न्याय की विजय (Kahani)

June 1994

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मराठा सरदार राघोवा पेशवा पर अपने भतीजे की हत्या का अभियोग था । जिस न्यायालय में उसका निर्णय होने वाला था, उसके न्यायाधीश श्री रामशास्त्री थे । श्री शास्त्री सत्यनिष्ठ के लिए दूर-दूर तक विख्यात थे, इसलिए राघोवा को भय था कहीं उसे सजा न मिल जाये ।

राघोवा की धर्मपत्नी को एक उपाय सूझा । उन्होंने श्री रामशास्त्री को भोज दिया और इस विचार से उनकी खूब आवभगत की कि उससे प्रभावित होकर श्रीशास्त्री उनके पक्ष में ही निर्णय देंगे । बात-बात में उन्होंने इस बात की चर्चा ही छेड़ दी तो न्यायानिष्ठ श्री रामशास्त्री ने कहा-’न्याय की दृष्टि से तो सरदार को प्राणदण्ड मिलना ही चाहिए ।’ राघोवा की पत्नी उनकी इस निर्भयता से प्रभावित तो हुई पर उन्होंने कहा-’इस तरह का निर्णय देने का परिणाम जानते हैं आप, क्या होगा ? हम आपके, जिंदा ही आपकी जीभ कटवा लेंगे और किसी गड्ढे में गढ़वा देंगे ।

बिना उत्तेजित हुए श्री शास्त्री ने उत्तर दिया ‘यह आप कर सकती हैं पर उससे मुझे कोई दुःख नहीं होगा, गलत निर्णय देने की अपेक्षा तो जीभ क्या सिर काट लिया जाना ही अच्छा है ।’ अंततः विजय न्याय की ही हुई ।

एक मनुष्य किसी महात्मा के पास पहुँचा वह कहने लगा-जीवन अल्पकाल का है । इस थोड़े से समय में क्या करें । वाल्यकाल में ज्ञान नहीं रहता । बुढ़ापा उससे भी बुरा होता है । रात-दिन नींद नहीं लगती है । रोगों का उपद्रव अलग बना रहता है । युवावस्था में कुटुँब का भरण-पोषण किये बिना नहीं चलता । तब भला ज्ञान कैसे मिले ? लोक-सेवा कब की जाय ? इस जिंदगी में तो कभी समय मिलता दीखता नहीं ।’ ऐसा कह और खिन्न होकर वह रोने लगा ।

उसे रोते देखकर महात्मा भी रोने लगे । उस आदमी ने पूछा-’आप क्यों रोते हैं ?’ महात्मा ने कहा-’क्या करूं बच्चा ! खाने के लिए अन्न चाहिए लेकिन अन्न उपजाने के लिए मेरे पास जमीन नहीं है । मैं भूख से मर रहा हूँ । परमात्मा के एक अंश में माया है । माया के एक अंश में तीन गुण हैं । गुणों के एक अंश में आकाश है । आकाश में थोड़ी सी वायु है और वायु में बहुत आग है । आग के एक भाग में पानी है । पानी का शताँश पृथ्वी है । पृथ्वी के आधे हिस्से पर पर्वतों का कब्जा है । नदियों और जंगलों को जहाँ देखो, वहाँ अलग बिखरे पड़े हैं । मेरे लिये भगवान ने जमीन का एक नन्हा सा टुकड़ा भी नहीं छोड़ा । थोड़ी-सी जमीन थी भी, सो उस पर और-और लोग अधिकार जमाये बैठे हैं । तब बताओ मैं भूखों न मरूंगा ?

उस मनुष्य ने कहा-’यह सब होते हुए भी तुम जिंदा तो हो न ? फिर रोते क्यों हो ? महात्मा तुरंत बोल उठे-’तुम्हें भी तो समय मिला है, बहुमूल्य जीवन मिला है, फिर ‘समय नहीं मिलता, जीवन समाप्त हो रहा है, इसकी रट लगाकर क्यों हाय-हाय करते हो । अब आगे से समय न मिलने का बहाना न करना । जो कुछ भी है उसका तो उपयोग करो ।’


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