ऐसा बनें, जैसा दूसरों को बनाना है

June 1994

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इन दिनों सबसे बड़ी दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता का कार्य एक ही है- युग-सृजेताओं को अग्रिम पंक्ति में खड़े होना । पीछे खड़े रहने वाले झंझट में न पड़ने की दृष्टि तो अपने को सुरक्षित अनुभव करते हैं पर वस्तुतः वे रहते अतिशय घाटे में हैं । उत्तरदायित्वों से मुँह छिपा लेने पर हर संभावना को मूक-दर्शक बने देखते रहने वालों की उदासी अपनाने में यह जोखिम भी है कि उन्हें ऐसा कुछ हस्तगत नहीं हो पाता जिस पर गौरव किया जा सके । आलसी, प्रमादी किसी प्रकार दिन तो गुजार लेते हैं पर गिने अर्धमृतकों में ही जाते हैं । मनुष्य जीवन की गरिमा और जिम्मेदारी ही जिसकी समझ में न आई, उसके लिए पेट, प्रजनन भर में जिंदगी के दिन रोते कलपते काट लेने के अतिरिक्त ऐसा कुछ हस्तगत हो नहीं पाता जिससे संतोष, सम्मान पाने और सिर ऊंचा उठा कर प्रज्ञावानों, प्रगतिशील, वरिष्ठों की तरह चलने का अवसर मिल सके । पिछड़े पन से ग्रसित लोग यह समझ ही नहीं पाते कि समुन्नत और सुसंस्कृत स्तर की रीति-नीति अपनाने वाले कितनी प्रसन्नता, प्रशंसा पाते हैं और समाज, समुदाय पर अनुदानों की झड़ी लगा देने वाले कितनी उच्चस्तरीय अनुभूतियों के साथ असाधारण उपलब्धियाँ अनुभव करते हैं ।

जो ढर्रे से ऊंचे उठकर वरिष्ठता स्तर की सूझ बूझ उगा पाते हैं उनके लिए यह जिम्मेदारी एक अनिवार्य आवश्यकता बनकर सामने आ खड़ी होती है कि कुछ बड़े कदम उठाने चाहिए । कुछ बड़े अनुदान और बड़े वरदान पाने की उमंग उभरनी चाहिए । ऐसे लोगों को क्रमबद्ध रूप से दोनों कदम आगे बढ़ाते हुए लक्ष्य के उच्च शिखर पर जा पहुँचने की यशस्वी पर्वतारोहण जैसी साहसिकता जुटानी पड़ती है । इस उपलब्धि के लिए आत्म-परिष्कार और समाज-सुधार के दोनों ही प्रयासों को साथ-साथ अपनाते हुए समग्र-प्रगति की दिशा में चल पड़ना होता है ।

नेतृत्व का अपना आनंद है । मार्ग दर्शकों की यश-गाथा अनंत काल तक चर्चा का विषय बनी रहती है और मरण के उपराँत भी यश शरीर को जीवंत बनाये रहते हैं । सेवा, साधना का, धर्म-धारणा का उपक्रम अपनाना किन्हीं शूर साहसियों से ही बन पड़ता है पर जो ऐसा आदर्श प्रस्तुत कर सकते हैं वे कृतकृत्य भी हो जाते हैं। अनुकरण करने वालों के लिए ऐसी परंपरा विनिर्मित करते हैं जिसका अवलंबन लेकर वे भी साधारण न रहकर असाधारण बन सकें । ऐसों को ही देवमानव या युग-पुरुष की संज्ञा मिलती है ।

इन दिनों युग परिवर्तन की प्रभात बेला में असंख्यों को असंख्य प्रकार की उपलब्धियों से लाभान्वित होने का अवसर मिलने की संभावना बन ही रही है । सबसे अधिक नफे में वे रहेंगे जो इन दिनों युग धर्म के निर्वाह में दत्त चित्त रहेंगे नव सृजन के संदर्भ में कुछ बढ़-चढ़ कर काम करेंगे । जिनमें संवेदना, भाव, चेतना और दूरदर्शिता के तत्व किसी भी अनुपात में जीवित हैं उन्हें संकीर्ण स्वार्थपरता में कटौती करके बचत को उस प्रयोजन में लगाना पड़ेगा जिससे उज्ज्वल भविष्य की संरचना में कुछ महत्व पूर्ण योगदान बन पड़े । ऐसे लोगों के लिए प्रमुख कर्त्तव्य ही बनता है-लोक मानस का परिष्कार । दृष्टिकोण और क्रिया कलापों में सतयुगी परंपरा का प्रतिष्ठापन । मोटे शब्दों में यह विचार क्राँति है । जिसमें समूची मानवता को नये सिरे से नये भाग्योदय का सौभाग्य उपलब्ध हो सके । आदिम काल से चलती आ रही एक अस्तव्यस्तता दिशा धारा को अभिनव सुनियोजन का अवसर मिल सके जिसके कारण अब तक के इतिहास में एक नई शृंखला जुड़ सके । इस दृष्टि से अपने समय को सर्वसाधारण के लिए सामान्य रीति से प्रखर प्रतिभाओं के लिए विशेष अनुपम उपलब्धियाँ हस्तगत करने का अवसर मिल सके । भविष्य में जब कभी भी इसे ऐतिहासिक मोड़ वाले समय की समीक्षा-विवेचना होगी, तो एक शब्द में यही कहा जाता रहेगा कि युगसंधि की बेला में अंतरिक्ष से असीम चेतना और ऊर्जा बरसी थी । धन्य थे वे लोग जो उस समय कार्यरत रह सके और दिशाओं के दरवाजों पर अड़े हुए किवाड़ों की भूमिका निभा सके । नामकरण की दृष्टि से उनका परिचय सृजन शिल्पियों के रूप में भी कहा और लिखा जाता रहेगा ।

