अंतस् की निर्झरिणी- संजीवनी प्रसन्नता

June 1994

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

प्रसन्नता आँतरिक पवित्रता का, शुद्धि का बाह्य परिणाम है-दृश्यमान चिह्न है ।जब चित्त शुद्ध होकर सत्वगुण-संपन्न हो जाता है तभी प्रसन्नता की सहज वृत्ति जाग्रत होती है । जब इस तरह के सत्वगुण-संपन्न महापुरुष, जिनका अंतस् निर्मल पवित्र और स्वच्छ हो जाता है, जिन्होंने अपने अंतस् का समाधान कर लिया वे हँसते हैं तो सारे वातावरण में हँसी के स्रोत फूट पड़ते हैं । उनके चारों ओर प्रसन्नता साकार हो उठती है । दुःखी संक्षुब्द व्यक्ति भी उस प्रसन्नता के वातावरण में उस समय के लिए अपने दुःख क्लेशों को भूल जाता है । महापुरुषों के साथ बिताये गये क्षण स्वर्गीय आनन्द से कम नहीं होते । ऐसा लगता है मानों किसी दूसरे लोक में विचरण कर रहे हों जहाँ के वातावरण में उत्साह, उल्लास, उमंग, प्रसन्नता, मुस्कान भरा हो । उनके निर्मल हृदय से प्रसन्नता की सुरसरि वैसे ही प्रवाहित होती रहती है जैसे पावन हिमालय से गंगा ।

समाज के विशाल भवन में मनुष्यों का गठन उसी तरह है जैसे किसी माला के विभिन्न मनकों का । भवन के निर्माण में प्रत्येक ईंट का अपना विशेष स्थान है , इतना ही नहीं नींव में निम्न स्तर पर लगी हुई ईंट का और भी महत्व है क्योंकि उसके ऊपर समस्त भवन का बोझ उठा हुआ है ।सेंट पाल के शब्दों में “हम सब एक दूसरे के साक्षी हैं परस्पर अन्योन्याश्रय हैं । अतः किसी को भी भले ही निम्न स्तर का क्यों न हो, हमें घृणा की दृष्टि से देखने का अधिकार नहीं है ।” जीवन में प्रसन्नता के अवतरण के लिए समता रूपी व्यावहारिक गीता का यही सूत्र है । सबसे प्रेम करना, सबके अस्तित्व को अपनी ही तरह मान कर उसका पूरा-पूरा आदर करना, पड़ोसी से लेकर सारी वसुधा को प्रेम करना आवश्यक है । इससे आँतरिक क्षेत्र से घृणा । अनुदारता, स्वार्थ परता आदि दोष दूर होंगे और प्रसन्नता का प्रकाश प्रकट होने, लगेगा । इक्कड़पन, पड़ोसी से कोई मतलब न रखने की वृत्ति, अपने तक सीमित रहने की वृत्ति ही दुःख का मूल कारण है ।

गुण दोषों का संबंध उसी तरह है जैसे दीपक के प्रकाश में उसकी स्वयं की छाया । “जड़-चेतना-गुण दोष मय” के अनुसार हर व्यक्ति में गुण-दोष अवश्य हैं किंतु प्रत्येक व्यक्ति मूल रूप से अच्छा है बुरा नहीं, अतः किसी के गुण दोषों से प्रभावित होना आध्यात्मिकता की पहचान नहीं । कर्तव्य के साथ थोड़ा बहुत अहंकार होना स्वाभाविक है । इस तरह के दोष छाया दोष कहे जाते हैं जिनका अस्तित्व भी स्वीकार करना आवश्यक है । गुण दोष रहित मनुष्य मिलना दुर्लभ है । अतः गुण दोषों का ध्यान न रखकर सभी का आदर करना प्रसन्नता की अभिवृद्धि करना है ।

दूसरे से अनादर अविश्वास, मतभेद, विचार-भेद रखना, प्रसन्नता की जगह राग, द्वेष, क्लेश, गुटबंदी, दलबंदी, भिन्न-भिन्न वाद, प्राँतीयता, एकाँगी निर्णय में सब प्रसन्नता को दूर करके मानव मात्र के सुख चैन को नष्ट-भ्रष्ट करने वाले साधन हैं । इनको अपनाने वाला क्षणिक सुख अथवा तात्कालिक लाभ भले ही पाले किंतु अंततोगत्वा कलई खुल जाती है और लोक भर्त्सना से लेकर आत्म प्रताड़ना के दण्ड से तिलमिलाते हुए वे देखे गये हैं । आत्म बल क्षीण हो जाता है, आत्म विश्वास कोसों दूर हो जाता है, ऐसा व्यक्ति आध्यात्मिक तेज रहित होकर छूँछ बन जाता है ।

विभिन्न विचारों, दृष्टिकोणों, स्वभावों के कारण भेद हो सकते हैं यह स्वाभाविक भी है किंतु, इनके साथ द्वेष तथा कटुता के भाव न हों वरन् प्रेम एक दूसरे को आदर देने की भावनाएँ हों-जिससे विचार का, बातचीत का, हृदयों की एकता का रास्ता खुला रहे और मनुष्य अपने मनोमालिन्य को दूर कर सके । प्रसन्नता के लिए परस्पर बुनियादी प्रेम, आदर, भावनाएँ होना आवश्यक है । स्नेह में भी आसक्ति होती है किंतु, निःस्वार्थ प्रेम और आदर अंतस्तल को शुद्ध कर उसे बल प्रदान करता है, समर्थ बनाता है ।

प्रसन्नता की प्राप्ति के लिए उदार बनें । संकीर्णता व मनहूसियत से भरे हृदय में प्रसन्नता प्रकट नहीं होती । सबके लिए हृदय खोल कर रखें । हृदय खोल कर मिलें । मनहूस वही होता है जो दूसरों के प्रति संकीर्णता, घृणा के विरोधी भाव रखता है । व्यवहार

में, बातचीत में, रहन-सहन में उदारता बरती जाय । भगवान द्वारा तैयार की गयी इस पाठशाला में तरह-तरह के व्यंजन विनिर्मित हैं, उन्हें परोसने में हम कंजूसी क्यों बरतें । पूरी उदारता के साथ क्यों न जन-जन तक पहुँचायें, उन्हें तृप्त करें ।

मुसकान, प्रसन्नता, हँसी-खुशी, हमारी आँतरिक प्रसन्नता, सद्भावना,आत्मीयता का सिगनल-प्रतिबिंब हैं । दुश्मन के साथ मुस्कुरा कर बातचीत करने से दुश्मनी के भाव नष्ट हो जाते हैं, मुसकान के द्वारा दूषित भाव ग्रन्थियाँ सहज ही नष्ट हो जाती हैं । प्रसन्नता वह आँतरिक स्रोत-निर्झरिणी है, जिसके प्रवाहित होने से अपना ही नहीं पास-पड़ो के लोगों का जीवन हरा-भरा एवं सुगंधित खुशहाली से भर जाता है । यही है- आध्यात्मिक उन्नति का प्रथम सोपान ।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118