हैं और मोक्ष मिल जाता है अगर इसके लिए हम साहस इकट्ठा कर पायें तब।

संसार में रहकर हम अपने कर्त्तव्य पूरे करें, हँसी-खुशी से रहें, अच्छे तरीके से रहें, लेकिन इस कदर व्यस्त न हो जायें-इस कदर न फँस जायें कि हमको अपने जीवन के उद्देश्यों का ध्यान ही नहीं रहे। अगर हम इसमें फँसेंगे तो मरेंगे। मक्खी चाशनी के ऊपर दूर बैठकर रस लेती रहती है तब तो ठीक है। इस तरह वह जायका भी लेती रहती है और अपने को सुरक्षित भी रखती है, पर कोई ऐसी मूर्ख मक्खी जैसे के आप हैं, चाशनी के ऊपर बेहिसाब टूट पड़ती है तो शहद खाना ता दूर-चाशनी खाना तो दूर-वह अपने पंखों में भी लपेट लेती है और बेमौत मरती है। आपने उस बन्दर का किस्सा सुना होगा जो अफ्रीका में पायें जाते हैं और जिनके बारे में यह कहा जाता है कि शिकारी लोग उसको मुट्ठी भर चने का लालच दे करके उसकी जान ले लेते हैं। उसे गिब्बन कहते हैं। उसे फँसाने के लिए लोहे के घड़े में चने भर दिये जाते हैं और गिब्बन उन चनों को खाने के लिए आता है, मुट्ठी बाँध लेता है, लेकिन तब वह मुट्ठी निकालना चाहता है तो वह निकलती नहीं है। जोर लगाता है तो भी नहीं निकलती। इतनी हिम्मत नहीं होती की मुट्ठी को खाली दे और हाथ को खींच ले, लेकिन वह मुट्ठी को छोड़ना नहीं चाहता। इसका परिणाम यह होता है कि हाथ बाहर निकलता नहीं और शिकारी आता है तथा उसको मार कर खत्म कर देता है। उसकी चमड़ी को उधेड़ लेता है। हमारी और आपकी स्थिति ऐसी ही है जैसे अफ्रीका के गिब्बन बंदरों की। हम लिप्साओं के लिए, लालसाओं के लिए, वासना के लिए, तृष्णा के लिए, अहंकार की पूर्ति के लिए मुट्ठी बंद करके बंदरों की तरीके से फँसे रहते हैं और अपनी जीवन संपदा का विनाश कर देते हैं। इससे हमको बाज आना चाहिए और अपने आपको इनसे बचाने की कोशिश करनी चाहिए।

हमको अपनी क्षुद्रता का त्याग करना ही है। जब हम क्षुद्रता का त्याग करते हैं तो कुछ खोते नहीं वरन् कमाते ही कमाते हैं। कार्लमार्क्स मजदूरों से यही कहते थे-”मजदूरों एक हो जाओ, तुम्हें गरीबी के अलावा कुछ खोना नहीं है।” मैं कहता हूँ कि अध्यात्म मार्ग पर चलने वाले विद्यार्थियों-तुम्हें अपनी क्षुद्रता के अलावा और कुछ नहीं खोना है, पाना ही पाना है। आध्यात्मिकता के मार्ग पर पाने के अलावा और कुछ नहीं है। इससे एक ही चीज हाथ से दी जाती है जिसका नाम है-क्षुद्रता और संकीर्णता। क्षुद्रता और संकीर्णता को त्यागने में अगर आपको बहुत कष्ट न होता हो तो मेरी प्रार्थना है कि आप इसको छोड़ दें और महानता के रास्ते पर चलें। जीवन में भगवान को अपना हिस्सेदार बना लें। भगवान के साथ अपने को जोड़ लें। अपने को जोड़ लेंगे तो यह रिश्तेदारी यह मुलाकात आपके बहुत काम आयेगी। गंगा ने आपको हिमालय के साथ में जोड़े रखा है। गंगा और हिमालय का तालमेल तथा-रिश्ता-नाता ठीक बना रहा और गंगा हमेशा पानी खर्च करती रही, लेकिन उसके पानी की कमी भी कभी नहीं पड़ने पायी। हिमालय के साथ-भगवान के साथ हम अपना रिश्ता जोड़ें तो हमारे लिए जीवन में कभी अभावों का, संकटों का अनुभव न करना पड़ेगा जैसे कि सामान्य लोग पग-पग किया करते हैं। गंगा का पानी सूखा नहीं, लेकिन नाले का सूख गया क्योंकि उसने महान सत्ता के साथ संबंध बनाया नहीं। बाढ़ का पानी आया तो सूखा नाला उलछने लगा, जैसे ही पानी सूखा, नाला भी सूख गया नौ महीने सूखा पड़ा रहा। बरसाती नाला तीन महीने बाद ही सूख गया, लेकिन गंगा युगों से बहती चली आ रही है, कभी सूखने का नाम नहीं लिया। हम भी अगर हिमालय के साथ जुड़ने भगवान के साथ जुड़ने की हिम्मत कर पायें, तब हमें भी सूखने का कभी मौका नहीं आयेगा।