‘विचार क्राँति’ अपने समय की सबसे बड़ी माँग है । जनमानस का परिष्कार किये बिना वह कुछ भी संभव न हो सकेगा, जो भविष्य के संबंध में सोचा, चाहा और निर्धारित किया गया हो । समस्त समस्याओं की जड़ एक ही केन्द्र पर केन्द्रित है । दुर्बुद्धि, दुर्गति के लिए मनुष्य ही पूरी तरह जिम्मेदार है । यदि मनुष्य को यही सोचने और सही करने भर की मानसिकता बनाने का अवसर मिल सके, तो समझना चाहिए कि प्रस्तुत अगणित समस्याओं, विभीषिकाओं और अवाँछनीयताओं के घटाटोप से छुटकारा पाने का सुयोग हस्तगत हो गया।

यह सब अनायास ही घटित हो जाने वाले नहीं है । उसके लिए प्रमुख भूमिका अग्रगामियों की होगी, जिनके सम्मिलित प्रयास से समुद्र पर सेतु बाँधने, गोवर्धन उठाने, स्वतंत्रता उपलब्ध करने और परिव्राजकों द्वारा समस्त संसार में धर्मचक्र प्रवर्तन जैसे अविस्मरणीय अवसरों की नये सिरे से वही पुनरावृत्ति हुई समझी जा सके। रात्रि के अवसान और अरुणोदय के आगमन के बीच मध्याँतर होता है, जिसे ब्रह्ममुहूर्त कहते हैं । युगशिल्पियों को उसी के समतुल्य माना जायगा ।

जनमानस का परिष्कार करने की महती आवश्यकता को पूरा करने में जिनका मन उपयुक्त भूमिका निबाहने के लिए हुलसित हो, उन्हें प्रयास का आरंभ अपने आप से करना होगा । दूसरों से कुछ करने के लिए कहा जाय, तो यह आवश्यक नहीं कि वह परामर्श को मान ही लें और मार्गदर्शक के अनुरूप अपने गतिविधियों को मोड़ ही लें, किंतु अपने आप के लिए तो उस अनुशासन का परिपालन हर मनस्वी के लिए सहज संभव हो सकता है । अपने ऊपर तो अपना अधिकार पूरी तरह है ही, फिर उसमें अवज्ञा का प्रश्न सामने ही नहीं आ सकेगा । अपने को सुधार लिया जाय, तो अन्यान्यों को उसका अनुकरण करने के लिए प्रस्तुत वातावरण ही दबाने-दबोचने में पूरी तरह समर्थ हो सकता है । साँचे में ढालकर ही खिलौनों और पुर्जे बड़ी संख्या में ढलते विनिर्मित होते चले जाते हैं । दूसरों को उपदेश देकर उन्हें इच्छित दिशा में चलाया जा सका होता तो अब तक तो सारी दुनिया ही बदल गई होती ।

