सबसे बड़ा शत्रु है– असंयम

June 1994

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भगवान ने सृष्टि के अन्य जीव जंतुओं, पशु पक्षियों की ही भाँति मनुष्य शरीर को भी इस प्रकार बनाया है कि वह आजीवन स्वस्थ रहे । जो पशु दुर्भाग्य से मनुष्य के संपर्क में आ गये या दासता के बंधनों में बँध गये हैं-जिन्हें उसके जैसा अ प्राकृतिक आहार-विहार अपनाना पड़ता है वे तो कभी-कभी अवश्य बीमार पड़ते हैं, बाकी जंगलों में स्वच्छंद विचारने वाले अपनी इच्छानुसार आहार-विहार अपनाने वाले पशु पक्षी न तो कभी रोग ग्रस्त होते हैं और न बेमौत मरते हैं । बीमारियाँ प्रकृति की देन नहीं हैं । वह तो मनुष्य के अप्राकृतिक, अस्वाभाविक, बनावटी, चटोरे, विलासितापूर्ण और उद्धत आचरण के फलस्वरूप प्राप्त हुई सजाएँ हैं । यदि हम अपने चटोरेपन को काबू में रख सकें, औचित्य का, व्यवस्था का, नियमितता का, संयमशीलता का ध्यान रहे तो बीमार पड़ने का कोई कारण नहीं रह जाता । अप्राकृतिक विलासिता-पूर्ण जीवन की आदत डाल कर मनुष्य ने अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारी है, अपने-आप अपने स्वास्थ्य का सत्यानाश किया है, पीढ़ी दर पीढ़ी तक इस अव्यवस्था में ग्रसित रहने के कारण अब बीमारी और कमजोरी एक पैतृक धरोहर के रूप में उसके पल्ले बँध गई है । फिर भी यदि हम चाहें और थोड़ा सा अपने स्वभाव में परिवर्तन लें तो तीन चौथाई बीमारियों से अनायास ही पिंड छुड़ा सकते हैं ।

हमारे जीवन का सबसे बड़ा शत्रु असंयम है । उसके द्वारा जितनी हानि उठानी पड़ती है उतनी सौ दुश्मन मिलकर भी नहीं पहुँचा सकते । इंद्रियों की, मन की सामर्थ्य को सृजनात्मक कार्यों में प्रयुक्त करने की अपेक्षा जब हम उसका अपव्यय अनुपयुक्त दिशा में करते हैं तो वह शक्ति न केवल व्यर्थ ही चली जाती है वरन् उसके अभाव के कारण उत्पन्न हुई दुर्बलता से एवं दुरुपयोग के कारण उत्पन्न हुई हानिकारक प्रतिक्रिया से दुखद परिणाम ही सामने आते हैं । जीभ के चटोरेपन को ही लीजिये, वह मिठाई या मिर्च मसालों के लिये लार टपकाती है । मनुष्य का स्वाभाविक भोजन वह है जो बिना अग्नि का उपयोग किये, कम से कम अग्नि का उपयोग किये या कम से कम गड़बड़ी किये प्राकृतिक रूप में उपलब्ध होता है । इस दृष्टि से फल, शाक, दूध, दही, छाछ, मेवे आदि को उत्तम आहार माना जा सकता है । अन्न का उपयोग बिना अधिक तोड़ मरोड़ का होना चाहिए । खिचड़ी, दलिया, चावल, दाल, उबले हुए अन्न या मोटे बिना छने आटे की रोटी का उपयोग भूख से कुछ कम मात्रा में अच्छी तरह चबाकर नियत समय पर करने की आदत डाली जाय तो वह आसानी से पच सकता है, अच्छा रक्त माँस बनाकर शरीर का ठीक पोषण कर सकता है । पर हमारी जो चटोरेपन की आदत पड़ गई है वह गुण को नहीं स्वाद को देखती है । जो चीज जितनी ज्यादा पीसी, भुनी तली गई होगी, मिठाई, घी, मसाले आदि का जितना अधिक सम्मिश्रण होगा उतनी ही वह स्वादिष्ट लगेगी । इस स्वाद के वशीभूत होकर हम हानिकारक चीजें, अधिक मात्रा में उदरस्थ करते रहते हैं । फलस्वरूप अपनी पाचन क्रिया बिगाड़ लेते हैं उसके बिगाड़ने पर नाना प्रकार के रोगों का आक्रमण होना स्वाभाविक ही है ।