अपने आपको हम अगर भगवान को समर्पित कर सकें तो ही भगवान को पायेंगे। कठपुतली ने अपने आपको बाजीगर के हाथों सौंप दिया और बाजीगर की सारी कला का लाभ उठाया। हम भगवान की सारी कला का लाभ उठा सकते हैं, शर्त केवल यही है कि हम अपने आपको अपनी महत्वाकांक्षाओं को और अपनी दुष्प्रवृत्तियों को भगवान के सुपुर्द कर दे। पतंग ने कुछ खोया नहीं, बच्चे के हाथ में अपने को सौंप दिया और बच्चे ने उस पतंग को डोरी के साथ उड़ाया ओर पतंग आसमान छूने लगी। अगर पतंग ने इतनी हिम्मत और बहादुरी न दिखायी होती और बच्चे के हाथ में अपना मार्ग-दर्शन सौंपा होता तो क्या पतंग उड़ सकती थी नहीं, जमीन पर ही पड़ी रहती। बांसुरी ने अपने आपको किसी गायक को सौंपा। गायक के होठों से लगी और गायक होठों ने वह हवा फूँक मारी जिससे कि चारों और मधुर संगीत निनादित होने लगा। हम भगवान के साथ अपने आपको इसी तरीके से जोड़ें जैसे कि कठपुतली पतंग और बाँसुरी अपने आपको जोड़ती है, न कि इस तरीके से कि पग-पग पर हुकूमत चलायें भगवान के साथ और अपनी मनोकामना पेश करें यह भक्ति की निशानी नहीं है। भगवान की आज्ञा पर चलना हमारा काम है। भगवान पर हुकूमत करना और भगवान के सामने तरह-तरह की फरमाइशें पेश करना यह तो वेश्यावृत्ति का काम है। हममें से किसी को भी उपासना लौकिक कामनाओं के लिए नहीं, बल्कि भगवान की साझेदारी के लिए, भगवान को स्मरण रखने के लिए, भगवान के आज्ञानुवर्ती होने के लिए और भगवान को अपना समर्पण करने के उद्देश्य से उपासना करेंगे, तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आपकी उपासना सफल होगी। आपको आँतरिक संतोष मिलेगा। न केवल आँतरिक संतोष मिलेगा, बल्कि आपके व्यक्तित्व का विकास होगा और व्यक्तित्व के विकास का निश्चित परिणाम यह होता है कि आदमी भौतिक और आत्मिक दोनों तरह की सफलताएँ भरपूर मात्रा में प्राप्त करता है।

मेरा आपसे यह अनुरोध है कि आप हँसती-हँसाती

जिंदगी जियें, खिलती-खिलाती जिंदगी जियें। हलकी-फुलकी जिंदगी जियें। अगर हलकी-फुलकी जिंदगी जियेंगे तो आप जीवन का सारे का सारा आनन्द पायेंगे ओर अगर आप वासना, तृष्णा, लोभ लिप्सा में घुसेंगे तो नुकसान उठायेंगे। आप अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए जिंदगी जियें और हँसी-खुशी से जियें। किसी बात को बहुत महत्व न दें। अपने किसी कर्तव्य की उपेक्षा भी ने करें, लेकिन उसमें इतने ज्यादा मशगूल भी न हों कि किसी लौकिक काम को ज्यादा महत्व देने लगें ओर अपने मन की शाँति खो बैठें।

हमें माली की जिंदगी जीनी जीनी चाहिए मालिक की नहीं। मालिक की जिंदगी में बहुत भारीपन है और बहुत कष्ट है। माली की जिंदगी के तरीके से रखवाली करने वाले के चौकीदार की तरीके से हम जियें तो पायेंगे कि जो कुछ भी कर लिया वह हमारा कर्तव्य ही काफी था। मालिक को चिंता रहती है कि सफलता मिली कि नहीं उसको इतनी चिंता रहती है कि अपने कर्तव्य ओर फर्ज पूरे किये कि नहीं। हम दुनिया में रह, काम दुनिया में करें, पर अपना मन भगवान में रखें अर्थात् उच्च उद्देश्यों और उच्च आदर्शों के साथ जोड़कर रखें। कमल का पत्ता पानी पर तैरता है लेकिन डूबता नहीं है। हम दुनिया में डूबें नहीं। हम खिलाड़ी की तरीके से जियें। हार-जीत के बारे में बहुत ज्यादा चिंता न करें। हम अभिनेता के तरीके से जियें और यह देखें कि हमने अपना पार्ट-प्ले ठीक तरीके से किया कि नहीं किया। हमारे लिए इतना ही संतोष बहुत है। ठीक है परिणाम नहीं मिला तो हम क्या कर सकते हैं। बहुत सी बातें परिस्थितियों पर निर्भर रहती हैं परिस्थितियाँ हमारे अनुकूल नहीं रही तो हम क्या कर सकते हैं। हमने अपना कर्तव्य पूरा किया, हमारे लिए इतना बहुत है। इस दृष्टि से अगर आप जियेंगे तो आपकी खुशी को कोई छीन नहीं सकता और आपको इस बात की परवा नहीं होगी कि जब कभी सफलता मिले तब आप प्रसन्न हों। चौबीसों घंटे आप खुशी से जीवन जी सकते हैं। जीवन की सार्थकता, सफलता का यही तरीका है।