आज उपदेष्टाओं की कहाँ कुछ कमी है । हर प्रवचन मंच पर उन्हीं को छाया देखा जा सकता है । कभी सात ऋषि, तपस्वी और आठ वसु-मनीषी ही सतयुग को बुलाने और पकड़े रखने में पूरी तरह समर्थ रहे थे । अनुयायी तो उन्हें बड़ी संख्या में सहज ही मिलते रहे और बात बन गई, पर आज तो जन गणना के अनुसार 70 लाख से अधिक धर्मधारी अपनी आजीविका इसी व्यवसाय से प्राप्त करते हैं । इसके अतिरिक्त कथा-वाचकों, कीर्तनकारों, उपदेशकों और मार्गदर्शकों में अपने को सम्मिलित बताने वालों की संख्या प्रायः इतनी ही और हो सकती है । इस प्रकार अपने देश में ही तथा-कथित मार्गदर्शक-प्रवक्ताओं की संख्या एक करोड़ से ऊपर निकल जाती है । धर्म, राजनीति समाज, विभिन्न वर्गों के संगठनों पर छाये हुए इतनी बड़ी संख्या वाले मार्गदर्शक प्रवक्ताओं द्वारा किसी भी क्षेत्र को, किसी भी मंच को सुनियोजित करने में सफलता क्यों नहीं मिल रही है ? इस अत्यंत विकट किंतु साथ ही अत्यंत सरल प्रश्न का उत्तर एक ही है कि दूसरों से जो कराने की अपेक्षा की जाती है, उसमें अग्रणी कहलाने वाले प्रायः असफल ही रहते हैं । कथनी और करनी में अंतर रहने पर उसका प्रभाव शून्य के बराबर रह जाता है । रंगमंच में आकर्षक वेश-भूषा बना कर अभिनेता न जाने क्या-क्या बकते-गाते रहते हैं, पर इन नारों की वास्तविकता जानने के कारण दर्शकों में से कोई मनोरंजन पाने के लिए ऐसा कुछ उपलब्ध नहीं करता, जिससे प्रवाहित होकर आदर्शवादी रीति-नीति अपना सकना संभव हो सके । बुरी बात तो अपने संचित कुसंस्कार और अनाचारियों का समुदाय है, जो पतन पराभव का कुयोग जुटा देता है । बात ऊंचा उठने और आगे बढ़ने की है । इस प्रयास में सफलता मात्र उन्हीं को मिलती है, जो प्रतिपादनों को अन्यान्यों पर थोपने से पहले अपने आपको तद्नुरूप बनाने में समर्थ हो सके हैं । निष्णात अध्यापक ही छात्रों का समुचित अध्यापन करा सकने में समर्थ होते हैं । जो स्वयं ही अनपढ़ हों, वे दूसरों को क्या पढ़ायें । जो स्वयं ही संगीत कला में प्रवीण नहीं, वह संगीत विद्यालय का अधिष्ठाता होने की घोषणा करें, तो उसे उपहासास्पद ही माना जायेगा ।

उपदेश इन दिनों प्रायः सर्वथा असफल इसी कारण से हो रहे हैं कि उपदेशक जो दूसरों से कराना चाहते हैं, उसे निजी जीवन में समाविष्ट करके यह सिद्ध नहीं किया जा पाया कि जो कहा गया है, वह व्यावहारिक भी है। यदि उचित, व्यावहारिक और लाभप्रद रहा होता तो उपदेशों के अनुरूप प्रवक्ता ने सर्वप्रथम अपने को उस विद्या को अपनाकर लाभान्वित किया होता । इस संदेश असमंजस का निवारण न कर पाने पर ही उपदेशकों के दरबार में दिये जाने वाले भाषण भी विडंबना बन कर रह जाते हैं, श्रवणकर्ताओं के गले नहीं उतरते । भाषण, परामर्शों से भावुकों को अवाँछनीयता की दिशा में भड़काना, उत्तेजित करना तो संभव है, पर संभावना बनेगी ही नहीं कि उत्कृष्टता अपनाकर संयम बरतने और परामर्श प्रयोजनों के लिए किसी को अग्रणी किया जा सके। यही कारण है कि इन दिनों तथाकथित नेताओं को अभिनेताओं की संज्ञा देकर लोग कौतुक-कुतूहल जैसा मजा लेते हैं और इस कान सुन कर उस कान निकाल देते हैं, पल्ले झाड़कर चल देते हैं । बाद में उस कौतुक के प्रति व्यंग्य-उपहास करते हुए मजा जमाने की खूबी को-बहरूपिया स्तर की संज्ञा देते हुए उसकी निंदा तक करते देखे जाते हैं । विशेषतया यह प्रक्रिया तब तेजी से उभरती देखी जाती है, जब प्रसंग आदर्शवादिता अपनाने के लिए,सिद्धाँतों को अपनाने के लिए लोगों से कहा जा रहा हो । निजी या वर्ग स्वार्थ के प्रतिपादन ही प्रायः प्रवक्ताओं के परामर्श में चुन लेते हैं और वैसा ही कुछ करने से आगे की बात पर ध्यान नहीं देते । हड़तालों और प्रदर्शनों के लिए, विग्रह-उपद्रव के लिए, आक्रोश उत्पन्न करने एवं अड़ंगेबाजी में नेतागिरी अपना काम कर जाती है, पर जहाँ सृजन और उपयोगी सुधार-परिवर्तन की बात कही जाय, वहाँ लोग ॐ घने या उठ कर चलने लगते हैं ।