हकीम लुकमान का यह कथन अक्षरशः सही है कि “लोग अपने दाँतों से अपनी कब्र खोदते हैं ।” जीभ के असंयम के कारण हम प्रायः अपनी आधी आयु खो देते हैं और एक चौथाई जिंदगी बीमारियों का कष्ट उठाते हुए, हकीम डाक्टरों के आगे नाक रगड़ते हुए उनकी जेबें गर्म करते हुए व्यतीत करते हैं । यह हानि कुछ कम हानि नहीं है पर अपनी बुद्धिमत्ता पर गर्व करने वाला बेवकूफ आदमी जरा देर की जीभ की खुजली मिटाने के लिये खुशी-खुशी इतनी हानि सहन करता रहता है ।

जीभ ही नहीं अन्य इंद्रियों का असंयम भी न्यूनाधिक रूप से ऐसा ही घातक है । ब्रह्मचर्य की मर्यादाओं का उल्लंघन करते रहने के कारण आज अधिकाँश नर-नारी गुप्त रोगों से ग्रसित पाये जाते हैं । पुरुषों में स्वप्नदोष, प्रमेह, नपुँसकता, शीघ्रपतन, बहुमूत्र, सुजाक, उपदंश आदि और स्त्रियों में प्रदर, सोम गर्भाशय में सूजन, गांठें, मासिक धर्म के समय कमर में दर्द, अधिक रक्त स्राव, संतान न होना, होकर मर जाना, प्रसवकाल में भयंकर कष्ट आदि नाना प्रकार के जननेन्द्रिय संबंधी रोग घर कर लेते हैं । जो लड़के-लड़की विवाह से पूर्व बहुत स्वस्थ और सुन्दर थे वे दो चार वर्ष में ही अपना सत्यानाश इस असंयम की मूर्खता के कारण कर लेते हैं ।

असंयम मीठा विष है । यह मीठी छुरी की तरह बाहर से प्रिय लगता है, प्रसन्नतावर्धक दीखता है, क्षणिक सुख की अनुभूति कराता है परन्तु परिणाम में विष के तुल्य भयंकर सिद्ध होता है । मानसिक ऐयाशी भी ऐसी ही घातक है । चटोरेपन और कामुकता की भाँति ही उसका भी भयंकर प्रभाव होता है । शौकीन तबियत के लोग आये दिन ऐसे शगल तलाश करते रहते हैं जिससे मनोरंजन के साधन जुटते रहें । तीरतर-बाजी, कबूतरबाजी, मुर्गे लड़ाना, ताश, जुआ, चौपड़, शतरंज, शिकार खेलना, सिनेमा, नाटक, सरकस, नाच रंग आदि के कितने ही ऐसे फालतू शौक लोग अपने वक्त काटने, मन बहलाने की दृष्टि से पालते हैं, पर उनके कारण समय की बरबादी, आदतों के आदी होने की जो बुराई पैदा हो जाती है, उसके कारण उसका जीवन एक व्यर्थ की निकम्मी चीज बन जाता है । ऐसे लोग जीवन में महत्वपूर्ण कार्य करना तो दूर अपनी आजीविका को भी ठीक तरह से नहीं चला सकते । इन शौकों में इनके खर्च बढ़ते हैं, जिनकी पूर्ति संचित पूँजी को समाप्त करने के बाद, कर्जे लेने या चोरी, बेईमानी करके ही करनी पड़ती है ।

