जनसेवा (Kahani)

June 1994

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

गाँधी जी ने नेटाल् से स्वदेश लौटने को तैयार हुए तो सैकड़ों व्यक्तियों ने उनके विदाई समारोह में भाग लिया। रजत और सवर्ण के आभूषणों की कौन कहे, उन्हें तो मूल्यवान घड़ियाँ तथा हीरे की अँगूठियाँ तक उपहार में मिली। गाँधी जी इस निर्णय पर नहीं पहुँच पा रहे थे कि प्राप्त उपहारों का क्या किया जाय? वह ऐसे ही संकल्प विकल्प में पड़े हुए थे। जो व्यक्ति दूसरों को त्याग वृति का उपदेश दे, सादगी से रहने के लिए आग्रह करे फिर भला ऐसे मूल्यवान उपहारों को कैसे ग्रहण कर सकता था।

उन्होंने कस्तूरबा तथा बच्चों को समझाया। बच्चे तो उनकी बात जल्दी समझ गये पर कस्तूरबा मानने को तैयार न हुई वह गाँधी जी के निर्णय का विरोध ही करती रही। अधिक कहा तो रो पड़ीं। उन्होंने रोते हुए कहा-’आपने तो हमारे सब आभूषण ले ही लिये हैं। यह उपहार यहाँ के निवासियों ने कितनी श्रद्धा के साथ दिये हैं। पर आप नहीं चाहते कि ये आभूषण मेरे पुत्रों की शादी में काम आयें और उनकी बहुएँ पहनें। फिर यह उपहार तो मुझे मिलें हैं। इन पर आपका क्या अधिकार है?

गाँधी जी ने निर्विकार भाव से समझाया- क्या तुम इतना भी नहीं जानती कि यह उपहार जनसेवा के बदले मिले हैं। अतः इनका उपयोग जनहित के लिए ही किया जाना चाहिए।

सन् 1896 तथा 1901 में गाँधी जी को जो उपहार मिले उन्हें सार्वजनिक उपयोग के उद्देश्य से बैंक में जमाकर दिया। वह अपने को सदैव सार्वजनिक वस्तु का प्रहरी मानते थे।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118