साधकों में से कई व्यक्ति हम से यह पूछते रहते हैं कि हम क्या करें ? मैं उनमें से हर एक से कहता हूँ कि यह मत पूछिए, बल्कि यह पूछिये कि क्या बनें। अगर आप कुछ बन जाते हैं तो करने से भी ज्यादा कीमती है वह। फिर जो कुछ भी आप कर रहे होंगे वह सब सही हो रहा होगा। आप साँचा बनने की कोशिश करें। अगर आप साँचा बनेंगे तो जो गीली मिट्टी आपके संघर्ष में आयेगी-आपके ही तरीके से आपके ही ढंग के-शकल के खिलौने बनते हुए चले जायेंगे। आप सूरज बनें तो आप चमकेंगे और चलेंगे। उसका परिणाम क्या होगा ? जिन लोगों के लिए आप करना चाहते हैं वे आपके साथ-साथ चमकेंगे ओर चलेंगे। सूरज के साथ में नो ग्रह और बत्तीस उपग्रह हैं। वे सब के सब चमकते हैं और साथ-साथ चलते हैं। हम चलें, हम प्रकाशवान हों, फिर देखेंगे कि जिस जनता के लिए आप चाहते थे कि वह हमारी अनुगामी बने ओर हमारी नकल करे तो वह ऐसा ही करेगी। आप देखेंगे की आप चलते हैं तो दूसरे लोग भी चलते हैं। आप स्वयं नहीं चलेंगे और यह अपेक्षा करेंगे की दूसरे आदमी हमारा कहना मानें तो यह मुश्किल है। आप गलें और वृक्ष बनें और वृक्ष बन कर के अपने जैसे असंख्यों बीज आप अपने भीतर से पैदा कर डालें। हमको बीजों की जरूरत है। आप बीज बनिये, गलिये वृक्ष बनिये और अपने भीतर से ही फल पैदा करिये ओर प्रत्येक फल में से ढेरों के ढेरों बीज पैदा कीजिये। आप अपने भीतर से ही बीज क्यों नहीं बनायें ?

मित्रो, जिन लोगों ने अपने आपको बनाया है उनको यह पूछने की जरूरत नहीं पड़ी कि क्या करेंगे। उनकी प्रत्येक क्रिया इस लायक बन गयी कि उनकी क्रिया ही सब कुछ करा सकने में समर्थ हो गई। उनका व्यक्तित्व ही इतना आकर्षक रहा कि प्रत्येक सफलता का और प्रत्येक महानता को सम्पन्न करने के लिए काफी था। सिक्खों के गुरु रामदास के शिष्य अर्जुन देव जी बर्तन-थाली साफ करने का काम करते थे। उन्होंने अपने आपको अनुशासन में ढालने का प्रयत्न किया था, पर जब उनके गुरु यह तलाश करने लगे कि कौन से शिष्य को अपना उत्तराधिकारी बनाया जाय। सारे विद्वानों की अपेक्षा और दूसरे गुण वालों की अपेक्षा उन्होंने अर्जुन देव को चुना और यह कहा कि अर्जुन देव ने अपने आपको बनाया है। बाकी आदमी इस कोशिश में लगे रहे कि हम दूसरों से क्या करायें और स्वयं क्या करें। जबकि होना यह चाहिए था कि जिस तरीके से अर्जुन देव ने कुछ किया था और न कराया था, केवल अपने आपको बना लिया था। इसलिए उन्हें गुरु ने माना कि यह सबसे अच्छा आदमी है। सप्त ऋषियों ने अपने आपको बनाया था। उनके अंदर तप की संपदा थी, फिर जो कोई भी जहाँ कहीं भी रहते चले गये, और जो भी काम उन्होंने किये वही महानता श्रेणी का उच्चस्तरीय काम कहलाया। अगर उनका व्यक्तित्व घटिया होता तो फिर बात कैसे बनती।