अपनी वासनाओं पर काबू रखना उन्हें कुमार्ग पर न जाने देना मनुष्य के शौर्य, पराक्रम एवं पुरुषार्थ का प्रधान चिन्ह है । एक दूसरे की मारकाट करने वाले लड़ाकू आक्रमणकारियों को बहुधा शूरवीर कहा जाता है । यह परिभाषा बिलकुल गलत है । यदि यही बात सही हो तो कसाई और मछुआरे सबसे बड़े शूरवीर माने जा सकते हैं । आत्म रक्षा के लिए शस्त्र उठाना दूसरी बात है, उद्दंडों को नियंत्रण में लेने के लिए दंड नीति अपनाना भी उचित है पर साधारणतया लड़ाकू प्रक्रिया की प्रशंसा धर्मशास्त्रों में कही नहीं है वहाँ तो अहिंसा का ही प्रतिपादन है । जिस युद्ध में निरंतर संलग्न रहने के लिए भगवान कृष्ण ने अर्जुन के बहाने जन साधारण को उपदेश दिया है उसमें मनः क्षेत्र में कुहराम मचाने वाले इस असंयम असुर के विरुद्ध लड़ते रहने का संदेश सन्निहित है । असुर के उपद्रव जब तक स्वच्छंद गति से चलते रहेंगे तब तक जीवन का न कोई सदुपयोग हो सकेगा और न उत्कर्ष । असंयम के चंगुल में फँसे रहना अपनी सारी महत्वपूर्ण शक्तियों की बरबादी करके जीवन को असफल बनाने के लिए बुराई के समक्ष आत्म समर्पण करने के बराबर है ।

आलस्य और प्रमाद में पड़े हुए हम अपने बहुमूल्य समय का सत्यानाश करते रहते हैं । जीवन की एकमात्र संपदा समय ही है । जिसने उसका सदुपयोग कर लिया वह विजयी बना, सफल हुआ, उन्नति के शिखर पर पहुँचा और जिसने लापरवाही के साथ वक्त काटा उसके पल्ले हाथ मलते रहना ही रहा । सबेरे जल्दी उठना, हर काम को फुर्ती और मुस्तैदी से निबटाना, अपने कार्यक्रम में आशावादी और उत्साही रहना, समय विभाजित करके हर काम ठीक समय पर करना । ऐसा दिव्य गुण है जिसे अपनाकर कोई सामान्य स्थिति में पड़ा हुआ मनुष्य भी प्रगति के साधन उपलब्ध करता हुआ विजय श्री का वरण कर सकता है ।

कई लोग असंयम के वशीभूत होकर दावतों में बहुत खा जाते हैं और पीछे कष्ट उठाते हैं । इसी प्रकार सामने उपस्थित सुखोपभोग की वस्तुएँ धन, ऐश्वर्य, शक्ति, सत्ता, प्रशंसा, प्रतिष्ठ आदि उपस्थित होने पर लोगों की नीयत बिगड़ जाती है । कितनी मात्रा उनके लिए पर्याप्त है कितने का उपयोग उनके लिए संभव है यह सोचने की अपेक्षा वे अधिकाधिक माया का लालच उसी प्रकार करने लगते हैं जैसे चटोरा आदमी अधिक खाकर मरता है । धन का अपने आप में कुछ महत्व नहीं, चाँदी, सोना या नोट कितनी ही मात्रा में क्यों न हो उससे सीधा लाभ कुछ भी नहीं, उनका सदुपयोग जीवनोत्कर्ष में जितना हो जाता है उतना ही उस धन का मूल्य है, शेष तो कूड़े करकट की तरह एक व्यर्थ पड़ी रहने वाली वस्तु है जिसे अंत में कोई न कोई अपना विराना मुफ्त के माल की तरह लूट ले जाता है । इस सचाई से अनभिज्ञ होने के कारण अनेकों व्यक्ति लालच के मारे अधिकाधिक धन संग्रह में लगे रहते हैं । कामवासना, मनोरंजन आदि के अधिकाधिक अवसर प्राप्त करने के लिए भी इसी तरह लोग बदहवास हो जाते हैं । यह चीजें एक सीमित मात्रा में ही आनंददायक हो सकती है, उनकी अति सब प्रकार घातक ही सिद्ध होती है । इसलिए भौतिक उन्नति के बारे में किसी भी व्यक्ति या राष्ट्र को अधिक महत्वाकांक्षी न होना चाहिए । अपनी वासनाओं और तृष्णाओं पर मनुष्य को संयम ही करना चाहिए।


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