इस विडंबना में दोष जनमानस का नहीं, वरन् प्रवक्ताओं की अनधिकार चेष्टा का है । वे दूसरों से वह कराना चाहते हैं, जिसे वे स्वयं तक कर सकने में समर्थ नहीं हो सके । अच्छाई तो कुछ समय छिपी भी रह सकती है, पर बुराई की विडंबना में एक खूबी यह जुड़ी हुई है कि वह हींग की तीखी गंध की तरह अनायास ही दूर-दूर तक फैल जाती है । फूलेरी फूल की सुगंध अपना अस्तित्व छोटे क्षेत्र में जमा कर रह जाती है । अनाधिकारी धर्मोपदेशक खोटे सिक्के की तरह मात्र विक्षोभ और अविश्वास ही भड़काते हैं ।

यहाँ यह ऊहापोह इसलिए किया जा रहा है कि नवसृजन के हर क्षेत्र में, हर प्रसंग में आदर्शवादिता का संपुट लगता है, लोगों को अपनाई गई दुष्प्रवृत्तियों को छोड़ने के लिए कहा जाता है, जो उचित उत्कृष्ट है, उसे अपनाने के लिए अनुरोध आग्रह किया जाता है । यह नीचे गिरे को ऊपर उठाने जैसा असाधारण प्रयत्न हुआ । इसे संपन्न करने के लिए ऊपर उठाने की ऐसी समर्थता संचित की जानी चाहिए जैसी कि गिरे इंजन को फिर से सीधा खड़ा करने के लिए सशक्त क्रेनों की आवश्यकता पड़ती है । कुएँ से पानी खींचने के लिए भी तो भुजाओं का बल तो चाहिए ही । अंतरिक्ष में उपग्रह फेंकने वाले केंद्रों में शक्तिशाली राकेट लगाने पड़ते हैं ऊपर उठाने के लिए सक्रिय असाधारण समर्थता की आवश्यकता पड़ती है, फिर लोगों को अनगढ़पन से विरत होने और उत्कृष्टता अपनाने के लिए सहमत करने के लिए अनिवार्य रूप से ऐसी प्रतिभाएँ चाहिए, जो अपने खरेपन की कसौटी पर कसे जाने और आग में तपाये जाने के उपराँत खरी उतरी हो ।

बुराई बढ़ाने में तो नशेबाजों के, व्यभिचारियों के, गुंडागिरी अपनाने वाले आवारागर्दों तक के गिरोह अनेकों को प्रभावित करने और चंगुल में फँसा लेने में आये दिन सफल होते रहते हैं पर उत्कृष्टता की दिशा में सहमत और प्रेरित कर सकना मात्र उन्हीं के लिए संभव होता है जो लोकशिक्षण के लिए जो निर्धारण विनिर्मित किया गया है, उसका प्रयोग परीक्षण यदि अपने ऊपर कर लिया गया है तो उनके परामर्श, उपदेशों और आह्वानों को शिरोधार्य करने वालों की भी कमी नहीं पड़ती है । उन्हें असफलता के लिए किसी को भी दोषी नहीं ठहराना पड़ा है । बुद्ध, ईसा और गाँधी के उपदेशों का न तो उपहास हुआ और न अनुगमन के लिए कोई तैयार न हुआ जैसी शिकायत करनी पड़ी जमाने को, समाज को, लोक मानस को दोषी ठहराने की भी आवश्यकता नहीं पड़ी । विनोबा का अनुरोध असंख्यों स्वीकारा और भूदान के लिए लाखों एकड़ भूमि प्रस्तुत कर दी । महर्षि दयानंद, स्वामी विवेकानंद, आद्य शंकराचार्य आदि को ऐसी निराशा का सामना नहीं करना पड़ा कि उनकी बात कोई सुनता, मानता नहीं । मध्यकालीन संतों के इतने अधिक अनुयायी समवेत हुए कि उनका अपना अपना संप्रदाय ही बन गया । यदि उनके संस्थापक ओछे, खोटे और प्रवक्ता भर रहे होते तो नियम-संयम के साथ बंधे हुए किसी न किसी सीमा तक असुविधा उत्पन्न करने वाले उनके अनुबंधों को कोई क्यों स्वीकार करते । पुरातन काल के मुट्ठी भर ऋषि-मनीषी अपने समय में धरती पर स्वर्ग उतारने और मनुष्य में देवत्व उभारने का असंभव जैसा दीखने वाला कार्य संभव बनाने में उसी आधार पर सफल हुए थे । सतयुग आसमान से नहीं टपकता वरन् ऋषि-मनीषी स्तर के प्रचंड और प्रखर व्यक्तित्व ही उसे धरती पर खींच बुलाते हैं । आज भी “वयंराष्टजागृयाम पुरोहिताः” स्तर के पुरुषार्थ की अपेक्षा तथा आवश्यकता ।


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