गाँधी जी ने अपने आपको बनाया था तभी हजारों आदमी उनके पीछे चलें। बुद्ध ने अपने आपको बनाया, हजारों आदमी उनके पीछे चलें। हम भी अपने में चुम्बकत्व पैदा करें। खदानों के अन्दर लोहे और अन्य धातुओं के कण जमा हो जाते हैं, उसका कारण यही है कि जहाँ कहीं भी खदान होती है, वहाँ चुम्बकत्व रहता है। चुम्बकत्व छोटी-छोटी चीजों को अपनी ओर खींचता रहता है। हम अपनी ‘क्वालिटी’ बढ़ायें, अपना चुम्बकत्व बढ़ायें, अपना व्यक्तित्व बढ़ाये यही सबसे बड़ा करने के लिए काम है। समाज की सेवा भी करनी चाहिए, पर मैं यह कहता हूँ कि समाज सेवा से भी पहले ज्यादा महत्वपूर्ण इस बात को आप समझें की हमको अपनी ‘क्वालिटी’ बढ़ानी है। कोयले और हीरे में रासायनिक दृष्टि से काई फर्क नहीं ? कोयले का ही परिष्कृत रूप हीरा है। खनिज में से जो धातुएँ निकलती हैं, कच्ची होती हैं, लेकिन जब पकाकर के ठीक कर ली जाती हैं और साफ-सुथरी बना दी जाती हैं तो उन्हीं धातुओं का नाम स्वर्ण-शुद्ध स्वर्ण हो जाता है। उसी का नाम फौलाद हो जाता है। ही अपने आपको फौलाद बनायें। अपने आपकी सफाई करें। अपने आपको धोये। अपने आपको परिष्कृत करें। इतना कर सकना यदि हमारे लिए संभव हो जाये तो समझना चाहिए कि आपका यह सवाल पूरा हो गया कि हम क्या करें ? क्या न करें ? आप अच्छे बने। समाज सेवा करने से पहले ये आवश्यक है कि हम समाज सेवा के लायक हथियार तो अपने आपको बना लें। यह ज्यादा अच्छा है कि हम अपने आपकी सफाई करें।

मित्रों, एक और बात कहते हुए अपनी बात समाप्त करना चाहते हैं। एक हमारा आमंत्रण अगर आप स्वीकार कर सकें तो बड़ी मजेदार बात होगी। आप हमारी दुकान में शामिल हो जाइये, इसमें बहुत फायदा है। इसमें से हर आदमी को काफी मुनाफे का शेयर मिल सकता है। माँगने से तो हम थोड़ा सा ही दें पायेंगे। भीख माँगने वालों को कहाँ किसने कितना दिया है। लोग थोड़ा सा ही दे पाते हैं। आप हमारी दुकान में साझेदार-हिस्सेदार क्यों नहीं बन जाते। हमारे गुरु और हमने साझेदारी की है। शंकराचार्य और मान्धनता ने साझेदारी की थी इस दुकान में। सम्राट अशोक और बुद्ध ने साझेदारी की थी। समर्थ गुरु रामदास और शिवाजी ने साझेदारी की थी। रामकृष्ण और विवेकानन्द ने साझेदारी की थी। क्या आप ऐसा नहीं कर सकते कि हमारे साथ शामिल हो जायँ। हम और आप मिल करके एक बड़ा काम करें। उसमें से जो मुनाफा आये उसको बाँट लें। अगर आप इतनी हिम्मत कर सकते हों कि हम प्रमाणिक आदमी हैं और जिस तरीके से हमने अपने गुरु की दुकान में साझा कर लिया है, आप आयें ओर हमारे साथ साझा करने की कोशिश करें। अपनी पूँजी उसमें लगायें। समय की पूँजी, बुद्धि की पूँजी हमारी दुकान में शामिल करें और इतना मुनाफा कमायें जिससे कि आप निहाल हो जायें। हमारी जिंदगी के मुनाफे का यही तरीका है। हमने अपनी पूँजी को अपने गुरुदेव हमारे भगवान की कम्पनी में शामिल हैं। हम अपने गुरुदेव की कंपनी में शामिल हैं। आपमें से हर एक का आह्वान करते हैं कि अगर आपकी हिम्मत हो तो आप आयें और हमारे साथ जुड़ जायें। हम जो भी लाभ कमायेंगे भौतिक और अध्यात्मिक, उसका इतना हिस्सा आपके हिस्से में मिलेगा कि आप धन्य हो सकते हैं और निहाल हो सकते हैं, उसी तरीके से कि जैसे हम धन्य हो गये और निहाल हो गये। यही हमारा साधकों से आग्रह भरा अनुरोध इस बदलती विषम वेला में है।


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